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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 648
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - 0
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    पू꣡र्व꣢स्य꣣ य꣡त्ते꣢ अद्रिवो꣣ꣳऽशु꣢꣯र्मदा꣢꣯य । सु꣣म्न꣡ आ धे꣢꣯हि नो वसो पू꣣र्तिः꣡ श꣢विष्ठ शस्यते । व꣣शी꣢꣫ हि श꣣क्रो꣢ नू꣣नं꣡ तन्नव्य꣢꣯ꣳ सं꣣न्य꣡से꣢ ॥६४८

    स्वर सहित पद पाठ

    पू꣡र्व꣢꣯स्य । यत् । ते꣣ । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अँशुः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । सु꣣म्ने꣢ । आ । धे꣣हि । नः । वसो । पूर्तिः꣢ । श꣣विष्ठ । शस्यते । व꣣शी꣢ । हि । श꣣क्रः꣢ । नू꣣न꣢म् । तत् । न꣡व्य꣢꣯म् । सं꣣न्य꣡से꣢ ॥६४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वस्य यत्ते अद्रिवोꣳऽशुर्मदाय । सुम्न आ धेहि नो वसो पूर्तिः शविष्ठ शस्यते । वशी हि शक्रो नूनं तन्नव्यꣳ संन्यसे ॥६४८


    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वस्य । यत् । ते । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अँशुः । मदाय । सुम्ने । आ । धेहि । नः । वसो । पूर्तिः । शविष्ठ । शस्यते । वशी । हि । शक्रः । नूनम् । तत् । नव्यम् । संन्यसे ॥६४८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 648
    (कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 8
    (राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संन्यासाश्रम में प्रवेश का अभिलाषी कह रहा है।

    पदार्थ

    हे (अद्रिवः) मेघों के स्वामिन् अथवा धर्ममेघ समाधि में सहायक परमेश्वर ! (यत्) क्योंकि (पूर्वस्य) श्रेष्ठ (ते) आपकी (अंशुः) तेज की किरण (मदाय) आनन्द के लिए होती है, इस कारण, हे (वसो) निवासक ! (नः) हमें (सुम्ने) मोक्ष के आनन्द में (आ धेहि) स्थित करो। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ परमात्मन् ! (पूर्तिः) आपसे उत्पन्न की हुई पूर्णता (शस्यते) सबसे प्रशंसा की जाती है। (शक्रः) सर्वशक्तिमान् आप (नूनम्) आज (वशी हि) मेरे वशकर्ता हो गये हो, (तत्) इसलिए, आपके वशवर्ती हुआ मैं (नव्यम्) नवीन प्रतीत होनेवाली पुत्रेषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा रूप लौकिक चमक-दमक का (संन्यसे) परित्याग करता हूँ, परित्याग करके संन्यासाश्रम में प्रवेश करता हूँ और उस आश्रम में रहता हुआ (नव्यम्) स्तुति करने योग्य इन्द्र परमेश्वर को (संन्यसे) भली-भाँति हृदय में धारण करता हूँ, श्लेष से यह दूसरा अर्थ भी जानना चाहिए ॥८॥

    भावार्थ

    भोग-विलास देखने में ही रमणीय प्रतीत होते हैं। वे लोग धन्य हैं, जो उनका परित्याग करके, संन्यासाश्रम में प्रविष्ट होकर, निष्काम लोकसेवा के व्रत को स्वीकार कर ब्रह्म में लीन रहते हैं ॥८॥

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    पदार्थ

    (अद्रिवः) हे ओजस्वी परमात्मन्! (ते पूर्वस्य) तुझ सनातन का (यत्) जो (अंशुः) ध्यान तरंग —स्वरूप झाँकी (मदाय) हर्ष प्राप्ति के लिये है (नः सुम्ने-आधेहि) हमारे सुख के निमित्त “सुम्नं सुखनाम” [निघं॰ ३.६] आधान कर—भली-भाँति समाविष्ट कर (वसो शविष्ठ) हे वसाने वाले अत्यन्त बलवन्! तू (पूर्त्तिः शस्यते) कामनापूरण करने वाला प्रशंसित किया जाता है (नूनम्) निश्चय ही तू (वशी शक्रः) विश्व को वशकर्ता समर्थ है (तत्-नव्यं संन्यसे) तिससे तुझ स्तुति योग्य को हृदय में संस्थापित करता हूँ।

