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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 626
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - गावः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
28
स꣣ह꣡र्ष꣢भाः स꣣ह꣡व꣢त्सा उ꣣दे꣢त꣣ वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣢णि꣣ बि꣡भ्र꣢तीर्द्व्यूध्नीः । उ꣣रुः꣢ पृ꣣थु꣢र꣣यं꣡ वो꣢ अस्तु लो꣣क꣢ इ꣣मा꣡ आपः꣢꣯ सुप्रपा꣣णा꣢ इ꣣ह꣡ स्त ॥६२६
स्वर सहित पद पाठस꣣ह꣡र्ष꣢भाः । स꣣ह꣢ । ऋ꣣षभाः । सह꣡व꣢त्साः । स꣣ह꣢ । व꣣त्साः । उदे꣡त꣢ । उ꣣त् । ए꣡त꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । रू꣣पा꣡णि꣢ । बि꣡भ्र꣢꣯तीः । द्व्यू꣣ध्नीः । द्वि । ऊध्नीः । उरुः꣢ । पृ꣣थुः꣢ । अ꣣य꣢म् । वः꣣ । अस्तु । लोकः꣢ । इ꣣माः꣢ । आ꣡पः꣢꣯ । सु꣣प्रपाणाः꣢ । सु꣣ । प्रपाणाः꣢ । इ꣣ह꣢ । स्त꣣ ॥६२६॥
स्वर रहित मन्त्र
सहर्षभाः सहवत्सा उदेत विश्वा रूपाणि बिभ्रतीर्द्व्यूध्नीः । उरुः पृथुरयं वो अस्तु लोक इमा आपः सुप्रपाणा इह स्त ॥६२६
स्वर रहित पद पाठ
सहर्षभाः । सह । ऋषभाः । सहवत्साः । सह । वत्साः । उदेत । उत् । एत । विश्वा । रूपाणि । बिभ्रतीः । द्व्यूध्नीः । द्वि । ऊध्नीः । उरुः । पृथुः । अयम् । वः । अस्तु । लोकः । इमाः । आपः । सुप्रपाणाः । सु । प्रपाणाः । इह । स्त ॥६२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 626
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र का गौ देवता है। गौओं के साम्य से इन्द्रियों को कहा जा रहा है।
पदार्थ
हे इन्द्रियरूप गौओ ! (सहर्षभाः) जीवात्मारूप वृषभ से युक्त, (सहवत्साः) मन रूप बछड़े से युक्त, (विश्वा रूपाणि) आँख, कान, त्वचा आदि विभिन्न नामों को (बिभ्रतीः) धारण करती हुई, (द्व्यूध्नीः) ज्ञान-कर्म रूप दो ऊधसों से युक्त होती हुई तुम (उदेत) उद्यम करो। (उरुः) बहुत लम्बा, (पृथुः) बहुत चौड़ा (अयम्) यह (लोकः) लोक (वः) तुम्हारे उपयोग के लिए (अस्तु) हो। (इमाः) ये (सुप्रपाणाः) सुख से आस्वादन किये जाने योग्य (आपः) जलों के समान प्राप्तव्य रूप, रस, गन्ध आदि विषय हैं, (इह) इनमें (स्त) रहो, अर्थात् इनका यथायोग्य आस्वादन करो ॥१२॥
भावार्थ
गायों के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। जैसे गायें वृषभ और बछड़ों के साथ विचरती हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ आत्मा और मन के साथ। जैसे गायें सफेद, काले आदि रूपों को धारण करती हैं, वैसे इन्द्रियाँ आँख, कान आदि रूपों को। जैसे गायें प्रातः-सायं दोनों कालों में भरे हुए ऊधस् वाली होने से ‘द्व्यूध्नी’ कहलाती हैं, वैसे इन्द्रियाँ ज्ञान और कर्म रूप ऊधस् वाली होने से ‘द्व्यूध्नी’ होती हैं। जैसे गायें विस्तीर्ण चरागाहों में विचरती हैं, वैसे इन्द्रियाँ विस्तीर्ण विषयों में। जैसे गायें सुपेय जलों को पीती हैं, वैसे इन्द्रियाँ विषयरसों को। इन इन्द्रिय रूप गायों के श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ कर्म रूप दूध का सेवन कर निरन्तर शारीरिक और आत्मिक उन्नति सबको प्राप्त करनी चाहिए ॥