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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 666
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
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आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म् । एदं꣢꣫ ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥६६६॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । याहि꣣ । सुषुम꣢ । हि । ते꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । सो꣡मम्꣢꣯ । पिब । इ꣡म꣢꣯म् । आ । इ꣣द꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । स꣣दः । म꣡म꣢꣯ ॥६६६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम् । एदं बर्हिः सदो मम ॥६६६॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । याहि । सुषुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् । आ । इदम् । बर्हिः । सदः । मम ॥६६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 666
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १९१ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। अब जीवात्मा के विषय में व्याख्या दी जा रही है। इन्द्र नाम से अपने अन्तरात्मा को सम्बोधन किया गया है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) अन्तरात्मन् ! तू (आयाहि) आ, (ते) तेरे लिए, हमने (सोमम्) ज्ञानरस को (सुषुम) आँख, कान आदि ज्ञान के साधनों से अभिषुत किया है। तू (इमम्) इस ज्ञानरस को (पिब) पी, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त इस ज्ञान का मनन कर। तू (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन पर (आ सदः) बैठा हुआ है ॥१॥
भावार्थ
मन के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान का मनन और निदिध्यासन द्वारा पूर्ण साक्षात्कार करना चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमात्मन्! तू (आ याहि) आ जा (ते) तेरे लिए (सोमं सुषुम हि) हम उपासनारस को सम्पादन करते हैं (इमं पिब) इसे पान कर—स्वीकार कर (मम-इदं बर्हिः) मेरे इस हृदयाकाश में “बर्हिः-अन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] (आ सदः) आ बैठ।
भावार्थ
परमात्मा के लिए उपासनारस तैयार करना उसे स्वीकार कराने का आग्रह करना, अपने हृदयकाश में समन्तरूप से बिठाना चाहिये॥१॥
विशेष
ऋषिः—इरिम्बिठः (अन्तरिक्ष में—हृदयाकाश में या शब्द में—स्तुति वचन में गति जिसकी है ऐसा विद्वान् “बिठमन्तरिक्षम्” [निरु॰ ६.३०] “बिट् शब्दे” [भ्वा॰] “पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः”)॥<br>देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥
विषय
इरिम्बिठि काण्व
पदार्थ
'बिठ' शब्द अन्तरिक्ष का वाचक है और 'इर्' धातु गतिवाचक है, इस प्रकार 'इरिम्बिठि' शब्द की भावना यह है कि कर्म-संकल्पवाला है हृदयान्तरिक्ष जिसका । जिसके हृदय में सदा उत्तम कर्मों का संकल्प बना हुआ है, वह इरिम्बिठि कण-कण करके उत्तमता का संचय करता हुआ ‘काण्व' कहलाता है । यह इरिम्बिठि प्रभु से प्रार्थना करता है कि (आयाहि) = आइए । (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो ! यह (सोम) = वीर्य (ते) = आपके लिए, अर्थात् आपकी प्राप्ति के लिए ही निश्चय से (सुषुमा) = पैदा किया गया है। इसका उद्देश्य भोगमार्ग की ओर जाना नहीं है । वस्तुतः आपको प्राप्त करने के लिए ही इसका निर्माण हुआ है, अतः यह काण्व प्रभु से ही आराधना करता । है कि –
(इमं सोमम्) = इस सोम का आप (पिब) = पान कीजिए। आपकी कृपा से ही मैं इसे शरीर में सुरक्षित कर पाऊँगा। वस्तुतः इस वीर्य के नाश का मूलकारण वासना है। वासना के नाश के बिना इसकी रक्षा सम्भव नहीं । प्रभु का स्मरण वासना को नष्ट करेगा और वासना-नाश से शरीर में वीर्य की रक्षा होगी ।
