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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 720
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    47

    न꣡ घे꣢म꣣न्य꣡दा प꣢꣯पन꣣ व꣡ज्रि꣢न्न꣣प꣢सो꣣ न꣡वि꣢ष्टौ । त꣢꣯वेदु꣣ स्तो꣡मै꣢श्चिकेत ॥७२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न꣢ । घ꣣ । ईम् । अन्य꣢त् । अ꣣न् । य꣢त् । आ । प꣣पन । व꣡ज्रि꣢꣯न् । अ꣣प꣡सः꣢ । न꣡वि꣢꣯ष्टौ । त꣡व꣢꣯ । इत् । उ꣣ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । चि꣣केत ॥७२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ । तवेदु स्तोमैश्चिकेत ॥७२०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ । ईम् । अन्यत् । अन् । यत् । आ । पपन । वज्रिन् । अपसः । नविष्टौ । तव । इत् । उ । स्तोमैः । चिकेत ॥७२०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 720
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः आचार्य को कहा जा रहा है।

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) कठोर नियन्त्रण रूप वज्र से शिष्यों को संस्कृत करनेवाले गुरुवर ! (अपसः) विद्याध्ययनरूप कर्म के (नविष्टौ) नवीन सत्र के आरम्भ में, मैं (अन्यत्) किसी अन्य की (न घ ईम्) नहीं (आ पपन) स्तुति करता हूँ (तव इत् उ) आपकी ही (स्तोमैः) सूक्तियों से (चिकेत) ज्ञानी बनता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    शिष्यों को चाहिए कि विद्या के लिए यथासंभव उस विद्या में निष्णात एक ही गुरु को चुनें, क्योंकि अनेकों को चुनने में उनके पारस्परिक मतभेदों के कारण नाना सन्देह उत्पन्न हो सकते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे ओजस्वी तेजस्वी परमात्मन्! “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (अपसः) तुझ व्यापक कर्मशक्तिमान् की (नविष्टौ) स्तुतियज्ञ में “णु स्तुतौ” [अदादि॰] (अन्यत्-न घ-ईम्-आपपन) अन्य की स्तुति कभी नहीं करता हूँ (तव-इत्-उ) तुझे ही (स्तोमैः) समस्त स्तुतिवचनों में ‘विभक्तिव्यत्ययः’ (चिकेत) इष्टदेव जानता—मानता हूँ।

    भावार्थ

    परमात्मा के स्तुतियाग में किसी अन्य की स्तुति नहीं करनी चाहिये, परमात्मा के स्थान पर न कोई जड़ और न चेतन स्तुति योग्य है किन्तु समस्त स्तुति प्रसङ्गों में परमात्मा को ही इष्टदेव मानना चाहिये॥२॥

    विशेष

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    विषय

    तेरी ही, किसी और की नहीं

    पदार्थ

    (वज्रिन्) = वज्रहस्त, नियन्ता प्रभो ! प्रियमेध (आपपन घ ईम्) = निश्चय से (अन्यत्) = किसी और की = स्तुति नहीं करता है (अपस:) = कर्म के (नविष्टौ) = प्रारम्भ में (तव इत् उ) = सचमुच तेरा ही (स्तोमैः) = स्तोत्रों से (चिकेत) = ज्ञान प्राप्त करता है। प्रियमेध ऋषि कहता है कि प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में हे प्रभो ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ ।

    हे वज्रिन्! प्रत्येक कर्म के प्रारम्भ में किये जाते हुए इन स्तोत्रों से यह प्रियमेध तेरा अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर पाता है । वह सर्वत्र आपके नियन्त्रण को अनुभव करता है । इस नियन्त्रण के अनुभव के कारण ही वह अपने कर्मों को पवित्र बनाये रखता है और भोगों का शिकार न हो जाने से वज्रतुल्य शरीरवाला बना रहता है ।

    भावार्थ

    हम प्रत्येक कार्य को प्रभु-स्मरण के साथ आरम्भ करें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) हे वज्रिन् ! हे ज्ञान-वज्र के धारक इन्द्र ! ( अपसः ) = कर्म के ( नविष्टौ ) = प्रारम्भ में मैं ( अन्यद् ) = और किसी की ( न घ ईम् आपपन ) = स्तुति नहीं करता । ( तव इत् उ ) = तेरा ही ( स्तोमैः ) = स्तुतियों द्वारा ( चिकेत ) = ज्ञान करता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः। देवता - इन्द्रः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरप्याचार्यं प्राह।

