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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 715
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    36

    इ꣢न्द्र꣣ इ꣡न्नो꣢ म꣣हो꣡नां꣢ दा꣣ता꣡ वाजा꣢꣯नां नृ꣣तुः꣢ । म꣣हा꣡ꣳ अ꣢भि꣣ज्ञ्वा꣡ य꣢मत् ॥७१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इत् । नः꣣ । महो꣡ना꣢म् । दा꣣ता꣢ । वा꣡जा꣢꣯नाम् । नृ꣣तुः꣢ । म꣣हा꣢न् । अ꣣भि꣢ज्ञु । अ꣣भि । ज्ञु꣢ । आ । य꣣मत् ॥७१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इन्नो महोनां दाता वाजानां नृतुः । महाꣳ अभिज्ञ्वा यमत् ॥७१५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । इत् । नः । महोनाम् । दाता । वाजानाम् । नृतुः । महान् । अभिज्ञु । अभि । ज्ञु । आ । यमत् ॥७१५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 715
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में जगदीश्वर का वर्णन है।

    पदार्थ

    (इन्द्रः इत्) जगदीश्वर ही (नः) हमारे लिये (महोनाम्) महान् (वाजानाम्) धन, अन्न, बल, वेग, विज्ञान आदि का (दाता) दाता और (नृतुः) जगत् के प्राङ्गण में सब प्राणियों को उन-उनके कर्मों के अनुसार नचानेवाला है। (महान्) महान् वह माता के गर्भ में प्राणियों को (अभिज्ञु) घुटने मोड़े हुए (आयमत्) बाँधे रखता है ॥३॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर ही सबका उत्पादक, पालक, संहारक और कर्मफलों का प्रदाता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्रः-इत्) इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा ही (नः) हमारे लिए (महोनां वाजानां दाता) बहुमूल्य—महत्त्वपूर्ण अमृतभोगों का प्रदानकर्ता है तथा (महान्-अभिज्ञु नृतुः-आ यमत्) महान् कृपालु नेता हुआ हम पर शासन करता है।

    भावार्थ

    परमात्मा हमारे लिए महनीय महत्त्वपूर्ण अमृतभोगों का देने वाला और महान् कृपालु नेता हुआ शासन करता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    कर्म स्वातन्त्र्य, फल पारतन्त्र्य

    पदार्थ

    (इन्द्रः इत्) = वह शक्र ही (नः) = हमें (महोनाम्) = महनीय व तेजस्वी (वाजानाम्) = शक्तियों का (दाता) = देनेवाला है। प्रभु स्वयं सब शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले हैं। वे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयरूप महान् कर्म करनेवाले हैं। इन कर्मों का विचार उस प्रभु की अचिन्त्य शक्ति का कुछ आभास देता है। उस प्रभु ने अपनी शक्ति के अंश से जीव को भी शक्ति सम्पन्न बनाया है और शक्ति देकर हमें (नृतु:) = इस संसार के नाटक में अपना पार्ट अदा करने की योग्यता व क्षमता प्राप्त करायी है। उस शक्ति को प्राप्त करके मनुष्य नाना प्रकार के कर्मरूप नृत्यों को किया करता है । इस नृत्य करने में हमें उस प्रभु ने स्वतन्त्रता दी है । वस्तुतः क्षमता का विकास स्वतन्त्रता में ही सम्भव है। परतन्त्रता में परसंचालित होने से यदि ग़लती की कम सम्भावना है तो विकास तो असम्भव ही है, अतः प्रभु ने शक्ति प्राप्त कराके हमें नृत्य कर्म का स्वातन्त्र्य दिया है। चाहे जैसा नाच हम नाचें, प्रभु हमें रोकते नहीं । समय-समय पर उचित प्रेरणा वे अवश्य प्राप्त कराते हैं । वे क्रुद्ध नहीं होतेवे (महान्) = उदार हैं, परन्तु जब हम इस प्रेरणा को निरन्तर अनसुना करके ग़लत ही नृत्य करने के आग्रही हो जाते हैं, तब वे प्रभु अभिज्ञ आयमत्- इस प्रकार हमारा नियमन करते हैं कि जीव को घुटने टेकने ही पड़ते हैं [अभिगते जानुनी यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा=अभिज्ञु]। जीव कर्म करने में नि:सन्देह स्वतन्त्र हैं, परन्तु फल भोगने में परतन्त्र ही हैं । इस सिद्धान्त को समझता हुआ श्रुतकक्ष कभी भी इस कर्म-स्वतन्त्रता का अनुचित लाभ नहीं उठाता । ज्ञान की शरण में जानेवाला कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में कर्म-स्वातन्त्र्य का उचित लाभ ही उठाने का प्रयत्न करेगा।
     

