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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 703
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    42

    य꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा वो अ꣣ग्न꣡ये꣢ गि꣣रा꣡गि꣢रा च꣣ द꣡क्ष꣢से । प्र꣡प्र꣢ व꣣य꣢म꣣मृ꣡तं꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसं प्रि꣣यं꣢ मि꣣त्रं꣡ न श꣢꣯ꣳसिषम् ॥७०३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा । य꣣ज्ञा꣢ । य꣣ज्ञा । वः । अग्न꣡ये꣢ । गि꣣रा꣡गि꣢रा । गि꣣रा꣢ । गि꣣रा । च । द꣡क्ष꣢꣯से । प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । व꣣य꣢म् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । प्रिय꣢म् । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । न । श꣣ꣳसिषम् ॥७०३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे । प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न शꣳसिषम् ॥७०३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञायज्ञा । यज्ञा । यज्ञा । वः । अग्नये । गिरागिरा । गिरा । गिरा । च । दक्षसे । प्रप्र । प्र । प्र । वयम् । अमृतम् । अ । मृतम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । प्रियम् । मित्रम् । मि । त्रम् । न । शꣳसिषम् ॥७०३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 703
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३५ पर परमेश्वरोपासना विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ आत्मोद्बोधन का विषय है।

    पदार्थ

    हे भाइयो ! मैं (यज्ञायज्ञा) प्रत्येक यज्ञ में (वः) तुम्हें (अग्नये) अपने अन्तरात्मा में अग्नि प्रज्वलित करने के लिये प्रेरित करता हूँ। (गिरागिरा च) और प्रत्येक वाणी द्वारा (दक्षसे) आत्मोन्नति के लिऐ, प्रेरित करता हूँ। (वयम्) हम सब मिल कर (अमृतम्) अमर, (जातवेदसम्) उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता जीवात्मा को (प्रप्र) अधिकाधिक प्रोद्बोधन देते हैं। मैं अलग भी (मित्रं न) मित्र के समान (प्रियम्) प्रिय उस जीवात्मा का (प्रप्र शंसिषम्) अधिकाधिक गुणकीर्तन करता हूँ ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य के अन्तरात्मा के अन्दर महान् शक्ति छिपी पड़ी है, उसे जगाकर बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३५)

    विशेष

    ऋषिः—तृणपाणिः शंयुः (तुच्छ भेंट आत्मसमर्पी परमात्मा का इच्छुक उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥<br>

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    विषय

    शंयुः बार्हस्पत्यः

    पदार्थ

    इस द्व्यृच का ऋषि ‘शंयुः '=शान्ति चाहनेवाला अथवा शान्ति को अपने साथ युक्त करनेवाला है। यह बार्हस्पत्य-बृहस्पति का सन्तान, अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञानी होने से ही ‘शान्तिप्रिय' बना है। यह अपने जीवन में दो ही बातों को स्थान देता है १. यज्ञ और २. ज्ञान । अपने मित्रों से यह कहता है कि मैं तुम (वः) = सबको (यज्ञायज्ञा) = विविध (यज्ञों) = [उत्तम कर्मों] के द्वारा (अग्नये) = अपने को आगे लेचलने के लिए प्रेरित करता हूँ (च) = तथा (गिरा-गिरा) = एक-एक वेदवाणी के द्वारा (दक्षसे) = योग्य बनने [To be able] के लिए कहता हूँ । यदि मनुष्य अपने जीवन को यज्ञों व ज्ञान प्राप्ति में लगाये रक्खेगा तो उसे अवश्य ही शान्ति प्राप्ति होगी। यह शंयु अपने मित्रों को यज्ञ व ज्ञान में लगे रहने के लिए कहता है कि इस प्रकार (वयम्) = हम सब (अमृतम्) = अमर, मृत्यु से अतीत तथा (जातवेदसम्सर्वज्ञ) = [जातं जातं वेत्ति] उस प्रभु की (प्रियं मित्रं न) = प्रिय मित्र के समान प्(रशंसिषम्) = खूब ही स्तुति करते हैं। यज्ञों के द्वारा हम भी रोगों से बचकर 'अमृत' होते हैं और वेदवाणी के अध्ययन से सर्वज्ञकल्प बनने के लिए यत्नशील होते हैं । 

    इस प्रकार प्रभु-जैसा बनना ही प्रभु का सच्चा उपासक होना है। ज्ञान+कर्म= इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं कि 'यज्ञ [उत्तम कर्म] +ज्ञान' ही उपासना है। “ उपासना" यह समीकरण सत्य है । जब प्रभु में ज्ञान और क्रिया स्वाभाविक हैं तो हमारा भी 'ज्ञानपूर्वक कर्म करना' स्वभाव ही बन जाना चाहिए ।

    भावार्थ

    यज्ञों व वेदवाणियों के द्वारा हम अमरता व सर्वज्ञकल्पता का लाभ करें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अवि० सं० [ ३५ ] पृ० १५ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अग्निर्वैश्वानर: । देवता - अग्नि:। छन्दः - वृहती । स्वरः -  मध्यम:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३५ क्रमाङ्के परमेश्वरोपासना-विषये व्याख्याता। अत्रात्मोद्बोधनविषयमाह।