    भावार्थ

    ओजस्वी परमात्मा सनातन अनादि है, ध्यानोपासन द्वारा उसकी दर्शन झाँकी उपासक के हर्ष का निमित्त है, उसके सुखार्थ परमात्मा उसके अन्दर आधान करता है, वसाने वाले महाबलवान् कामनापूरक की स्तुति करनी चाहिए। उस सब के वश करने वाले स्तुत्यदेव को हृदय में संस्थापित करना चाहिए॥८॥

    विशेष

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    विषय

    प्रजापति का कर्त्तव्य

    पदार्थ

    १. शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला, बलयुक्त कर्मों को करनेवाला, ऐश्वर्यशाली राष्ट्र का शासक ‘इन्द्र’ कहलाता है। इसका प्रथम कर्त्तव्य इन शब्दों में सूचित हुआ है कि (इन्द्रम्) = राजा को (धनस्य) = धन के (सातये) = उचित संविभाग के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं। जिस राष्ट्र में धन कुछ व्यक्तियों में केन्द्रित हो जाता है, वह राष्ट्र उसी प्रकार रोगी हो जाता है जिस प्रकार वह शरीर जिसमें रुधिर किसी एक अङ्ग में इकट्ठा हो जाए। राजा धन को एक स्थान पर केन्द्रित न होने दे। 

    २. (जेतारम्) = उस राजा को पुकारते हैं जो विजयशील है, (अपराजितम्) = कभी पराजित नहीं होता। राजा स्वयं तो व्यसनी होना ही नहीं चाहिए, वह राष्ट्र के बाह्य शत्रुओं का भी अभिभव कर सके। प्रजा विजेता का ही साथ देती है।

    ३. (सः) = वह राजा (न:) = हमें (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से (अति) = परे (सु-अर्षत्) = उत्तमता से प्राप्त कराए। राष्ट्र में धर्म के नाम पर परस्पर घृणा प्रजा के लिए विनाशकारी है, निर्बल करनेवाली है । Secular state का अभिप्राय यही है कि वह प्रभु की उपासना के प्रकारविशेष पर बल देनेवाली न हो। राष्ट्र को

    ४. (पूर्वस्य) = [पूर्व पूरणे] राष्ट्र में शिक्षा भरनेवाले हे (अद्रिवः) = वज्रवाले राजन्! (यत्) = जो (ते) = तेरी (अंशुः) = ज्ञानकिरण है- ज्ञान का सर्वत्र प्रसारण है, यह (मदाय) = राष्ट्र के वास्तविक हर्ष का कारण बनती है। राष्ट्र का कोई व्यक्ति अशिक्षित न रह जाए इस बात के लिए राजा को व्यवस्था करनी है। जो माता-पिता शिक्षा के योग्य बालकों को शिक्षणालयों में न भेजें वे दण्डनीय हों। ‘अद्रिवः' शब्द राजा के हाथ में वज्र देकर यही सूचित कर रहा है।

    ५. हे (वसो) = उत्तम ढङ्ग से प्रजा को बसानेवाले राजन्! (नः) = हम सबको सुम्ने सुम्न में (आधेहि) = सर्वथा स्थापित कीजिए। सुम्न शब्द का प्रथम अर्थ है- (सु) = उत्तम (म्न) = अभ्यास, उत्तम ज्ञान की प्राप्ति। इसका दूसरा अर्थ Hymn = स्तोत्र व प्रभुस्तवन है और तीसरा यह आनन्द का वाचक है। राजा को चाहिए उसकी प्रजा ज्ञानयुक्त होकर प्रभु की स्तुति करनेवाली बने और इस प्रकार आनन्द का लाभ करे।