१२॥ इस दशति में अग्नि की ज्वाला रूप जिह्वा, सब ऋतुओं की रमणीयता, परम पुरुष परमेश्वर की महिमा, माता-पिता के कर्तव्य, ब्रह्मवर्चस एवं बल की प्राप्ति आदि विषयों का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(सहर्षभाः) हे स्तुतिवाणियो! तुम ऋषभरूप आत्मा के साथ “इन्द्रस्य रूपमृषभो बलाय” [मै॰ ३.११.९] (सहवत्साः) मनरूप बच्चे के सहित “मन एव वत्सः” [श॰ ११.३.१.१] (द्व्यूध्नीः) ऐहिक सुख पारलौकिक मोक्षानन्द फल देने वाली (विश्वा रूपाणि बिभ्रतीः) सारी कमनीय वस्तुओं को धारण करती हुई विराजमान रह (अयं यः) यह जो (उरुः पृथुः-लोकः-अस्तु) महान्—विस्तृत—विशाल मोक्षधाम है (इह) इस मोक्षधाम में (इमाः सुप्रपाणाः-आपः-स्त) यह प्रसिद्ध भरपूर पान करने के योग्य व्यापक प्रजापति परमात्मा है “आपो वै प्रजापतिः” [श॰ ८.२.३.१३] ‘स्त-सन्ति’ “इति छान्दसं रूपं वचनव्यत्ययो विसर्गलोपश्च च”।
भावार्थ
हे स्तुतिवाणियो! तुम आत्मा के साथ तथा मन के भी साथ दोनों लोकों में फल देने वाली, संसार में भी सच्चा सुख और मोक्ष में भी शान्त आनन्द प्राप्त कराने वाली तुम हो तुम बढ़ती रहो। अन्ततः तुम्हारे लिये महान् विस्तृत मोक्षधाम है, जहाँ भली-भाँति पान करने योग्य प्रजापति परमात्मा है जिसकी प्यास तुम्हें लगी हुई है, जिसे पान करना तुम्हारा अन्तिम लक्ष्य है॥१२॥
विशेष
ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपास्य परमात्मदेव वाला उपासक)॥ देवता—गौः ‘गावः’ (स्तुतियाँ)॥<br>
विषय
सात्त्विक गोदुग्ध का सेवन
पदार्थ
गत मन्त्र की प्रार्थना को कार्यान्वित करने के लिए 'वामदेव गौतम' प्रस्तुत मन्त्र में उत्तम गौवों के अभ्युदय का उल्लेख करता है जिससे उसके दुग्धादि सेवन से सात्त्विक ज्ञान व सात्त्विक भक्ति का विकास हो। यह प्रार्थना करता है कि हे गौवो! (सहर्षभाः) = उत्तम ऋषभों-बैलोंसहित तथा (सहवत्साः) = उत्तम बछड़ों के साथ (उदेत) = उदय को प्राप्त होओ। गौवों की उत्तम नस्ल के लिए उत्तम बैलों की आवश्यकता अवश्य ही है। गौवों में दुग्ध प्रवर्त्तन ठीक होता रहे उसके लिए बछड़ों का होना आवश्यक है। हे गौवो! आप (विश्वारूपाणि) = सब मनुष्यों को–प्राणियों को (बिभ्रती) = धारण करती हुई (ट्र्यूनी:) = दुगने ऊधस्वाली उदित होओ। गौओं का दूध पूर्ण भोजन के रूप में बहुत उत्तम प्रकार से सब मनुष्यों का धारण करता है और यदि हम गौवों का उचित ध्यान करें तो वे दुगना दूध देनेवाली हो जाती हैं अर्थात् उनका दूध पर्याप्त मात्रा में बढ़ाया जा सकता है। इनका दूध बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि कहते हैं कि हे गौवो! (वः) = तुम्हारा इन्हें सदा घर में ही न बाँधे रक्खा जाए । मन्त्र में (अयम्) = यह (उरुः) = विशाल (पृथुः) = विस्तृत (लोकः) = लोक (अस्तु) = हो । खुले आकाश में, शुद्ध भ्रमण करनेवाली गौवों का दूध अधिक प्राणशक्तिवाला होता है। इन गौवों को पीने के लिए पानी भी अत्यन्त शुद्ध मिलना चाहिए। (सुप्रपाणा) = सुख से पीने योग्य (इमाः आपः) = ये उत्तम जल (इह स्त) = यहाँ हो ।
