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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 686
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    23

    द्यु꣣क्ष꣢ꣳ सु꣣दा꣢नुं꣣ त꣡वि꣢षीभि꣣रा꣡वृ꣢तं गि꣣रिं꣡ न पु꣢꣯रु꣣भो꣡ज꣢सम् । क्षु꣣म꣢न्तं꣣ वा꣡ज꣢ꣳ श꣣ति꣡न꣢ꣳ सह꣣स्रि꣡णं꣢ म꣣क्षू꣡ गोम꣢꣯न्तमीमहे ॥६८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । सु꣣दा꣡नु꣢म् । सु꣣ । दा꣡नु꣢꣯म् । त꣡वि꣢꣯षीभीः । आ꣡वृ꣢꣯तम् । आ । वृ꣣तम् । गिरि꣢म् । न । पु꣣रुभो꣡ज꣢सम् । पु꣣रु । भो꣡ज꣢꣯सम् । क्षु꣣म꣡न्त꣢म् । वा꣡ज꣢꣯म् । श꣢ति꣡न꣢म् । स꣣हस्रि꣡ण꣢म् । म꣣क्षू꣢ । गो꣡म꣢꣯न्तम् । ई꣣महे ॥६८६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युक्षꣳ सुदानुं तविषीभिरावृतं गिरिं न पुरुभोजसम् । क्षुमन्तं वाजꣳ शतिनꣳ सहस्रिणं मक्षू गोमन्तमीमहे ॥६८६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्युक्षम् । द्यु । क्षम् । सुदानुम् । सु । दानुम् । तविषीभीः । आवृतम् । आ । वृतम् । गिरिम् । न । पुरुभोजसम् । पुरु । भोजसम् । क्षुमन्तम् । वाजम् । शतिनम् । सहस्रिणम् । मक्षू । गोमन्तम् । ईमहे ॥६८६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 686
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर से याचना करते हैं।

    पदार्थ

    (द्युक्षम्) अन्तरात्मा में तेज के निवासक, (सुदानुम्) श्रेष्ठ दानी, (तविषीभिः) बलों से (आवृतम्) परिपूर्ण, (गिरिं न) पर्वत और बादल के समान (पुरुभोजसम्) बहुत पालन करनेवाले, अर्थात् जैसे पर्वत और बादल अनेक ओषधियों तथा वर्षाओं द्वारा पालन करते हैं, वैसे ही जड़-चेतन जगत् का पालन करनेवाले, (क्षुमन्तम्) अन्न-भण्डार के भण्डारी, (शतिनम्) सैकड़ों ऐश्वर्यों से युक्त, (सहस्रिणम्) सहस्रों गुणों से युक्त, (गोमन्तम्) गति करनेवाले सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदियों के स्वामी इन्द्र परमेश्वर से हम (मक्षु) शीघ्र ही (वाजम्) अन्न, धन, ज्ञान, बल, वेग, सुख आदि की (ईमहे) याचना करते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है। विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर है ॥२॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को उचित है कि जो परमेश्वर सब विद्याओं और सब ऐश्वर्यों का परम खजाना है, उसकी उपासना करके सब विद्याओं तथा समस्त भौतिक और आध्यात्मिक सम्पदाओं को प्राप्त करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (तविषीभिः-आवृतम्) नाना बल प्रवृत्तियों से परिपूर्ण (गिरिं न) पर्वत के समान (पुरुभोजसम्) बहुत पालक (सुदानुम्) सुखदान करनेवाले (द्युक्षम्) प्रकाश में निवास कराने वाले (क्षुमन्तम्) प्रकाशवान् (गोमन्तम्) ज्ञानवान् सर्वज्ञानप्रद सर्वज्ञ (वाजम्) अमृत अन्नभोग वाले ‘मकारोऽत्र मत्वर्थीयः’ (शतिनं सहस्रिणम्) सतगुणित सहस्रगुणित वर के देने वाले ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (मक्षु-ईमहे) शीघ्र—बार बार प्रार्थित करते हैं “ईमहे याञ्चाम” [निघं॰ ३.१९]।

    भावार्थ

    हमें उस नाना शक्तियों से युक्त बहु प्रकार से पालनकर्ता सुखदान करनेवाले प्रकाशमय मोक्षधाम में निवास करानेवाले स्वयं प्रकाशस्वरूप ज्ञानवान् सर्वज्ञ अमृतानन्दभोग के स्वामी अपनी स्तुति प्रार्थना उपासना का भेंट के शतगुणित सहस्र-गुणित फल वररूप में देनेवाले परमात्मा की शीघ्र, पुनः, निरंतर प्रार्थना करनी चाहिये॥२॥

