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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 622
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
28
म꣡न्ये꣣ वां द्यावापृथिवी सु꣣भो꣡ज꣢सौ꣣ ये꣡ अप्र꣢꣯थेथा꣣म꣡मि꣢तम꣣भि꣡ योज꣢꣯नम् । द्या꣡वा꣢पृथिवी꣣ भ꣡व꣢तꣳ स्यो꣣ने꣡ ते नो꣢꣯ मुञ्चत꣣म꣡ꣳह꣢सः ॥६२२॥
स्वर सहित पद पाठम꣡न्ये꣢꣯ । वा꣣म् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइ꣡ति꣢ । सु꣣भो꣡ज꣢सौ । सु꣣ । भो꣡ज꣢꣯सौ । ये꣡इति꣢ । अ꣡प्र꣢꣯थेथाम् । अ꣡मि꣢꣯तम् । अ । मि꣣तम् । अभि꣢ । यो꣡ज꣢꣯नम् । द्या꣡वा꣢꣯पृथिवी । द्या꣡वा꣢꣯ । पृथिवीइ꣡ति꣢ । भ꣡व꣢꣯तम् । स्यो꣣नेइ꣡ति꣢ । ते꣡इति꣢ । नः꣣ । मुञ्चतम् । अँ꣡ह꣢꣯सः ॥६२२॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्ये वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ ये अप्रथेथाममितमभि योजनम् । द्यावापृथिवी भवतꣳ स्योने ते नो मुञ्चतमꣳहसः ॥६२२॥
स्वर रहित पद पाठ
मन्ये । वाम् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइति । सुभोजसौ । सु । भोजसौ । येइति । अप्रथेथाम् । अमितम् । अ । मितम् । अभि । योजनम् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइति । भवतम् । स्योनेइति । तेइति । नः । मुञ्चतम् । अँहसः ॥६२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 622
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगली ऋचा का द्यावापृथिवी देवता है। माता-पिता से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (द्यावापृथिवी) भूमि-आकाश के सदृश माता-पिताओं अथवा अध्यापिका-उपदेशिकाओ ! मैं (वाम्) तुम दोनों को (सुभोजसौ) शुभ पालनकर्ता (मन्ये) जानता हूँ, (ये) जो तुम दोनों (अमितं योजनम् अभि) अपरिमित योजन पर्यन्त (अप्रथेथाम्) यश से प्रख्यात हो। हे (द्यावापृथिवी) पृथिवी और सूर्य के तुल्य माता-पिताओ अथवा अध्यापिका-उपदेशिकाओ ! तुम हमारे लिए (स्योने) सुखदायक (भवतम्) होवो। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतम्) छुडाओ ॥८॥
भावार्थ
माता-पिताओं और अध्यापिका-उपदेशिकाओं के पास से उत्तम विद्या और उत्तम उपदेश प्राप्त कर सन्तान श्रेष्ठ ज्ञानी, शुभ कर्म करनेवाले और निष्पाप होवें ॥८॥
पदार्थ
(सुभोजसौ द्यावापृथिवी) हे मेरे उत्तम पालन करने वाले प्राण और उदान “द्यावापृथिवी प्राणोदानौ” [श॰ ४.३.१.२२] (वाम्) तुम दोनों को (मन्ये) चाहता हूँ “मन्यते कान्तिकर्मा” [निघं॰ २.६] (ये अमितं योजनम्-अभि-अप्रथेथाम्) जो तुम दोनों अपरिमित योजन मुझे जहाँ युक्त होना हो ऐसे योजनीय मोक्षधाम को सम्मुख प्रसिद्ध करो (द्यावापृथिवी स्योने भवतम्) तुम दोनों प्राण और उदान सुखदायक होओ (ते) वे तुम दोनों (अंहसः-मुञ्चतम्) आत्मघात पाप बन्धन से छुड़ाओ “पाप्मा वा अंहः” [तै॰ २.२.७.४] “अंहः......हन्तेः” [निरु॰ ४.२५]।
