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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 747
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    21

    स꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ व्यो꣢मनि दे꣣वा꣢ना꣣ꣳ स꣡द꣢ने वृ꣣धः꣢ । सु꣣पारः꣢ सु꣣श्र꣡व꣢स्तमः꣣ स꣡म꣢प्सु꣣जि꣢त् ॥७४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्र꣣थमे꣢ । व्यो꣡म꣢नि । वि । ओ꣣मनि । दे꣣वा꣡ना꣢म् । स꣡द꣢꣯ने । वृ꣢धः꣡ । सु꣣पा꣢रः । सु꣣ । पारः꣡ । सु꣣श्र꣡व꣢स्तमः । सु꣣ । श्र꣡व꣢꣯स्तमः । सम् । अ꣣प्सुजि꣣त् । अ꣣प्सु । जि꣢त् ॥७४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रथमे व्योमनि देवानाꣳ सदने वृधः । सुपारः सुश्रवस्तमः समप्सुजित् ॥७४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । प्रथमे । व्योमनि । वि । ओमनि । देवानाम् । सदने । वृधः । सुपारः । सु । पारः । सुश्रवस्तमः । सु । श्रवस्तमः । सम् । अप्सुजित् । अप्सु । जित् ॥७४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 747
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (सः) वह विद्याप्रदाता आचार्य (प्रथमे) श्रेष्ठ (व्योमनि) आकाश के समान व्यापक ओंकारपदवाच्य ब्रह्म में स्थित हुआ (देवानां सदने) विद्वानों के सदन गुरुकुल में रहता हुआ (वृधः) छात्रों की उन्नति करानेवाला, (सुपारः) विद्या के समुद्र से पार करनेवाला, (सुश्रवस्तमः) अत्यन्त यशस्वी, (अप्सुजित्) व्याप्त विद्याओं में तथा शुभकर्मों में अन्यों को जीत लेनेवाला अर्थात् अन्यों की अपेक्षा अधिक पारंगत है। मैं (सम्) उसकी भली-भाँति स्तुति करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    सुयोग्य, विद्या के सागर, कर्मयोगी आचार्य को पाकर विद्यार्थी भी वैसे ही बनते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (सः-प्रथमे) वह परमात्मा प्रमुख (देवानां सदने व्योमनि) मुक्तों के स्थान विशेष रक्षण स्थान मोक्षरूप में (वृधः) जो उपासकों का वर्धक (सुपारः) संसार सागर से शोभन पारकर्ता (सुश्रवस्तमः) शोभन यशोजीवन का अत्यन्त निमित्त (सम्-अप्सुजित्) हृदयावकाश में कामादि का सम्यक् नाशक उपासनीय है “आपो वै सर्वे कामाः” [श॰ १०.५.४१५]।

    भावार्थ

    मुक्तों के सदन विशेष रक्षण स्थान प्रमुख मोक्षधाम में आनन्द वर्धक संसार से पारकर्ता अच्छे यश का निमित्त हृदय के कामादि का नाशक परमात्मा उपासनीय है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    महान् का लक्षण पञ्चक

    पदार्थ

    (सः) = वह महापुरुष (वृधः) = वृद्धि करनेवाला [वर्धत् इति वृधः, वृध्+क] होता है, परन्तु किस क्षेत्र में ? (प्रथमे व्योमनि) = उत्कृष्ट हृदयान्तरिक्ष में । वैदिक साहित्य में बाह्य आकाश की तुलना में हृदयाकाश को उत्तम कहा गया है 'प्रथमे व्योमनि' का ही पर्यायवाची 'परमे परार्द्धे' है । यही जीव ‘आत्मस्वरूप' का दर्शन कर पाता है । यह आत्मा का विशिष्ट निवास स्थान होने से सचमुच 'व्योम' है [वि+ओम्] । महान् वह है जो इस हृदयाकाश के क्षेत्र में उन्नति की साधना करता है । 'प्रथमे' शब्द का अर्थ 'प्रथ विस्तारे' से विस्तृत भी होता है, अतः हृदय की उन्नति इसे विस्तृत बनाने में ही है। संकुचित हृदय अपवित्र होता है और (मह:) = महत्त्व इसे पवित्र कर डालता है ('महः पुनातु हृदये') = । महान् व्यक्ति वह, जिसका हृदय महान् है।

    (सः) = वह महान् व्यक्ति (देवानां सदने) = देवताओं के निवास स्थान में (वृधः) = वृद्धि करता है । सामान्य मनुष्यों के जीवनों में काम-क्रोध उसकी इन्द्रियों, मन व बुद्धि को अपना निवास स्थान बनाते हैं। महान् वह है जो त्रिपुरारि [महादेव] बनकर असुरों का पराजय करता है और इन्हें देवों का सदन बना देता है। इसका काम 'प्रेम' में परिवर्तित हो जाता है और क्रोध 'मन्यु’ में। इसके जीवन में ये सब असुर अपने पूर्वरूपों में आ जाते हैं । प्रेम ही तो विकृत होकर 'काम' बन गया था और मन्यु ही ‘क्रोध’। असुर भी तो ‘पूर्व-देव' ही हैं।