    विशेष

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    विषय

    नौ प्रकार से धारण

    पदार्थ

    यह मन्त्र भी ‘नोधा गोतम' का ही है । वह प्रभु (नोधा) = नव धा - नौ प्रकार से हमारा धारण करनेवाले हैं। उस प्रभु की ही हम (ईमहे) = अध्येषणा [प्रार्थना] करते हैं, जो प्रभु - [१] (द्युक्षम्) = प्रकाश में निवास करानेवाले हैं [द्यु- प्रकाश, क्षि= निवास] । प्रभु-स्मरण से मनुष्य अन्धकार में नहीं रहता, उसे अपना मार्ग स्पष्ट दिखता है। सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों को [ यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् ] श्रेष्ठ व दोषशून्य होने से प्रभु ने वेदज्ञान से जगमगा दिया तो क्या अब अपने हृदयों को ऐसा बनाने पर वे प्रभु हमारे हृदयों को ज्ञान से द्योतित न करेंगे ? [२] (सु-दानुम्) = वे प्रभु उत्तम बुद्धि, मन, इन्द्रियादि उपकरणों के देनेवाले हैं। कितनी विलक्षण यह बुद्धि है। इससे मनुष्य ने विज्ञान में कितनी अद्भुत उन्नति की है ! कितना शक्तिशाली यह मन है—यह हमें कहाँ नहीं पहुँचा सकता ? एक-एक इन्द्रिय कितनी अपूर्व शक्ति से सम्पन्न है, किस प्रकार ये ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में साधन बनती हैं ?

    [३] (तविषीभिः आवृतम्) = वह प्रभु शक्तियों से हमें आवृत करनेवाले हैं [आवृणोति इति आवृत्] नाना प्रकार की शक्तियाँ उन्होंने हमें प्राप्त करायी हैं। कई स्थानों पर इन शक्तियों की संख्या चौबीस दी गई है। ‘मखाय त्वा' इस मन्त्र भाग में २४ बार यह कहा गया है कि मैं इन शक्तियों को यज्ञ के लिए अर्पित करता हूँ ।

    [४] (गिरि न पुरुभोजसम्) = जैसे पर्वत नाना प्रकार की ओषधियों, वनस्पतियों से हमारा पालन करता है, उसी प्रकार ये प्रभु भी हमारा पालन करनेवाले हैं। हमारे जीवनधारण के लिए सभी आवश्यक पदार्थों का प्रभु ने ही निर्माण किया है । पर्वतों को भी पालक द्रव्यों से प्रभु ने ही भरा है। 

    [५] (क्षुमन्तम्) = वे प्रभु' क्षु' वाले हैं। ‘क्षु' का अर्थ है भोजन । प्रभु ही सब प्राणियों को शरीरधारण के लिए भोजन प्राप्त कराते हैं ।

    [६] (वाजम्) = वे प्रभु बलवाले हैं। हमें भी भोजन के द्वारा बल प्राप्त कराते हैं । [७] शतिनम्=वे हमें शत वर्ष का आयुष्य देनेवाले हैं। हम अपने हीन कर्मों से उसमें न्यूनता कर लिया करते हैं और इस प्रकार हमारी असमय में ही मृत्यु हो जाती है ।

    [८] (सहस्त्रिणम्) = वे प्रभु मधुर मुस्कान- [हस्र-Smile]-वाले हैं। हमें भी उन्होंने मन:प्रसाद के परिणामरूप यह मुस्कान प्राप्त करायी है, परन्तु हम अपनी अल्पज्ञता के कारण राग-द्वेष के वशीभूत होकर उसे समाप्त कर लेते हैं। यदि हमारी बालसुलभ निर्दोषता बनी रहे तो यह मुस्कान भी हमारा साथ कभी न छोड़े।

    [९] (गोमन्तम्) = वे प्रभु प्रशस्त गौवोंवाले हैं। उन्होंने हमारे शरीरों की नीरोगता, मनों की निर्मलता और बुद्धि की तीव्रता के लिए इन गौवों से गोदुग्ध प्राप्त कराने की व्यवस्था की थी । हमने अपनी नासमझी से उन गौवों के महत्त्व को नहीं समझा । हमारा गोसंवर्धन की ओर झुकाव होगा तो वे गौएँ हमारा सर्वतः संवर्धन करनेवाली बनेंगी ।

    इस प्रकार उल्लिखित नौ प्रकारों से वे प्रभु हमारा धारण कर रहे हैं । हमें चाहिए कि हम (मक्षु) = शीघ्र ही उस प्रभु की (ईमहे) = आराधना करें । प्रभु की आराधना से ही हमारा नौ प्रकार से धारण हो सकेगा।