    ६. (शविष्ठ) = हे गतिशील व शक्तिशाली राजन्! (पूर्तिः) = प्रजा का पालन व पूरण ही (शस्यते) = तेरा प्रशंसित कर्म है। तूने उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था के द्वारा प्रजा को पूर्णता की ओर ले-चलना है। उनका शरीर स्वस्थ हो, मन निद्वेष हो, बुद्धि प्रकाशमय हो।

    ७. (वशी) = जो स्वयं अपने पर काबू कर प्रजाओं को भी वश में कर सकता है (हि) = निश्चय से वही (शक्रः) = समर्थ होता है- शासन-व्यवस्था चला पाता है, एवं, राजा को स्वयं व्यसनों से अवश्य ऊपर उठना चाहिए।

    यदि राजा इस प्रकार राष्ट्र का शासन करता हुआ अपने इन कर्त्तव्यों का पालन करता है (तत्) = तो वह (नूनम्) = [न ऊनम्] पूर्ण तथा नव्यं [नु स्तुतौ] प्रशंसनीय (संन्यसे) = प्रभु की पूजा करता है। राजा की सच्ची प्रभु-पूजा यही है कि वह उपर्युक्त राज-कर्त्तव्यों में लगा रहे । [O king this is your perfect and praiseworthy worship.]

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( अद्रिव: ) = ज्ञानस्वरूप, अखण्ड ! सबके प्रलय करने हारे ! ( पूर्वस्य ) = सबके पूर्व विद्यमान मूल कारण तेरा ( यद् ) = जो स्वरूप  ( अंशुः ) = सर्वव्यापक ( मदाय ) = आनन्द देने के लिये है. हे ( वसो ) = सबको वसाने हारे ! वह ( नः सुम्ने ) = हमारे सुख के लिये हमें ( आ धेहि ) = प्रदान कर ।  हे ( शविष्ठ ) = सर्व शक्तिमान् ! तेरा ( पूर्ति: ) = सबका पालन पोषण करने वाला स्वरूप ही ( शस्यते ) = प्रशंसा किया जाता है। ( नूनं ) = निश्चय से आप ( शक्रः ) = शक्तिमान् होकर ( वशी ) = सब पर वश करने हारे हो। ( तत् ) = इसीलिये उस ( नव्यं ) = स्तुतियोग्य आपको ही ( सं न्यसे ) = मैं अपने हृदय में आराध्यदेव के समान स्थापन करता हूं । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - प्रजापतिः।

    देवता - इन्द्रस्त्रैलोक्यात्मा ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ संन्यासाश्रमं प्रविविक्षुराह।

    पदार्थः

    हे (अद्रिवः) मेघानां स्वामिन् धर्ममेघसमाधौ सहायक वा परमेश्वर ! (यत्) यस्मात् (पूर्वस्य) श्रेष्ठस्य (ते) तव (अंशुः) तेजोरश्मिः (मदाय) आनन्दाय भवति, तस्मात्, हे (वसो) निवासक ! (नः) अस्मान् (सुम्ने) सुखे, मोक्षानन्दे (आ धेहि) आस्थापय। हे (शविष्ठ) बलिष्ठ परमात्मन् ! (पूर्तिः) त्वज्जनिता परिपूर्णता (शस्यते) सर्वैः प्रशस्यते। (शक्रः) सर्वशक्तिमान् त्वम् (नूनम्) अद्य (वशी हि) मम वशकर्ता किल सञ्जातः, (तत्) तस्मात् त्वद्वशवर्ती अहम् (नव्यम्) नूतनत्वेन आभासमानं पुत्रैषणावित्तैषणालोकैषणारूपं लौकिकचाकचक्यम् (संन्यसे१) परित्यजामि, परित्यज्य संन्यासाश्रमं प्रविशामीत्यर्थः। तत्र च (नव्यम्) स्तुत्यम् इन्द्रं परमेश्वरम् (संन्यसे) सम्यग् हृदि धारयामि इति द्वितीयोऽपि श्लेषमूलोऽर्थोऽध्यवसेयः। (संन्यसे) इत्यत्र हि योगात् ‘छन्दस्यनेकमपि साकाङ्क्षम्’ अ० ८।१।३५ इति निघातप्रतिषेधः। (अद्रिवः) अद्रिः मेघनाम। निघं० १।१० ॥८॥

