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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 700
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    22

    अ꣣भि꣢ प्रि꣣या꣡णि꣢ पवते꣣ च꣡नो꣢हितो꣣ ना꣡मा꣢नि य꣣ह्वो꣢꣫ अधि꣣ ये꣢षु꣣ व꣡र्ध꣢ते । आ꣡ सूर्य꣢꣯स्य बृह꣣तो꣢ बृ꣣ह꣢꣫न्नधि꣣ र꣢थं꣣ वि꣡ष्व꣢ञ्चमरुहद्विचक्ष꣣णः꣢ ॥७००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । प्रि꣣या꣡णि꣢ । प꣣वते । च꣡नो꣢꣯हितः । च꣡नः꣢꣯ । हि꣣तः । ना꣡मा꣢नि । य꣣ह्वः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ये꣡षु꣢꣯ । व꣡र्धते꣢꣯ । आ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । बृ꣣ह꣢तः । बृ꣣ह꣢न् । अ꣡धि꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । वि꣡ष्व꣢꣯ञ्चम् । वि । स्व꣣ञ्चम् । अरुहत् । विचक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ ॥७००॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते । आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः ॥७००॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्रियाणि । पवते । चनोहितः । चनः । हितः । नामानि । यह्वः । अधि । येषु । वर्धते । आ । सूर्यस्य । बृहतः । बृहन् । अधि । रथम् । विष्वञ्चम् । वि । स्वञ्चम् । अरुहत् । विचक्षणः । वि । चक्षणः ॥७००॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 700
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५५४ पर परमेश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ जीवात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    (चनोहितः) भोगों को भोगने के लिए शरीर में प्रेषित, (यह्वः) महाशक्तिशाली जीवात्मा (प्रियाणि) प्रिय (नामानि) लचकीले अङ्गों में (पवते) जाता है, (येषु अधि) जिनमें, यह (वर्धते) महिमा को प्राप्त करता है। (बृहन्) महान् (विचक्षणः) ज्ञानवान् यह जीवात्मा (बृहतः) महान् (सूर्यस्य) गतिमय प्राण के (वि-स्वञ्चम्) विशिष्ट शुभगतिवाले (रथम् अधि) देहस्य रथ पर (आ अरुहत्) चढ़कर बैठा हुआ है ॥१॥

    भावार्थ

    आत्मा कर्मफल-भोग के लिए प्राणयुक्त देह का आश्रय लेकर शुभाशुभ भोगों को भोगता है ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ५५४)

    विशेष

    ऋषिः—भार्गवः कविः (अध्यात्मज्ञान से देदीप्यमान मेधावी)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>

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    विषय

    प्रकृति में रहता हुआ भी

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘कवि भार्गव' है । कवि का अर्थ है 'क्रान्तदर्शी' - तत्त्व तक पहुँचनेवाली दृष्टिवाला—न कि उथली दृष्टिवाला । भार्गव होने से यह ऐसा बन सका है। भार्गव का अभिप्राय है 'भृगु का अपत्य', अर्थात् अतिशयेन भृगु - अपने को तपस्या की भट्ठी में पकानेवाला। यह आचार्य के समीप (‘तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे') = खूब तप करता है, इसी से बुद्धि का ठीक परिपाक करके (‘कवि')=क्रान्तदर्शी बनता है । यह कवि (चनोहितः) = अन्न में स्थित होता हुआ भी उन प्राकृतिक भोगों में लिप्त नहीं होता। जल में कमल की भाँति यह कवि प्राकृतिक भोगों में स्थित होता हुआ भी (प्रियाणि नामानि) = प्रभु के सुन्दर नामों को (अभिपवते) = बारीकी से विचारता है [अभि=On, पवते=To think out, Discern], (येषु) = उन नामों को जिनसे (यह्वः) = वह महान् अथवा सबसे जाने योग्य और पुकारने योग्य प्रभु [यातश्च हूतश्च] (अधिवर्धते) = बढ़ता है, अर्थात् जिन नामों से प्रभु की महिमा प्रकट हो रही है । वस्तुतः यह 'भार्गव कवि' इन सब प्राकृतिक पदार्थों में भी प्रभु की महिमा को ही देखता है और इसी प्रभु-स्मरण के कारण उनका ठीक उपयोग करता हुआ उनमें आसक्त नहीं होता, उनमें रहता हुआ भी उनका नहीं हो जाता ।

    ‘भार्गव कवि' (सूर्यस्य) = प्रकाश की देवता के, अर्थात् ज्ञान के (बृहतः) = बृहन्- विशाल-से- विशाल अतिविस्तृत (रथं अधि अरुहत्) = रथ पर सवार होता है, अर्थात् विस्तृत ज्ञान को प्राप्त करता है । उसका यह ज्ञान-रथ (विश्वञ्चम्) = [वि+सु+अञ्ञ्] - विविध दिशाओं में उत्तम गति से जानेवाला है, अर्थात् सभी विषयों के व्यापक ज्ञान को प्राप्त करके यह 'विचक्षणः'–विशेष दृष्टिवाला बनता है।

    भावार्थ

    इस संसार में रहते हुए भी हम सब प्राकृतिक पदार्थों में प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करें, प्रभु के प्रिय नामों का स्मरण करते हुए, व्यापक ज्ञान को प्राप्त कर ‘विचक्षण' बनें और इस मन्त्र के ऋषि 'कवि' हों ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अवि० सं० [५५४] पृ० २७९ ।