भावार्थ
मानव उत्कर्ष के लिए गौवों का उत्कर्ष आवश्यक है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे गौओ ! आप ( सहर्षभाः ) = सांडों के साथ और ( सहवत्साः ) = बछड़ों के साथ ( द्व्यूघ्नी: ) = दोहरे स्तनमण्डल को वहन करती हुई ( विश्वा ) = नाना प्रकार के ( रूपाणि ) = रूप ( विभ्रती: ) = धारण करती हुई ( उत् ऐत ) = उन्नति को प्राप्त होओ । ( अयं लोकः ) = यह लोक ( वः ) = तुम्हारे लिये ( उरुः पृथुः ) = खूब बड़ा विशाल ( अस्तु ) = रहे । ( इमाः) = ये ( आपः ) = जल ( सु-प्र-पावा: ) = उत्तम पान करने वाले स्थानों से सज्जित रहे । ( इह स्त ) = तुम यहां रहो । रश्मियों के पक्ष में ऋषभ, सूर्य, वत्स, ग्रहादि और रस धारण करने हारे दो ऊधस् मेघ और पर्वत हैं । इन्द्रियों के पक्ष मेंऋषभ आत्मा, परमात्मा । वत्स - मन, दो ऊधस् ज्ञान और कर्म, आपःप्रज्ञान और लोक ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:।
देवता - गौ ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गौर्देवता। गवां साम्येनेन्द्रियाण्युच्यन्ते।
पदार्थः
हे इन्द्रियरूपा१ गावः ! (सहर्षभाः) जीवात्मरूपेण वृषभेण सहिताः, (सहवत्साः) मनोरूपेण वत्सेन च सहिताः (विश्वा रूपाणि) सर्वाणि चक्षुःश्रोत्रत्वगाद्यानि नामानि (बिभ्रतीः) धारयन्त्यः (द्व्यूध्नीः) ज्ञानकर्मरूपेण आपीनद्वयेन युक्ताः यूयम् (उदेत) उद्यमं कुरुत। (उरुः) सुदीर्घः (पृथुः) सुविस्तीर्णः (अयम्) एषः (लोकः) भुवनम् (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु। (इमाः) एताः (सुप्रपाणाः) सुखेन पातुम् आस्वादयितुं योग्याः (आपः) जलानीव आप्तव्याः रूपरसगन्धाद्याः विषयाः सन्ति, (इह स्त) एषु भवत, इमान् यथायोग्यम् आस्वादयद्ध्वमित्यर्थः ॥१२॥
भावार्थः
धेनुपक्षेऽपि योजनीयम्। यथा गावो वृषभेण वत्सेन च सह विचरन्ति, तथा इन्द्रियाण्यात्मना मनसा च सह। यथा गावः श्वेतकृष्णादिरूपाणि बिभ्रति तथेन्द्रियाणि चक्षुःश्रोत्रादिरूपाणि। यथा गावः सायंप्रातरुभयोः कालयोः पूर्णोधस्त्वेन द्व्यूध्नीः, तथेन्द्रियाणि ज्ञानेन कर्मणा च। यथा गावो विस्तीर्णेषु गोचरेषु विचरन्ति तथेन्द्रियाणि विस्तीर्णेषु विषयेषु। यथा गावः सुपेयानि जलानि पिबन्ति, तथेन्द्रियाणि विषयरसान्। एषामिन्द्रियरूपाणां गवां सज्ज्ञान-सत्कर्मरूपं पयः संसेव्य सततं दैहिक्याध्यात्मिकी च पुष्टिः सर्वैः प्राप्तव्या ॥१२॥ अत्राग्निजिह्वा-सर्वर्तुरमणीयत्व-परमपुरुषमहिम-मातापितृकर्तव्य- वर्चःसहप्राप्त्यादिवर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये चतुर्थः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. (गाः) इन्द्रियाणि—इति ऋ० १।१०।८ भाष्ये द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye organs of senses, always remain with us, assuming diverse forms, possessing die teats of knowledge and action, devoted to gracious God and dear mind. This body is Your vast extended space. Knowledge and action alone can allay Your thirst Remain here.