    भावार्थः

    आपातरमणीयाः खलु भोगाः। धन्यास्ते ये तान् परिहृत्य संन्यासाश्रमं प्रविश्य निष्कामलोकसेवाव्रतमङ्गीकृत्य ब्रह्मणि लीना भवन्ति ॥८॥

    टिप्पणीः

    १. नव्यं नूतनं वलीपलितादिलक्षणेन पुराणत्वेन वर्जितं तमिन्द्रं त्वाम् नूनम् अवश्यम् संन्यसे अहं सम्यक् नितरां प्रक्षिपामि, अस्मिन्, कर्मणि हविषो भोक्तृत्वेन स्थापयामीत्यर्थः। यद्वा, हे इन्द्र, नव्यमिति क्रियाविशेषणम्, नूतनम् अन्यैरक्षतपूर्वं यथा भवति तथा नूनम् इदानीं संन्यसे अस्माभिः सेव्यसे, षण सम्भक्तौ, यकि रूपम्—इति सायणः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Indivisible God, O Settler of all, grant us for our felicity, Thy immemorial, All-pervading, Gladdening nature. O Mighty Lord, the accomplishment of an action alone is praiseworthy. O Omnipotent God, Thou rulest over all. I praise Thee worthy of adoration !

    Translator Comment

    Grant us means make us realise and appreciate.

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    Meaning

    Eternal lord of thunder and shower of clouds, a glimpse of your divine light, just a flash, is for the souls bliss. O blissful shelter of the world, pray establish us in the peace and ecstasy of the divine presence. Omnipotent lord of peace and bliss, that fulfilment is supreme. The Lord omnipotent is the ruler and controller of the universe. Truly that fulfilment is most adorable, the ultimate prize to win.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अद्रिवः) હે ઓજસ્વી પરમાત્મન્ ! (ते पूर्वस्य) તારા સનાતનના (यत्) જે (अंशुः) ધ્યાન તરંગસ્વરૂપ ઝાંખી (मदाय) હર્ષ પ્રાપ્તિને માટે છે (नः सुम्ने आधेहि) અમારા સુખને માટે આધાન કર-સારી રીતે સમાવેશ કર (वसो शविष्ठ) હે વસાવનાર અત્યંત બલવન્ ! તું (पूर्त्तिः शस्यते) કામનાપૂરણ કરનારને પ્રશંસિત કરવામાં આવે છે. (नूनम्) નિશ્ચય જ તું (वशी शक्रः) વિશ્વને વશ કરનાર સમર્થ છે. (तत् नव्यं संन्यसे) તેથી તને સ્તુતિ યોગ્યને હૃદયમાં સારી રીતે સ્થાપિત કરું છું. (૮)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ: ઓજસ્વી પરમાત્મા સનાતન અનાદિ છે, ધ્યાનોપાસના દ્વારા તેના દર્શનની ઝાંખી ઉપાસકના હર્ષનું કારણ છે. તેના સુખ માટે પરમાત્મા તેની અંદર આધાન કરે છે, વસાવનાર મહાબળવાન કામનાપૂરકની સ્તુતિ કરવી જોઈએ. તે સર્વને વશમાં રાખનાર સ્તુતિ કરવા યોગ્ય દેવને હૃદયમાં સારી રીતે સ્થાપિત કરવો જોઈએ. (૮)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اپنے مُبارک وَصل کو بخشیئے