    भावार्थ

    प्रभु के इन नौ धारण- प्रकारों को समझते हुए हम सदा उनको पाने के अधिकारी बनें।
     

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    विषय

    गुणाधान

    शब्दार्थ

    हे परमेश्वर ! आप (द्युक्षम्) प्रकाशमय हैं। (सुदानुम्) सर्वोत्तम दाता हैं (तविषीभिः) बलों से, सर्वशक्तियों से (आवृतम्) युक्त हैं (गिरिम् न) काल के समान (पुरुभोजसम्) सर्वभक्षक हैं, अथवा (गिरि न) मेघ के समान (पुरुभोजसम्) सर्वरक्षक हैं, जैसे मेघ वृष्टि द्वारा प्राणियों की रक्षा करता है ऐसे ही आप भी आनन्द-वृष्टि से प्राणियों की रक्षा करते हैं (क्षुमन्तम्) सबके आश्रय हैं । (वाजम्) अत्यन्त बलवान् (शतिनम्) अत्यन्त शक्तिशाली हैं (सहस्रिणम्) बलवानों से भी अधिक बलवान् हैं (मक्षू) सबके पवित्रकर्ता हैं (गोमन्तम्) सर्वज्ञान-सम्पन्न हैं । आपके ये सभी गुण हमारे जीवनों में आएँ हम ऐसी (ईमहे) याचना, प्रार्थना करते हैं ।

    भावार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र में भक्ति का उच्चादर्श है । ईश्वर की सच्ची भक्ति क्या है ? उसके गुणों को अपने जीवन में धारण करना । भक्त कहता है- १. हे प्रभो ! आप प्रकाशमय हैं, मैं भी दीप्तिमय बनूँ । २. आप सर्वोत्तम दाता हैं, मैं भी दानी बनूँ । ३. आप सभी बलों, शक्तियों से युक्त हैं, मैं भी शक्तिशाली बनूँ । ४. आप काल के समान सभी प्राणियों का नाश करनेवाले हैं, मैं भी शत्रुसमूह का नाशक बनूँ; अथवा, आप मेघ के समान सबपर आनन्द-धारा की वृष्टि करने वाले हैं, मैं भी दीन-दुःखियों पर कृपालु बनूं। ५. आप अशरण-शरण हैं, मैं भी निराश्रितों का आश्रय बनूँ । ६. आप सर्वज्ञानसम्पन्न हैं, मैं भी अधिक-से-अधिक ज्ञानी बनूँ ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) ( द्युक्षं ) = दिव्य गुणों में निवास करने हारे ( सुदानुं ) = उत्तम दाता, ( तविषीभिः ) = बलों से ( आवृतम् ) = घिरे हुए, परिपूर्ण, ( पुरुभोजसं ) = प्रजाओं के पालक से हम ( क्षुमन्तं ) = निवास योग्य गृहादिसम्पन्न ( शतिनं ) = सैकड़ों ( सहस्रिणं ) = सहस्रों सुखों और लाभों से युक्त ( गोमन्तं ) = गो-धन से पूर्ण ( वाजं ) = ज्ञान और ऐश्वर्य को ( ईमहे ) = याचना करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नोधा काक्षीवत:। देवता - इन्द्रः। छन्दः - बृहती। स्वरः - मध्यमः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरं याचते।

    पदार्थः

    (द्युक्षम्) अन्तरात्मनि दीप्तिनिवासकम् [द्युं दीप्तिं क्षाययति निवासयति इति द्युक्षः तम्। क्षि निवासगत्योः।] (सुदानुम्) श्रेष्ठदानम्, (तविषीभिः) बलैः। [तविषी इति बलनाम। निघं० २।९।] (आवृतम्) आच्छादितम्, परिपूर्णमिति यावत्, (गिरिं न२) पर्वतमिव मेघमिव वा (पुरुभोजसम्) बहुपालयितारम्, यथा पर्वतो मेघो वा बह्वीभिरोषधीभिः वृष्टिभिश्च पालकः, तथाविधम्। [भुज पालनाभ्यवहारयोः।] (क्षुमन्तम्) बह्वन्नोपेतम्, (शतिनम्) शतैश्वर्ययुक्तम्, (सहस्रिणम्) सहस्रगुणैर्युक्तम्, (गोमन्तम्) गोभिः गतिमद्भिः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिः युक्तम् इन्द्रं परमेश्वरं, वयम् (मक्षु) सद्य एव (वाजम्) अन्नधनज्ञानबलसुखादिकम् (ईमहे) याचामहे। [ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९।] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः। विशेषणानां साभिप्रायत्वाच्च परिकरः ॥२॥

    भावार्थः

    यः परमेश्वरः सकलानां विद्यानामैश्वर्याणां च परमो निधिर्विद्यते तस्योपासनेन सर्वैर्जनैः सर्वा विद्याः सर्वाणि भौतिकाध्यात्मिकान्यैश्वर्याणि च प्राप्तव्यानि ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।८८।२; अथ० २०।९।२, २०।४९।५। २. गिरि न पुरुभोजसम्। न शब्द उपरिष्टादुपचारत्वादुपमार्थीयः। गिरिमिव बहुभोज्यम्। गिरौ पर्वते बहुभोजनतृणकाष्ठान्युपजीवन्ति। अथवा गिरिर्मेघः, तं सर्वं जगदुपजीवति—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, we pray unto Thee to grant us soon, a King, who is full of splendour, highly charitable, equipped with armies, a great nourisher like the cloud, the master of foodstuffs, highly powerful, and the master of thousands of cows !