    टिप्पणी

    ७०० (२) अधिरोचने' इति ऋ० । (३) 'अभीमृतस्य' 'विराजति' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - आन्धीगव: । देवता - सोम:। छन्दः - जगती । स्वरः -  निषाद: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५५४ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (चनोहितः) चनसे भोगाय हितः देहं प्रेषितः, (यह्वः) महाबलः (सोमः) जीवात्मा (प्रियाणि) चारूणि (नामानि) नमनयोग्यानि अङ्गानि (पवते) गच्छति, (येषु अधि) येषु अङ्गेषु एषः (वर्धते) महिमानं प्राप्नोति। (बृहन्) महान्, (विचक्षणः) ज्ञानवान् एष जीवात्मा (बृहतः) महतः (सूर्यस्य) सरणकर्त्तुः प्राणस्य। [‘प्रा॒णो ह॒ सू॑र्यः’ इति श्रुतेः। अथ० ११।४।१२।] (वि-स्वञ्चम्) विशेषेण शोभनगतियुक्तम् (रथम् अधि) देहरथम् अधिकृत्य (आ अरुहत्) आरूढोऽस्ति ॥१॥

    भावार्थः

    आत्मा कर्मफलभोगार्थं प्राणसहचरितं देहमाश्रित्य शुभाशुभान् भोगान् भुङ्क्ते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।७५।१, साम० ५५४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The great Sun, pours waters all round, which satisfy the world, and are helpful in growing corn. The Sun stands high in the sky over the waters present in the atmosphere. The Soma, possessing unusual lustre, growing in volume, rises high to the orbit of constantly moving great Sun.

    Translator Comment

    An oblation put in the fire goes upto the son, from where it comes down in the shape of rain, which produces corns, which produce semen, from which, man is born. See Manu 3—76.

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    Meaning

    Soma, spirit of life and joy of existence, mighty, infinite, omnipresent, pervades and vitalises all dear beautiful systems of waters and light, expansive and exalted therein. Greater than the great, all watching, it rides the grand chariot of the sun which comprehends and illuminates the whole world. (Rg. 9-75-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (चनः हितः) અન્નો-ભોજ્ય પદાર્થોમાં નિતાન્ત હિતકર અથવા નિતાન્ત હિતકર ભોગવવા યોગ્ય મધુર પદાર્થ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા આધ્યાત્મિક અન્ન છે (प्रियाणि नामानि अभि पवते) જે પોતાના (ओ३म् , भू) આદિ પ્રિય નામોને લક્ષ્ય કરીને ઉપાસકની તરફ આનંદધારા રૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ‘નામ પદાર્થના સ્વરૂપને નમાવતા-જણાવનાર થાય છે.’ (નિરુક્ત) (येषु यह्वः अधिवर्धते) જે નામોમાં મહાગુણવાળા પરમાત્મા ઉપાસના દ્વારા પ્રવૃદ્ધ થાય છે-સાક્ષાત્ થાય છે (बृहन् विचक्षणः) વિશેષ સાક્ષાત્ કરનાર જીવન્મુક્ત મહાન ઉપાસક (बृहतः सूर्यस्य) મહાન પ્રકાશમાન અને સરણીય પ્રાપ્તવ્ય પરમાત્મામાં (विश्वञ्चं रथम्) સર્વત્ર વિદ્યમાન આનંદરસધામમાં (आहसत्) આરોહણ કરે છે-અધિષ્ઠિત થાય છે. (૧)
     

    भावार्थ

     

    ભાવાર્થ : ઉપાસકના હિતકર સેવનીય સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા છે, તે આધ્યાત્મિક અન્ન હોવાથી નિતાન્તર હિતકર છે, ભૌતિક અન્ન તો હિતકર અને અહિતકર પણ હોય છે, પરન્તુ આધ્યાત્મિક અન્ન-પરમાત્મા તો અમૃત છે. જે પોતાના સ્વરૂપને ઉપાસકની તરફ નમાવનાર-સાક્ષાત્ કરાવનાર (ओ३म् , भू) વગેરે નામો દ્વારા ઉપાસકને આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થાય છે, જેના નામોમાં મહાગુણવાન પરમાત્માનું સ્વરૂપ રહેલ છે, તેના અનુસાર સાક્ષાત્ થાય છે. તે મહાન પ્રકાશમાન પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પરમાત્મા મહાન વિશેષ દ્રષ્ટા જીવન્મુક્ત દ્વારા યથાર્થ સાક્ષાત્ થાય છે, સર્વગત આનંદરસધામમાં રહેલ છે. (૧)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    आत्मा कर्मफल-भोगासाठी प्राणयुक्त देहाचा आश्रय घेऊन शुभाशुभ भोगांना भोगतो. ॥१॥

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    विषय

    आता ज्ञान, कर्म, उपासना यांपासून मिळणाऱ्या आनंदाचे वर्णन केले आहे.

    शब्दार्थ

    (चनोहित:) भोगांचा उपभोग घेण्यासाठी ज्याला या देहात पाठविले आहे, असा हा (यह:) महाशक्तीमान आत्मा (प्रियाणि) आपल्या प्रिय (नामानि) अंग प्रत्यंगांमध्ये (पवते) जातो आणि (देषु अधि) इंद्रियांत जाऊन तो (वर्धते) वाढतो. भोगांचा आनंद घेतो. (बृहत) महान (विचक्षण:) ज्ञानवान हा जीवात्मा (बृहत:) महान (सुर्यस्थ) गतिमय प्राणाच्या (विस्*---) शुभ गती असणाऱ्या (--) देहरूप रथावर (आ अरूहत्) स्वार झालेला आहे. (आत्मारथी असून तो देहरूप त्यावर आरूढ आहे. ।।१।।

    भावार्थ

    आत्मा कर्मफल भोगण्यासाठी आत्मा या प्राणवान शरीराचा आश्रय घेतो आणि त्याद्वारे शुभ-अशुभ कर्मांची फळे भोगित असतो. ।।१।।

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