भावार्थ
हे मेरे जीवन के साथियो उत्तम पालन करने वाले प्राण और उदान! तुम जन्म से साथ हो, मैं तुम्हें चाहता हूँ, तुम संसार में सुखदायक बनो तथा मुझे पाप बन्धन से छुड़ाओ और असीम योग मेल के स्थान मोक्ष को मेरे लिये प्रसिद्ध करो। जीवन को चलाओ—अध्यात्मक्षेत्र में प्रेरित करो। परमात्मा की उपासना में लगो लगाओ॥८॥
टिप्पणी
[*48. “द्यावापृथिवी प्राणोदानौ” [श॰ ४.३.१.२२]।]
विशेष
ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपास्य परमात्मदेव वाला उपासक)॥ देवता—द्यावापृथिवी (अमृत प्राण उदान*48)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
उत्तम पालक द्यावापृथिवी
पदार्थ
व्यक्ति जितना-जितना विचारता है उतना - उतना सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की रचना-कौशल की महिमा का अनुभव करता है। उसे प्रत्येक व्यवस्था में प्रभु की कृपा दृष्टिगोचर होने लगती है। वह कहता है कि हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोको! तदन्तर्गत सब पदार्थो! (वाम्) = आपको (सुभोजसौ) = बड़ा उत्तम पालन करनेवाला (मन्ये) = मानता हूँ। प्रकाश व वृष्टि के द्वारा द्युलोक पृथिवी में उन अन्नों व फूल-फलों को जन्म देता है, जिनसे हमारा अत्युत्तम पोषण होता है। ये ‘द्यावापृथिवी' हमारे ‘माता-पिता' ही हैं। माता-पिता जैर पुत्र का पूर्ण पोषण करते हैं उसी प्रकार ये पृथिवी और द्युलोक हमारा पोषण करते हैं। इनमें हमारे निवास के लिए किसी प्रकार की कमी हो' ऐसी बात नहीं। (ये) = जो (अमितम्) = अनन्त (अभियोजनम्) = कोसों तक चारों ओर (अप्रथेथाम्) = फैले हुए हैं। 'हमारे लिए' कम पड़ जाएँगे ऐसी आशंका नहीं है। पृथिवी 'वसुन्धरा' है- सभी के लिए पर्याप्त वसु इसमें विद्यमान है। यह ‘रत्नगर्भा' है - यहाँ रत्नों की कोई कमी है?
‘वामदेव गौतम’ प्रार्थना करता है कि (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक (स्योने) = हमें सुख देनेवाले (भवतम्) = हों।
(ते) = वे द्यावापृथिवी (न:) = हमें (अहंसः) = पाप व कष्ट से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें। जब अज्ञानवश हम इनमें फँस जाते हैं, इनका अन्याय से संग्रह करने लगते हैं और इनके अतियोग में ग्रसित हो जाते हैं तो हम दुःखभागी हुआ करते हैं। सुख देनेवाले द्यावापृथिवी हमारे दुःख का कारण हो जाते हैं, परन्तु यदि हम 'वामदेव' सुन्दर दिव्य गुणोंवाले 'गोतम' = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनेंगे तो कभी भी अंहस् कष्ट के भागी न होंगे। हम द्यावापृथिवी को 'सुभोजसौ'=उत्तम पालन करनेवालों के रूप में ही देखें और इनकी अनन्तता का ध्यान करते हुए इनमें परस्पर शान्ति से निवास करनेवाले बनें। ये इतने विशाल हैं - यहाँ सभी के लिए स्थान है - लड़ने की आवश्यकता ही क्या ?