Translator Comment
Here means in the body. This verse can be interpreted for cows as well, as has been done by Sayana and other Commentators.^Teats means traits.
Meaning
Arise, O cows, radiant rays and green earth, natures creative and productive powers of all forms of double potential along with abundant virility and fertility for the generation of future progeny. And may this world be exuberant, vast and high for you, and may these waters here flow sweet and energizing for you to drink.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सहर्षभाः) હે સ્તુતિ વાણીઓ ! તમે ઋષભ = સાંઢરૂપ આત્માની સાથે (सहवत्साः) મનરૂપ બાળકો-વાછરડાઓ સહિત (द्वयूध्नीः) ઐહિક સુખ પારલૌકિક મોક્ષાનંદ ફળ આપનારી (विश्वा रूपाणि बिभ्रतीः) સમસ્ત સુંદર-કમનીય વસ્તુઓને ધારણ કરતી બિરાજમાન રહે (अयं यः) એ જે (उरुः पृथुः लोकः अस्तु) મહાન, વિસ્તૃત વિશાળ મોક્ષધામ છે (इह) એ મોક્ષધામમાં (इमाः सुप्रपाणाः आपः स्तः) પ્રસિદ્ધ ભરપૂર પાન કરવા યોગ્ય વ્યાપક પ્રજાપતિ પરમાત્મા છે. (૧૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે સ્તુતિવાણીઓ ! તમે આત્માની સાથે મનની સાથે પણ બન્ને લોકોમાં ફળ આપનારી, સંસારમાં પણ સાચું સુખ અને મોક્ષમાં પણ શાન્ત આનંદ પ્રાપ્ત કરાવનારી તમે છો, તમે વધતી રહો. છેવટે તમારે માટે મહાન વિસ્તૃત મોક્ષધામ છે, જ્યાં સારી રીતે પાન કરવા યોગ્ય પ્રજાપતિ પરમાત્મા છે, જેની તરસ તમને લાગેલી છે, જેને પાન કરાવવાનું તમારું અન્તિમ લક્ષ્ય છે. (૧૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
عورتون کیلئے سُکھ شانتی کا مرکز خانہ داری
Lafzi Maana
عورتیں اپنے پیارے خاوندوں اور بچوں کے ساتھ خانہ داری کی زندگی کو خوش حال اور اِیشور کے آنند سے بھی بھرپور رکھیں، اعلےٰ اوصاف والی اور چھاتیوں میں بچوں کے لئے امرت دُودھ رکھتی ہوئیں لمبے چوڑے وسیع گھروں میں اَنّ، جل اور دُودھ وغیرہ کی افراط کے ساتھ رہتی ہوئیں اِسے سؤرگ دھام یا جنت بنائے رکھیں۔
Tashree
نوٹ: اِس منتر کی تشریحات کئی ایک عالم مترجموں نے گئوؤں اور اِندریون کے لئے بھی کیں ہیں۔ اہلِ خانہ ہے عورت اوّل جس نے گھر چمکانا ہے، اپنے اعلےٰ اعمالوں سے جنّت نشاں بنانا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
गाईच्या बाजूने ही अर्थयोजना केली पाहिजे. जशा गाई, बैल व वासरांबरोबर विचरतात. तशीच इंद्रिये, आत्मा व मनाबरोबर विचरतात. जशा गाई पांढऱ्या, काळ्या इत्यादी रूपांना धारण करतात, तशीच इंद्रिये कान, नेत्र इत्यादी रूपांना धारण करतात. जसे गाईचे प्रात: सायंकाळी दुधाने भरलेले स्तन ‘दव्यूनी’ म्हणविले जातात. तशीच इंद्रिये ज्ञान व कर्मरूप ऊधसयुक्त असल्यामुळे ‘दव्यूनी’ असतात जशा गाई विस्तीर्ण कुरणात हिंडतात, तशी इंद्रिय विस्तीर्ण विषयात वावरतात. जशा गाई उत्तम जल पितात तशी इंद्रिये विषयरस पितात. या इंद्रियरूप गाईंचे श्रेष्ठ ज्ञान व श्रेष्ठ कर्मरूपी दुधाचे सेवन करून निरंतर शारीरिक व आत्मिक उन्नती सर्वांनी प्राप्त करावी ॥१२॥