    पदार्थः

    हे (वज्रिन्) वज्रधर, कठोरनियन्त्रणरूपेण वज्रेण शिष्यान् संस्कर्तः गुरो ! (अपसः) विद्याध्ययनकर्मणः (नविष्टौ)नूतनसत्रारम्भे। [नवा चासौ इष्टिः नविष्टिः। नवेष्टिः इति प्राप्ते ‘एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्’ अ० ६।१।७० वा० इति पररूपम्।] (अन्यत्) अन्यं कञ्चित् (न घ ईम्) न खलु (आ पपन)स्तौमि। [आङ्पूर्वात् पण व्यवहारे स्तुतौ च इति धातोर्लडर्थे लिटि उत्तमैकवचने रूपम्।] (तव इत् उ) तवैव (स्तोमैः) सूक्तैः(चिकेत) ज्ञानवान् भवामि ॥२॥

    भावार्थः

    शिष्यैरेकस्यै विद्यायै यथासम्भवं तद्विद्यानिष्णात एक एव गुरुः स्वीकरणीयः, अनेकेषां वरणे तेषां पारस्परिकविप्रतिपत्तिभिर्नाना- सन्देहोदयप्रसङ्गात् ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।२।१७, अथ० २०।१८।२

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Chastiser of the sinners, in the beginning of my action, I praise none except Thee. I derive knowledge through Vedic verses sung in Thy praise !

    Translator Comment

    $ सप्त संसदः may mean seven postures in which a Yogi sits or seven associated priests at a Yajna. Seven postures are: ^1. Padma Asana, 2. Siddha Asana, 3 . Shirsha Asana, 4. Matsya Asana, 5. Mayura Asana, 6. Dhanur Asana, 7. Sarvanga Asana.^Seven priests: 1. Hota, 2. Adhvaryu, 3. Udgata, 4. Brahma, 5. Maitravaruna, 6. Brahman Achhansi, 7. Achhavaka.

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    Meaning

    Indra, lord of thunder and justice, in the beginning of a new plan, action or programme of holiness, I adore none else but only you. I know only one song of adoration and that is for you alone. (Rg. 8-2-17)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वज्रिन्) હે ઓજસ્વી તેજસ્વી પરમાત્મન્ ! (अपसः) તારી વ્યાપક શક્તિમાનની (नविष्टौ) સ્તુતિયજ્ઞમાં (अन्यत् न घ ईम् आपपन) અન્યની સ્તુતિ કદી પણ કરતો નથી (तव इत् उ) તને જ સ્તુતિ વચનોમાં (चिकेत) ઇષ્ટદેવ જાણું છું-માનું છું. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ: પરમાત્માના સ્તુતિયાગ-યજ્ઞમાં અન્ય કોઈની સ્તુતિ ન કરવી જોઈએ, પરમાત્માનાં સ્થાનમાં કોઈ જડ અને ચેતન સ્તુતિ યોગ્ય નથી, તેથી સમસ્ત સ્તુતિ પ્રસંગોમાં પરમાત્માને જ ઇષ્ટદેવ માનવો જોઈએ. (૨)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    शिष्यांनी विद्येसाठी शक्यतो त्या विद्येत निष्णात एकाच गुरूला निवडावे, कारण अनेकांना निवडण्यात त्यांच्या पारस्पारिक मतभेदामुळे नाना प्रकारचे संशय उत्पन्न होऊ शकतात ॥२॥ं

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    विषय

    पुढच्या मंत्रात पुन्हा आचार्यांना उद्देशून म्हटले आहे -

    शब्दार्थ

    हे (वजिन्) कठोर नियंत्रणरूप वज्राद्वारे शिष्यांना नियंत्रित वा संस्कृत करणारे गुरुवर (अपस:) विद्याध्ययन रूप कर्माच्या (नविष्टौ) नवीन सत्राच्या आरंभी मी (तुमचा शिष्य) (अन्यत्) कोणा इतर गुरुची (न घईम्) (आप पचन) स्तुती करीत नाही. तुमच्याशिवाय इतर कोणालाही गुरू मानत नाही. तुमच्यावर माझी पूर्ण श्रद्धा आहे; म्हणून (तव इत् उ) केवळ तुमच्याच (स्तोत्रै:) स्तुतिवचनांद्वारे मी (चिकेत) ज्ञानी होत आहे. (निवडलेल्या गुरुविषयी अपार व अढळ श्रद्धा असावी.) ।।२।।

    भावार्थ

    शिष्याचे कर्तव्य आहे की, विद्या प्राप्तीकरीता यशाशनय एकच गुरू करावा जो विद्येत पूर्ण निष्णात असेल. कारण की अनेक गुरु केल्यामुळे त्यांमध्ये पारस्परिक मतभेत उत्पन्न होऊ शकतो वा संशय-संदेह भाव बळावतो ।।२।।

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