भावार्थ
द्यावापृथिवी की विशालता और भोग-सामग्री का हम ध्यान करें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( द्यावापृथिवी ) = सबको प्रकाश देनेहारे गुरो ! सूर्य के समान प्रकाशक परमात्मन ! और पृथिवी के समान विस्तृत विशाल प्रकृति !मैं ( वाम् ) = आप दोनों को ( सुभोजसौ ) = उत्तम पालन करने वाले ( मन्ये ) = मानता व जानता हूं । आप दोनों ( अमितं ) = अपरिमित अनन्त ( योजनं ) = इस संसार को ( अप्रथेथाम् ) = विस्तृत कर रहे हो । हे ( द्यावापृथिवी ) = पूर्वोक्त पुरुष और प्रकृति ! आप हमारे लिये ( स्योने ) = सुखकारक ( भवतं ) = होओ । ( ते ) = वे दोनों आप ( नः ) = हमें ( अंहसः ) = पाप से ( मुञ्चतम् ) = सुक्त करो ।
टिप्पणी
६२२ – "मन्ये वां द्यावा... ममिता योजनानि । प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां ते नो०" इति अथर्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:।
देवता - द्यावापृथिवी।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्यावापृथिवी देवते। मातापितरौ अध्यापिकोपदेशिके वा प्रार्थयते।
पदार्थः
हे (द्यावापृथिवी२) भूम्याकाशौ इव मातापितरौ, अध्यापिकोपदेशिके वा ! अहम् (वाम्) युवाम् (सुभोजसौ) सुपालनकर्त्र्यौ (मन्ये) जानामि। (ये) ये युवाम् (अमितम् योजनम् अभि) अपरिमितयोजनपर्यन्तम् (अप्रथेथाम्) यशसा प्रख्याते स्थः। हे (द्यावापृथिवी) पृथिवीसूर्यौ इव मातापितरौ अध्यापिकोपदेशिके वा ! युवाम् अस्मभ्यम् (स्योने) सुखकारिण्यौ (भवतम्) जायेथाम्। (ते) ते युवाम् (नः) अस्मान् (अंहसः) पापात् (मुञ्चतम्) मोचयतम् ॥८॥
भावार्थः
मातापित्रोरध्यापिकोपदेशिकयोश्च सकाशात् सच्छिक्षां सदुपदेशं च प्राप्य सन्तानाः सुज्ञानाः शुभकर्माणो निष्पापाश्च भवन्तु ॥८॥
टिप्पणीः
१. अथ० ४।२६।१, ऋषिः मृगारः। ‘मन्वे वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ सचेतसौ ये अप्रथेथाममिता योजनानि। प्रतिष्ठेह्यभवतं वसूनां ते नो मुञ्चतमंहसः ॥’ इति पाठः। २. द्यौष्ट्वा पिता पृथिवी माता। अथ० २।२८।४, द्यौरहं पृथिवी त्वम्। अथ० १४।२।७१। द्यावापृथिव्यौ अध्यापिकोपदेशिके स्त्रियौ—इति य० ३७।३ भाष्ये द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Resplendent like the Sun and O Matter, vast like the Earth, I know Ye as excellent Guardians. Ye both have expanded this immeasurable world. May Ye God and Matter give us pleasure. May Ye both liberate us from sin !