टिप्पणी
या दशतिमध्ये अग्नीची ज्वालारूप जिह्वा, सर्व ऋतूमध्ये रमणीयता, परमपुरुष परमेश्वराची महिमा, माता-पिता यांचे कर्तव्य, ब्रह्मवर्चस्व व बलाची प्राप्ती इत्यादी विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे
विषय
गौ देवता। गायीच्या साभ्याद्वारे इंद्रियविषयी वर्णन
शब्दार्थ
हे इन्द्रियरूप गायी, तुम्ही (सहर्षभाः) जीवात्मारूप वृषभानेयुक्त असून (सहवत्सा) मनरूप वासरासह विद्यमान आहात. (विश्वा रूपाणि) नेत्र, कर्ण, नासिका आदी विभिन्न नाम धारण (विभ्रतीः) करीत तुमचे (द्वयूनीः) ज्ञान-कर्म रूप दोन स्तन आहेत (उरूः) अतीव लांब, (पृथुः) अति रूंद (अयम्) हा (लोकः) लोक (शरीररूप गोठे) (वः) तुमच्या उपयोगासाठी (अस्तु) असावे. (इमाः) या (सुप्रपाणाः) सुखाने आस्वादन करण्यास योग्य (आपः) पाण्याप्रमाणे प्राप्तव्य असे जे रूप, सर, गंध आदी तुमच विषय आहेत. (हे इंद्रियांनो, तुम्ही त्या विषयात) (स्त) रहा म्हणजे या विषयाचा यथोचित आस्वाद घ्या.।।१२।।
भावार्थ
या मंत्राची गौ पक्षीदेखील अर्थयोजना केली पाहिजे. जशा गायी बैल आणि राक्षसांसोबत विचरण करतात, तशाप्रकारे इंद्रिये आत्मा आणि मनासह संचारण करतात. जशा गायी श्वेत, कृष्ण अशी रूपें धारण करतात, तद्वत इंद्रिये नेत्रल कर्ण आदी रूपे धारण करतात. जशा गायी प्रातःकाळी व सायंकाळी, दोन्ही काळी भरलेल्यं स्तनवती असतात, तद्वत इंद्रिये ज्ञान आणि कर्मरूप ऊधस (स्तन) वान असतात. (द्रयूनी) जशा गायी विस्तीर्ण कुरणात चरायला जातात, तशा इंद्रिये आपापल्या विस्तीर्ण विषयात रमतात. जसे गायी सुपेय जल पितात, तसे इंद्रिये आपापले विषयरस पान करतात. या इंद्रियरूप गायींपासून श्रेष्ठ ज्ञान व श्रेष्ठ कर्मरूप दूध घेत माणसाने नेहमी शारीरिक आणि आत्मिक उन्नती साधली पाहिजे.।।१२।। या दशतीमधे अग्नीच्या ज्वालारूप जिह्वा, सर्व ऋतूंचे रमणीयत्न, परम पुरुष परमेश्वराचा महिमा, आई-वडिलांची कर्तव्ये, ब्रह्म वर्चस आणि बळ-प्राप्ती आदी विषयांचे वर्णन असून या दशतीच्या विषयांशी मागील दशतीच्या विषयांशी संगती आहे, असे जाणावे.।।१२।। षष्ठ प्रपाठकातील तृतीय अर्धाची चतुर्थ दशती समाप्त षष्ठ अध्यायाचा चतुर्थ खण्ड समाप्त
तमिल (1)
Word Meaning
விருஷபங்களோடு கன்றுகளோடு
இரண்டக்னியாய், ஸ்தன மண்டலங்களுடன் எல்லா வடிவங்களையும் தரிக்கும் நீங்கள் உன்னத ஸ்தானத்தை அடையுங்கள்; வெகு விஸ்தீரணமான இந்த உலகம் உங்களுக்காகட்டும்; இந்த சலங்கள் இங்கு சுகமுடனான சுவாசமுள்ளவையாகட்டும்
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