    Lafzi Maana

    دھرم کرم کی بارش برسا کر راحت دینے والے کریم! اپ کی توحید سے جو آنند ملتا ہے، وہ سُرورِ پاکیزگی سدا بنا رہے۔ دُنیا کی سبھی طاقتوں کے سرچشمہ پرمیشور! ہمیش یوگ (اپنے وصل) کے دھن سے مالا مال کیجئے، لہذا آپ کے نغمئہ توحید کو گاتا ہوا اپنے کو آپ کے حوالے کرتا ہوں۔

    Tashree

    اے وسو! سُکھ دو ہمیں جیوتی کی تیری چاہ ہے، یوگ کا دھن تُجھ سے پائیں جو ہماری راہ ہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    भोग विलास बाहेरूनच रमणीय दिसतो. जे त्यांचा परित्याग करून संन्यासाश्रमात प्रविष्ट होऊन निष्काम लोकसेवेचे व्रत स्वीकारून ब्रह्मात लीन होतात, ते लोक धन्य होत ॥८॥

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    विषय

    सन्यास आश्रमात प्रवेश करू इच्छिणारा मनुष्य म्हणत आहे-

    शब्दार्थ

    हे (अद्रिवः) मेघमंडळाचे स्वामी अथवा धर्ममेघ-समाधीत सहाय्यक असलेले परमेश्वर, (यत्) ज्याअर्थी (पूर्वस्य) श्रेष्ठ (ते) तुमच्या (अंशीः) तेजाची एक किरणदेखील (मदाय) (भक्तासाठी वा योगीसाठी) आनंददायक असते, त्यामुळे हे (वसो) निवासक प्रभो (नः) मला/आम्हांला (सुम्ने) मोक्षाच्या सुखात (आ घेहि) स्थित करा. हे (शविष्ठ) बलिष्ठ परमेश्वर, (पूर्तिः) तुमच्याकडून मिळालेले पूर्णत्व (शस्यते) सर्वांद्वारे प्रशंसित होते (तुम्ही दिलेले सर्व श्रेष्ठ व पूर्ण म्हणूनच प्रशंसनीय असते) (शक्रः) सर्वशनितमान असे तुम्ही (नूनम्) निश्चयच आज (वशीहि) माझे वशकर्ता झाला आहात (मला तुम्ही पूर्ण आश्रय दिला आहे) (तत्) यामुळे तुमचा वशवर्ती मी (नव्यम्) मनुष्याला सदा नवीन वाटणाऱ्या पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा वा सर्व लौकिक कामनांचा त्याग करून (संन्दसे) सर्वस्व त्याग करीत आहे. आणि आता सन्यास-आश्रमात प्रविष्ट होत आहे. त्या आश्रमात असताना (नव्यम्) स्तवनीय इन्द्र परमेश्वराला (सन्यसे) हृदयात धारण करीत आहे (मी त्यास कधीही विसरणार नाही) श्लेषाद्वारे ‘नव्यम्’ व ‘सन्यसे’ या दोन शब्दांचा हा दुसरा अर्थही घेता येतो.।।८।।

    भावार्थ

    भोग-विलास वरकरणी रमणीय वाटतो, पण तसा तो नसतो. जे लोक त्या सुखोपभोगाचा त्याग करून, संन्यासाश्रमात प्रविष्ट होऊन निष्काम लोकसेवा करतात, त्यास व्रत मानतात, ते धन्य आहेत. ते एकाप्रकारे ब्रह्मातच लीन असतात.।।८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    அகண்டனே! மலைபோலுள்ளவனே ;சர்வமான சந்தோஷத்தின் பொருட்டு (எது வேண்டுமோ அந்த) ஐசுவரியத்தை அளிக்கவும். சர்வ சக்திமானே!பூர்ணத்தி(ற்காக) துதிக்கப்படுகிறாய்; நீ சக்தியுள்ளவன், வசியஞ் செய்பவனாகும்; இதனால் துதிக்கருகனான உன்னை பொருள்களில் எங்கள் மனங்களில் ஒருமையுடன் மொழிகிறோம் ஸ்தாபனஞ் செய்கிறோம்.

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