Meaning
O divine heaven and earth, I know you are both great givers of lifes nourishments, and you extend to the boundless borders of existence. O life giving divinities, be kind and gracious and save us from sin and evil.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सुभोजसौ द्यावापृथिवी) હે મારું શ્રેષ્ઠ પાલન કરનારા પ્રાણ અને ઉદાન (वाम्) તમે બન્નેને (मन्ये) ચાહું છું યે અમિત (ये अमितं योजनम् अभि अप्रथेथाम्) તમે બન્નેને અપરિમિત યોજન મને જ્યાં યુક્ત થવાના છો એવા યોજનીય મોક્ષધામની સન્મુખ પ્રસિદ્ધ કરો (द्यावापृथिवी स्योने भवतम्) તમે બન્ને પ્રાણ અને ઉદાન સુખદાયક થાઓ. (ते) તે તમે બન્ને (अंहसः मुञ्चताम्) આત્મઘાત પાપબંધનથી છોડાવો. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે મારા જીવન સાથીઓ શ્રેષ્ઠ પાલન કરનારા પ્રાણ અને ઉદાન ! તમે જન્મથી જ સાથે છો, હું તમને ચાહું છું, તમે સંસારમાં સુખદાયક બનો તથા મને પાપ બંધનથી છોડાવો અને અસીમ યોગમેલના સ્થાન મોક્ષને મારા માટે પ્રસિદ્ધ-પ્રકટ કરો. જીવનને ચલાવો-અધ્યાત્મ ક્ષેત્રમાં પ્રેરિત કરો. પરમાત્માની ઉપાસનામાં લાગો-લગાવો. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
دئیو اور پرتھوی (ارض و سَما) ماں باپ کی طرح
Lafzi Maana
یہ ارض و سما (زمین اور آسمان) دونوں ماتا پِتا کی طرح ہزاروں کھانے پینے کے سامان دے کر ہمارے ازلی ابدی محافظ یا پالک بنے ہوئے ہیں، جن کا پھیلاؤ بے شمار کوس یعنی لامحدود ہیں۔ ہم ان کی چھتر چھایا میں رہتے ہوئے بُرائیوں اور جرائم سے ہمیشہ دُور رہیں، کیونکہ یہ بھرپُور روشنی، بارش اور غلّبہ وغیرہ دے کر ہمارا پیٹ بھرتے رہتے ہیں۔ تو ہم آپ سی چھینا جھپٹی، چوری چکاری، لُوٹ کھسُوٹ کرکے پرماتما کی خوبصورت جنّت نما دُنیا کو دوزخ کیوں بنائیں؟
Tashree
یہ ارض و سما ماں باپ ہمارے پالن کرتے سدا سے ہیں، تو کیوں آپس میں لڑتے جب یہ دیتے بھر بھر سدا سے ہیں۔
मराठी (2)
भावार्थ
माता-पिता व अध्यापिका-उपदेशिका यांच्याकडून उत्तम विद्या व उत्तम उपदेश प्राप्त करून संतान श्रेष्ठ, ज्ञानी, शुभ कर्म करणारे व निष्पाप बनावेत ॥८॥
विषय
घावापृथिवी देवता। माता-पिता, अध्यापक-उपदेशक यांना प्रार्थना
शब्दार्थ
हे (द्यावापृथिवी) भूमी आणि आकाशाप्रमाणे (आम्हाला वंदनीय असलेले) हे माता-पिता अथवा हे अध्यापक व उपदेशकांनो/अध्यापिकांनो-उपदेशिकांनो, मी (तुमचा पुत्र/तुमचा शिष्य) (वाम्) तुम्हा दोघांना (सुभो जसौ) शुभ पालनकर्ता (मन्ये) मानतो (ये) असे जे तुम्ही दोघे (अभितं योजनम् अभि) अपरिमित योजनापर्यंत (अप्रयेथाम्) कीर्तरूपाने प्रख्यात आहात. हे (द्यावापृथिवी) पृथ्वी व सूर्याप्रमाणे पूज्य माता-पिता वा हे अध्यापिका/उपदेशिकांनो, तुम्ही आमच्यासाठी (स्योने) सुखकारक (भवतम्) व्हा. (ते) ते तुम्ही दोघे (जः) आम्हाला (अंहसः) पापकृत्यापासून (मुस्चतम्) सोडवा.।।८।।
भावार्थ
सर्वांनी आपापल्या आई-वडिलांपासून अध्यापिका/उपदेशिकापासून उत्तम विद्या आणि उत्तम उपदेश प्राप्त करून त्यांचे श्रेष्ठ, ज्ञानी व शुभकर्मकर संतान व्हावे, पापरहित जीवन जगावे।।८।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! உன் கிரணங்கள் சர்வவியாபகங்களாகும்; மேலும் உன் பிராணன் அபானனான குதிரைகள் பொன்மயமானவை, அப்படியான உன்னை சுந்தர மொழியுள்ள மேதாவி புருஷர்கள் துதிசெய்கிறார்கள்.
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