जिस समय हृदय में से वासनाओं का उद्बर्हण= उत्पाटन हो जाता है, उस समय यह हृदय 'बर्हिः' कहलाता है । यह पवित्र हृदय ही वस्तुतः इरिम्बिठि को इस बात का अधिकारी बनाता है कि वह प्रभु से प्रार्थना करे कि (इदं मम बर्हिः) = इस मेरे पवित्र हृदयान्तरिक्ष में (आसदः) = आकर विराजिए। मेरा पवित्र हृदय कुशासन है, प्रभु उसपर बैठनेवाले हों ।
भावार्थ
प्रभु-स्मरण से वीर्य - रक्षा होती है । वीर्य - रक्षा से हृदय की पवित्रता, पवित्रता से हृदय में प्रभु का निवास ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) व्याख्या देखो मन्त्र संख्या [१९१] पृ० १०२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - इरिमिठ:। देवता - इन्द्रः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १९१ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्याचार्यविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्म१विषये व्याख्यायते। इन्द्रनाम्ना स्वान्तरात्मानं सम्बोधयति।
पदार्थः
हे (इन्द्र) अन्तरात्मन् ! (त्वम्) आयाहि आगच्छ, वयम् (ते) तुभ्यम् (सोमम्) ज्ञानरसं (सुषुम) चक्षुःश्रोत्रादिभिः ज्ञानसाधनैः अभिषुतवन्तः। त्वम् (इमम्) ज्ञानरसम् (पिब) आस्वादय, ज्ञानेन्द्रियैरुपलब्धं ज्ञानं मनसा मनुष्वेत्यर्थः। त्वम् (इदम्) एतत् (मम) मदीयम् (बर्हिः) हृदयासनम् (आ सदः) आसन्नोऽसि ॥१॥
भावार्थः
मनोमाध्यमेन ज्ञानेन्द्रियैः प्राप्तस्य ज्ञानस्य मनननिदिध्यासनाभ्यां पूर्णसाक्षात्कारो विधेयः ॥१॥
टिप्पणीः
१. इन्द्रः इन्द्रियवान् जीवः, इति ऋ० १।१०१।५ भाष्ये, इन्द्रस्य इन्द्रियस्वामिनो जीवस्य—इति च य० १९।३ भाष्ये द०। ‘इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा’ अ० ५।२।९३ इति पाणिनिसूत्रमपि इन्द्रस्य जीवात्मवाचकत्वं प्रमाणीकरोति। २. ऋ० ८।१७।१, साम० १९१, अथ० २०।३।१, ३८।१, ४७।७।
इंग्लिश (2)
Meaning
0 God, let us contact Thee. For Thee, we conceive pure sentiment in our heart Pray accept it. Purify toy heart, Thy worshipper !
Translator Comment
See the verse 191.^It is the same as 666, but with a different interpretation.
Meaning
Indra, lord omnipotent and omnipresent, we hold the yajna and distil the soma of life in your service. Come, grace this holy seat of my yajna dedicated to you, watch my performance, enjoy the soma, and protect and promote the yajna for the beauty and joy of life.
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (आ याहि) આવી જા (ते) તારા માટે (सोमं सुषुम हि) અમે ઉપાસનારસને સંપાદન કરીએ છીએ. (इमं पिब) તેનું પાન કર-સ્વીકાર કર (मम इदं बर्हिः) મારાં આ હૃદયાકાશમાં (आ सदः) આવ-બેસ. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્માને માટે ઉપાસનારસ તૈયાર કરવો, તેનો સ્વીકાર કરાવવાનો આગ્રહ કરવો, પોતાનાં હૃદયાકાશમાં સમગ્રરૂપથી બેસાડવો જોઈએ. (૧)
मराठी (2)
भावार्थ
मनाच्या माध्यमाने ज्ञानेन्द्रियांद्वारे प्राप्त झालेल्या ज्ञानाचे मनन व निदिध्यासनाद्वारे पूर्ण साक्षात्कार केला पाहिजे ॥१॥
विषय
प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वाचिक भागात मंत्र क्र. १९१ वर केली आहे. ती व्याख्या तीन अर्थ असणारी आहे.. परमात्मपर, राजापर आणि आचार्यपर. आता जीवात्म्याविषयी व्याख्या केली जात आहे.
शब्दार्थ
हे (इन्द्र) माझ्या अंत:करणा, तू (आयाहि) ये (तू यत्रतत्र भरकटू नकोस. स्थिर रहा) पहा, आम्ही (ते) तुझ्यासाठी (सोमम्) ज्ञशनरूप रस (सुषुम्) नेत्र, कर्ण आदी ज्ञानप्राप्तीच्या साधनांद्वारे पिकून तयार केला आहे. तू हा ज्ञानरस (पिव) पी म्हणजे ज्ञानेंद्रियाद्वारे प्राप्त ज्ञानावर मनन कर. ध्यानात असू दे की तू (इदम्) या (मम) माझ्या (बर्हि:) हृदयासनावर (आरूढ:) बसलेला आहेस ।।१।।
भावार्थ
माणसाने मनाच्या माध्यमातून ज्ञानेंन्द्रियांद्वारे ज्ञान मिळवावे आणि त्या ज्ञानाविषयी चिंतन, मनन, निदिध्यासन आदी उपायाने त्या ज्ञानाचा पूर्ण साक्षात्कार करावा ।।१।।
विशेष
हा एका साधकाचा आत्म्याशी झालेला संवाद आहे.
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