    पदार्थः

    हे भ्रातरः ! अहम् (यज्ञायज्ञा) प्रतियज्ञम् (वः) युष्मान् (अग्नये) स्वात्मनि अग्निं प्रज्वालयितुम् प्रेरयामि। (गिरागिरा च) वाचा वाचा च (दक्षसे) स्वात्मानम् उन्नेतुं प्रेरयामि। (वयम्) वयं सर्वे मिलित्वा (अमृतम्) अमरणधर्माणम्, (जातवेदसम्) उत्पन्नानां पदार्थानां वेत्तारं जीवात्मानम् (प्रप्र) प्रशंसामः प्रशंसामः, प्रोद्बोधयामः इत्यर्थः। अहं पृथगपि (मित्रं न) सुहृदमिव (प्रियम्) प्रीतिपात्रम् तं जीवात्मानम् (प्रप्र शंसिषम्) प्रकर्षेण स्तौमि, तद्गुणान् कीर्तयामि ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यस्यान्तरात्मनि महती शक्तिर्निहितास्ति, तां प्रोद्बोध्य महान्ति कार्याणि साद्धुं शक्यन्ते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।४८।१, य० २७।४२, साम० ३५। २. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयमृग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च विद्वत्कर्तव्यविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O men, I preach unto Ye, in every sacrifice and Vedic recitation, that I am Omniscient, Almighty, Eternal, the Revealer of the Vedas, and a Friend unto Ye !

    Translator Comment

    See verse 35. The text is the same, but the interpretation is different, hence free from the charge of repetition. 'I' refers to God.

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    Meaning

    In every yajnic programme of your creative and constructive work, in every word of our voice, join and let us honour, appraise and develop agni, imperishable energy pervasive in all things of existence and adore Agni, omniscient and omnipresent lord giver of knowledge and enlightenment. (Rg. 6-48-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञा यज्ञा गिरा गिरा च) મારા સકલ યજ્ઞ અને સમસ્ત સ્તુતિઓ (वः दक्षसे अग्नये) તારા પ્રવૃદ્ધ સર્વત્ર વ્યાપક અને જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્માને માટે છે; તેથી (अमृतं जातवेदसम्) તું અમૃતરૂપ અને ઉત્પન્ન માત્રના આધાર તથા જ્ઞાતા (प्रियं मित्रं न) પ્રિય મિત્રની સમાન પરમાત્માની (वयं प्र प्रशसिषम् હું પ્રશંસા-સ્તુતિ કરું છું. (૧)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે સર્વોત્પાદક, સર્વાધાર, સર્વજ્ઞ અને અમૃતસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! પ્રતિદિન કરવામાં આવતો યજ્ઞ શ્રેષ્ઠકર્મ સદાચરણ અને પ્રતિદિન કરવામાં આવતી સ્તુતિ તારા સર્વત્ર વ્યાપ્ત-મહાન જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપને માટે તારી પ્રાપ્તિને માટે છે. તારા જેવા પ્રિય મિત્રને અધિક અને નિરંતર પ્રશંસિત કરું છું. ચાહું છું, તું મિત્ર સમાન સંગી બની જા એ જ પ્રાર્થના છે. (૧)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसाच्या अंतरात्म्यात महान शक्ती लपलेली आहे त्यांना जागृत करून मोठमोठे कार्य सिद्ध होऊ शकते ॥१॥

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    विषय

    या प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागाच्या क्र. ३५ वर केली आहे. तिथे मंत्राची व्याख्या परमेश्वर उपासनेविषयी आहे. या ठिकाणी त्या मंत्राची व्याख्या आत्म्याच्या उद्बोधनाविषयी केली आहे.

    शब्दार्थ

    कोणी ज्येष्ठ उपासक अपाल्या उपसाक सहकाऱ्यांना आत्मोन्नतीचा उपदेश देत आहे. माझ्या बांधवांनो मी तुमचा एक ज्येष्ठ अनुभवी सहकारी प्रत्येक यज्ञाच्या वेळी तुम्हा सर्वांना आपल्या अंतरात्म्यात अग्नि म्हणजे उत्साहाचा भाव प्रज्वलित करण्यासाठी प्रेरित करीत आहे. तसेच प्रत्येक वाणीद्वारे म्हणजे माझ्या एका एका शब्दाने तुम्हाला आत्मोन्नतीसाठी प्रेरणा देत आहे. या आम्ही सर्व जण मिळून अमर तसेच सर्व उत्पन्न पदार्थांचा जो ज्ञाता म्हणजे अंतरात्मा त्यास अधिकाधिक उद्बोधित करू या. मी स्वत:देखील तुमच्या मित्राप्रमाणे प्रिय अशा स्वत:च्या अंतरात्म्यामध्ये विशेषत्वाने गुणकीर्तन करीत आहे. (स्वत:च्या आत्म्यास अधिकाधिक जागृत करीत आहे. ) ।।१।। या मंत्रात उपमा अलंकार आहे.

    भावार्थ

    माणसाच्या अंतरात्म्यात महान अतिमहान शक्ती असते. ती सुप्त वा लुप्त अवस्थेत आहे. तिचा योग्य वापर करण्यसाठी माणसाने ती आत्मिक शक्ती जागृत केली पाहिजे. पुढील मंत्रात परमेश्वर प्राप्तीची

    विशेष

    या मंत्रात उपमा अलंकार आहे.

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