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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 711
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    22

    वा꣡र्ण त्वा꣢꣯ य꣣व्या꣢भि꣣र्व꣡र्ध꣢न्ति शूर꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि । वा꣣वृध्वा꣡ꣳसं꣢ चिदद्रिवो दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥७११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाः । न । त्वा꣣ । यव्या꣡भिः꣢ । व꣡र्द्ध꣢꣯न्ति । शू꣣र । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । वा꣣वृध्वा꣡ꣳस꣢म् । चि꣣त् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । दि꣡वेदि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥७११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वार्ण त्वा यव्याभिर्वर्धन्ति शूर ब्रह्माणि । वावृध्वाꣳसं चिदद्रिवो दिवेदिवे ॥७११॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाः । न । त्वा । यव्याभिः । वर्द्धन्ति । शूर । ब्रह्माणि । वावृध्वाꣳसम् । चित् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । दिवेदिवे । दिवे । दिवे ॥७११॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 711
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    हे (शूर) शूरवीर, (अद्रिवः) किसी से विदारण न किये जा सकनेवाले अजर-अमर इन्द्र प्रभु ! (यव्याभिः) नहरों द्वारा जल लाकर (वाः न) जैसे सरोवर आदि में लोग जल के परिमाण को बढ़ाते रहते हैं, वैसे ही (वावृध्वांसं चित्) पहले से बढ़े हुए भी (त्वा) तुझे (ब्रह्माणि) उपासक के स्तोत्र (वर्धन्ति) अपने हृदय में बढ़ाते हैं या समाज में प्रचारित करते हैं ॥२॥ ‘जो पहले से ही बढ़ा हुआ है, उसे भी बढ़ाते हैं’ इसमें विरोधालङ्कार है। बढ़ाने से स्मरण तथा प्रचार अभिप्रेत होने पर विरोध का परिहार हो जाता है ॥२॥

    भावार्थ

    सर्वान्तर्यामी ह्रासवृद्धिरहित भी परमेश्वर लोगों द्वारा भुला दिये जाने से और नास्तिकता का प्रचार हो जाने के कारण मानो ह्रास को प्राप्त हो जाता है। भक्तजनों को चाहिए कि उसके स्तोत्रों का गान करके उसे बढ़ायें तथा उसका प्रचार करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (शूर-अद्रिवः) हे पूर्ण समर्थ आनन्द मेघवन् परमात्मन्! (त्वा) तुझे (ब्रह्माणि) हमारे स्तवन—स्तुतिवचन (यव्याभिः-वाः-न वर्धन्ति) नदियों से—नदियों के जल “यव्याः-नद्यः” [निघं॰ १.१३] जैसे महान् जलाशय को बढ़ाते हैं—भरते हैं ऐसे (दिवे दिवे) दिन दिन—प्रतिदिन (वावृध्वांसं चित्) बढ़ते हुए जैसे को भरते हैं।

    भावार्थ

    हे आनन्द मेघ वाले समर्थ परमात्मन्! तुझे उपासकजन अपने स्तुतिवचनों से ऐसे भरते जाते हैं जैसे नदियाँ अपने जलों से महान् जलाशय को भर दिया करती हैं इसलिए कि तुझ से अमृतानन्दरस पाने के लिए॥२॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु मेरी ढाल हों

    पदार्थ

    ‘वर्ण्यते इति वर्णः, वर्ण एव वार्ण: ' = इस निर्वचन से वार्ण का अर्थ है 'सब वेदवाणियों से जिसका वर्णन हो रहा ।' हे (वार्ण) = सब वेदों से वर्णनीय प्रभो ! (शूर) = हे सब कामादि वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको (ब्रह्माणि) = मुझसे उच्चरित स्तोत्र (यव्याभिः) = [यु=अमिश्रण] वासनाओं को पृथक् करने के उद्देश्य से (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं, आपकी महिमा के गीत गाते हैं, अर्थात् मैं सदा आपके स्तोत्रों का उच्चारण इस उद्देश्य से रहता हूँ कि मैं वासनाओं से दूर रहूँ ।

    आप (वावृध्वांसम्) = अपने भक्तों को सदा बढ़ानेवाले हैं। उन्हें वासनाओं से दूर रखकर उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाले हैं । (दिवे-दिवे) = दिन-प्रति दिन आपके भक्त आगे और आगे बढ़ते चलते हैं। (चित्) = निश्चय से हे (अद्रिवः) = प्रभो ! आप आदरणीय हैं [आ+दृ], क्योंकि आप किन्हीं भी वासनाओं से विदीर्ण थोड़े ही होते हैं [अ+दृ-विदारणे] । आपका भक्त भी सदा आपको स्मरण करता हुआ ढाल के समान आपको आगे कर देता है, इस प्रकार वह इन वासनाओं के आक्रमण से अपने को सुरक्षित कर पाता है । वह भी इनसे विदीर्ण न होता हुआ प्रतिदिन उन्नत-ही-उन्नत होता चलता है और सच्चे अर्थों में आपका उपासक बन जाता है ।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! आपके नाम का स्मरण मेरी ढाल बने और मुझे कामादि के प्रबल आक्रमणों से सुरक्षित करे ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) हे ( अद्रिवः ) = न विनाश होने वाले ज्ञान को धारण करने हारे ! हे शूर ! नदियों से ( वाः न ) = जिस प्रकार जलमय समुद्र भरता है उसी प्रकार ( दिवे दिवे ) = प्रतिदिन ( ब्रह्माणि ) = ब्रह्मज्ञान या वेदमन्त्र ( वावृध्वांसं ) = सबसे बड़े महान् ( त्वा ) = तुझको ( यव्याभिः ) = तुझ तक पहुंचने वाली स्तुतियों से ( वर्धन्ति ) = बढ़ाते हैं, अर्थात् वे तेरी महिमा को उससे और बढ़ाते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नृमेध: । देवता - इन्द्र:। छन्दः - ककुप् । स्वरः -  ऋषभ:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मविषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे (शूर) वीर, (अद्रिवः) विदारयितुमशक्य अजरामर इन्द्र प्रभो ! (यव्याभिः) कुल्याभिः। [यव्याः इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३।] (वाः न) सरोवरादौ उदकं यथा वर्धयन्ति जनाः, तथैव (वावृध्वांसं चित्) वृद्धमपि (त्वा) त्वाम् (ब्रह्माणि) उपासकानां स्तोत्राणि (वर्धन्ति) स्वहृदये समेधयन्ति समाजे वा प्रचारयन्ति ॥२॥ यः पूर्वमेव वृद्धस्तमपि वर्धन्तीति विरोधालङ्कारः। वर्धनेन स्मरणं प्रचारणं च गृह्यते इति विरोधपरिहारः ॥२॥