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    Meaning

    We pray to Indra, lord of light, omnificent, hallowed with heavenly glory, universally generous like clouds of shower, and we ask for food abounding in strength and nourishment and for hundredfold and thousandfold wealth and prosperity abounding in lands, cows and the graces of literature and culture, and we pray for the gift instantly. (Rg. 8-88-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तविषीभिः आवृतम्) અનેક બળ પ્રવૃત્તિઓથી પરિપૂર્ણ (गिरिं न) પર્વતની સમાન (पुरुभोजसम्) મહાન પાલક (सुदानुम्) સુખનું દાન કરનાર (धुक्षम्) પ્રકાશમાં નિવાસ કરનાર (क्षुमन्तम्) પ્રકાશમાન (गोमन्तम्) જ્ઞાનવાન સર્વજ્ઞાન પ્રદ સર્વજ્ઞ (वाजम्) અમૃત અન્ન ભોગવાળા (शतिनं सहस्रिणम्) સો ગણું હજાર ગણું વર આપનાર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માની (मक्षु ईमहे) શીઘ્ર-વારંવાર પ્રાર્થના કરીએ છીએ. (૨)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અમને તે અનેક શક્તિઓથી યુક્ત, અનેક રીતે પાલન કરનાર, સુખનું દાન કરનાર, પ્રકાશમય મોક્ષધામમાં નિવાસ કરાવનાર, સ્વયં પ્રકાશસ્વરૂપ, જ્ઞાનવાન સર્વજ્ઞ, અમૃતાનંદ ભોગના સ્વામી, તેની સ્તુતિ, પ્રાર્થના, ઉપાસનાની ભેટને સેંકડોગણી, હજારગણી ફળ વરરૂપમાં આપનાર પરમાત્માની શીઘ્ર વારંવાર, નિરંતર પ્રાર્થના કરવી જોઈએ. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो परमेश्वर सर्व विद्या व सर्व ऐश्वर्याचा परम भांडार आहे, त्याची उपासना करून सर्व माणसांनी विद्या व संपूर्ण भौतिक व आध्यात्मिक संपदा प्राप्त करावी ॥२॥

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    विषय

    आता परमेश्वराला प्रार्थना करीत आहोत. -

    शब्दार्थ

    (भक्तगण प्रार्थना करीत आहेत) आम्ही त्या (घुक्षम्) अंतरात्म्यास तेज वा उत्साह देणाऱ्या तसेच (सुदानुम्) श्रेष्ठ दानी असलेल्या आणि (विषीभि आवृतम्) विविध शक्तींनी परिपूर्ण अशा इन्द्र परमेश्वराची प्रार्थना करीत आहोत. तो (गिरिन) पर्वताप्रमाणे व मेघाप्रमाणे (पुरूभोजसभृ) खूप खूप पालन करणारा आहे. म्हणजे जसे पर्वत आणि मेघ विविध औषधीद्वारे व जलाद्वारे सर्वांचे पालन करतात, तद्वत जड चेतन जगाचे पालन करणारा आहे. आम्ही (झुमन्तम्) अन्न भांडांराचे भांडारी अर्थात सर्वांना अन्न पाणी देणाऱ्या (शतिनम्) शेकडो ऐश्वर्यानी युक्त व (सहस्रिणम्) सहस्रगुणांनी युक्त तसेच (गोमन्तम्) गतीमान सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्रादीचा स्वामी असलेल्या इन्द्र परमेश्वराकडे (मक्षु) लवकरात लवकर (वाजम्) अन्न, धन, ज्ञान, शक्ती, वे, सुख आधी देण्यासाठी (ईमहे) याचना करीत आहोत. ।।२।।

    भावार्थ

    सर्व मनुष्यांसाठी हेच हिताचे आहे की जो परमेश्वर सर्व विद्या आणि सर्व ऐश्वर्यांचा काप्य आहे सर्व मनुष्यांनी त्याची उपासना करून सर्व विद्या आणि सर्व भौतिक आणि आध्यात्मिक संपदा प्राप्त करावी. ।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ये प्रयुक्त जो क्षुमन्तम्, पुरूभोजसम् आदी विशेषणे आहेत, ती साभिप्राय व हेतुपुरस्सर वापरली आहेत. म्हणून येथे परिकर अलंकारही आहे. ।।२।।

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