    भावार्थ

    प्रभु की दी शक्ति से ही हम कर्म कर पाते हैं, अतः हम उस शक्ति का सदुपयोग ही करें, ग़लत प्रयोग करके हमें दण्डभागी न होना पड़े।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( ३ ) ( इन्द्र इत् ) = परमेश्वर ही ( नः ) = हमें ( महोनां ) = दिव्य तेजों से युक्त महान् ( वाजानां ) = अन्नों और बलों का दाता, ( नृतुः ) = सबको अपने बल पर नचाने वाला ( महान् ) = सबसे बड़ा ( अभिज्ञु ) = सर्वज्ञ ( आयमत् ) = सबको व्यवस्था में बांधता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्रुतकक्ष:। देवता - इन्द्र:। छन्दः - गायत्री । स्वरः - षड्ज: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जगदीश्वरो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (इन्द्रः इत्) जगदीश्वर एव (नः) अस्मभ्यम् (महोनाम्) महताम् (वाजानाम्) धनान्नबलवेगविज्ञानादीनाम् (दाता) अर्पयिता, (नृतुः१) जगत्प्राङ्गणे सर्वेषां प्राणिनां तत्तत्कर्मानुसारं नर्तयिता च विद्यते। (महान्) महिमोपेतः सः मातुः गर्भे प्राणिनः (अभिज्ञु२) अभिगतजानुकं यथा स्यात् तथा (आयमत्३)बध्नाति ॥३॥

    भावार्थः

    जगदीश्वर एव सर्वेषां जनयिता पालयिता मारयिता कर्मफलप्रदाता च विद्यते ॥३॥

    टिप्पणीः

    ४. ऋ० ८।९२।३। १. नृतुः नृभ्यो हितः—इति वि०। २. अभिज्ञु सर्वस्य ज्ञाता—इति वि०। ३. आयमत्—यमु बन्धने, सर्वं जगत् कर्मभवैः पाशैर्बध्नाति—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God alone is the Giver upto us of mighty powers. He makes us reap the fruit of our actions, is Almighty, All-knowing, and keeps all under His Law.

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    Meaning

    Indra is a happy and joyous leader, giver of a high order of living, energy and lifes victories. May he, with love, courtesy and humility, lead us to lifes greatness and glory. (Rg. 8-92-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्रः इत्) ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા જ (नः) અમારે માટે (महोनां वाजानां दाता) બહુ મૂલ્યવાન મહત્ત્વપૂર્ણ અમૃતભોગોનો પ્રદાન કર્તા છે તથા (महान् अभिज्ञु नृतुः आ यमत्) મહાન કૃપાળુ નેતા બનીને અમારા પર શાસન કરે છે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મા અમારે માટે મહાન, મહત્ત્વપૂર્ણ અમૃત ભોગોને આપનાર તથા મહાન કૃપાળુ નેતા બનીને શાસન કરે છે.-નિયમમાં રાખે છે. (૩)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जगदीश्वरच सर्वांचा उत्पादक, पालक, संहारक व कर्मफलांचा प्रदाता आहे ॥३॥

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    विषय

    आता ज़गदीश्वराचे वर्णन करीत आहेत -

    शब्दार्थ

    (इन्द्रश्त्) तो ज्वावीश्वरच (न:) आमच्या साठी (महोनाम्) महान (वाजानाम्) धन, अत्र, बल, वेग, विज्ञशन आदी (दाता) आहे आणि तोच (नृतु:) जगाच्या प्रांगणात सर्व प्राण्यांना त्यांच्या कर्मफळाप्रमाणे नाचविणारा आहे. तो (महान) तोच महान ईश्वर मातेच्या गर्भात सर्व प्राण्यांना (अभिज्ञु:) गुडघे वाकलेल्या अवस्थेत (आयमत्) बांधून ठेवीत असतो ।।३।।

    भावार्थ

    तो जगदीश्वरच सर्वांचा उत्पत्तिकर्ता, पालक, संहारक आणि कर्मफल प्रदाता आहे ।।३।।

    विशेष

    या ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागातील मंत्र क्र. १५६ वर करण्यात आली आहे. तिथे परमेश्वर आणि राजा यासंबंधानी व्याख्या केली आहे

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