    भावार्थः

    सर्वान्तर्यामी ह्रासवृद्धिरहितोऽपि जनैर्विस्मृतत्वाद् नास्तिकत्व—प्रचाराच्च ह्रसित इव भवति। भक्तजनैस्तदीयस्तोत्रगानैः स वर्धनीयः प्रचारणीयश्च ॥२॥

    टिप्पणीः

    २. ऋ० ८।९८।८, अथ० २०।१००।२।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Heroic, Omniscient God, just as rivers swell the ocean, so do Vedic verses magnify Thee, the Almighty, day by day !

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    Meaning

    O lord of clouds and oceans of space, munificent and brave, expansive, boundless, infinite, like streams of water augmenting the sea, our songs of adoration exalt you wave on wave of flood day by day, the knowledge about you is unending. (Rg. 8-98-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शूर अद्रिवः) હે પૂર્ણ સમર્થ આનંદ મેઘવન પરમાત્મન્ ! (त्वा) તને (ब्रह्माणि) અમારું સ્તવન સ્તુતિવચન (यव्याभिः वाः न वर्धन्ति) નદીઓથી-નદીઓનાં જળ જેમ મહાન જળાશયની વૃદ્ધિ થાય છેભરે છે, તેમ (दिवे दिवे) પ્રતિદિન (वावृध्वांसं चित्) વૃદ્ધિ કરવા સમાન ભરે છે.
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે આનંદ મેઘવાળા સમર્થ પરમાત્મન્ ! જેમ નદીઓ પોતાના જળથી મહાન જળાશયને ભર્યા કરે છે, તેમ તારાથી અમૃત આનંદરસ પ્રાપ્ત કરવા માટે, ઉપાસકજન પોતાનાં સ્તુતિ વચનોથી ભર્યા કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्वांतर्यामी ऱ्हास वृद्धिरहित असूनही परमेश्वराला लोक विसरून जातात व नास्तिकता अधिक वाढल्यामुळे जणू त्याचा ऱ्हास होतो. भक्त लोकांनी त्याचे स्तोत्र गान करून त्याला वाढवावे व त्याचा प्रचार करावा. ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात परमात्म्याविषयी सांगितले आहे. --

    शब्दार्थ

    हे (शूर) वीरवर, आणि (अद्रिव:) ज्याला कोणीही विदारित करू शकत नाही, ज्याला कोणी नष्ट वा पराजित करू शकत नाही; अशा हे अजरामर (इन्द्र प्रभो, जसे लोक (यव्याभि:) कालवा आदी साधनांनी जलजवळ आणतात आणि त्या जलाने (वा:न) सरोवराच्या जलप्रमाण वाढवतात. त्याचप्रमाणे (वावृप्यांसं चित्) जो आधीच वाढलेला आहे, (महान आहे) अशा (त्या) तुला (ब्रह्माणि) उपासकगण आपल्या स्त्रोतांद्वारे (वर्धन्ति) स्वत:च्या हृदयात वाढवतात अथवा समाजात तुझी कीर्ती तुझ्या भक्तीचा महिमा प्रसारित करतात. ।।२।।

    भावार्थ

    सर्वान्तर्यामी परमेश्वरात ऱ्हास अथवा वृद्धी होत नाही, तरी पण जेव्हा लोक वा समाज त्याला विसरतो अथवा जगात नास्तिकतेचा अधिक प्रसार होतो, तेव्हा परमेश्वराचा जणू ऱ्हास होतो. त्यामुळे भक्तगणांचे कर्तव्य आहे की, त्यांनी ईश्वराच्या स्त्रोतादीच्या गायनाद्वारे त्याचा महिमा वाढवावा. तसेच त्याच्या भक्तीचा प्रसार करावा. ।।२।।

    विशेष

    जो पूर्वीच वाढलेला वा महान आहे अशा तुला वाढवितात या कथनात विरोधालंकार आहे. वाढविणे म्हणजे तुझे स्मरण करणे आणि तुझ्या भक्तीचा प्रसार करणे असा अर्थ केल्यानंतर त्या विरूद्ध कथनाचा परिहार होतो. ।।२।।

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