    ३. (सु-पार:) = हृदय की पवित्रता व दिव्य गुणों के सम्पादन के कारण ही यह प्रत्येक कार्य को (सु) = उत्तमता से (पारः) = समाप्ति तक ले जानेवाला होता है। अधम विघ्न-भय से कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करता तो मध्यम विघ्नों के आने पर बीच में ही रुक जाता है । महान् वही है जो विघ्नों से शतशः आहत होने पर भी कार्य को समाप्ति तक ले-चलता है ।

    ४. (सु- श्रवस्-तमः) - यह महापुरुष कार्यों को समाप्ति तक ले चलने से 'उत्तम यशवाला' होता है। चारों ओर इसकी ख्याति फैलती है। अधिक-से-अधिक प्रसिद्ध होता हुआ भी वह अहंभाव से शून्य है। इस निरभिमानिता से इसका यश और भी सुन्दर प्रतीत होता है ।

    ५. (सम् अप्सु जित्) = अपनी सफलताओं=achievements से यशस्वी होता हुआ भी, क्योंकि यह अहंकारशून्य होता है, अतः यह कार्यों से बद्ध नहीं होता। (अप्सु) = कर्मों को करता हुआ भी यह नहीं कर रहा होता । यही नर है – यही महान् है ।
     

    भावार्थ

    महान् के पाँचों लक्षणों को अपने जीवन में अनूदित करके मैं सचमुच ‘पञ्च-जन' बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( २ ) ( सः ) = वह परमेश्वर ( प्रथमे ) = सबसे श्रेष्ठ ( व्योमनि ) = विशेष रूप से शरण प्राप्त करने योग्य ( देवानां सदने ) = विद्वान् ज्ञानी और मुक्त पुरुषों के आश्रय या निवास करने योग्य लोक में ( वृधः ) = सबसे बड़ा है। वह ( सुपार: ) = उत्तम रूप से ज्ञान करने योग्य और कष्टों से तराने वाला ( सुश्रवस्तमः ) = उत्तम यश और ज्ञान का धारण करनेहारा, ( समप्सुजित् ) = समस्त कर्मबन्धनों या बन्धनों में फंसे जीवों में सबसे उत्कृष्ट एवं आदि मूल कारण प्रकृति पर भी वश करने वाला है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नारद:। देवता - इन्द्र:। छन्द: - उष्णिक् । स्वरः - ऋषभ:।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (सः) असौ विद्यादाता आचार्यः (प्रथमे) श्रेष्ठे (व्योमनि) व्योमवद् व्यापके ओङ्कारपदवाच्ये (ब्रह्मणि२) स्थितः (देवानां सदने) विदुषां गृहे, गुरुकुले इत्यर्थः, विद्यमानः (वृधः) छात्राणां वर्धयिता, (सुपारः)विद्यार्णवात् सम्यक् पारयिता, (सुश्रवस्तमः)यशस्वितमः। [शोभनं श्रवः यशो यस्य स सुश्रवाः, अतिशयेन सुश्रवाः सुश्रवस्तमः।] (अप्सुजित्) अप्सु व्याप्तासु विद्यासु३ शुभकर्मसु च अन्यान् जयतीति तादृशः अस्ति, अहं तम् (सम्) सम्यक् स्तौमि ॥२॥

    भावार्थः

    सुयोग्यं विद्यार्णवं कर्मयोगिनमाचार्यं प्राप्य विद्यार्थिनोऽपि तादृशा एव जायन्ते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।१३।२। २. तुलनीयः ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न् ऋ० १।१६४।३९। ३. अप्सु विद्याव्यापकेषु वेदादिषु—इति ऋ० १।११७।४ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In heaven’s first region, in the seat of gods, is the Mightiest God. He makes us overcome all privations, is most Glorious, and the Giver of the fruit of actions.

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    Meaning

    At the first expansive manifestation of space, at the centre of all divine mutations of nature, he is the efficient cause of natures evolution, supreme pilot, most abundant and most glorious, omnipotent victor over conflicts and negativities in the way of evolution of nature and humanity in relation to will and action. (Rg. 8-13-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः प्रथमे) તે પરમાત્મા પ્રમુખ (देवानां सदने व्योमनि) મુક્તોના સ્થાન વિશેષ રક્ષણ સ્થાન મોક્ષરૂપમાં (वृधः) જે ઉપાસકોના વર્ધક (सुपारः) સંસાર સાગરથી શોભન પારકર્તા (सुश्रवस्तमः) શોભન યશોજીવનના અત્યંત નિમિત્ત (सम् अप्सुजित्) હૃદય અવકાશમાં કામાદિના સારી રીતે નાશક ઉપાસનીય છે. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મુક્તોનાં ગૃહ વિશેષ રક્ષણ સ્થાન પ્રમુખ મોક્ષધામમાં આનંદ વર્ધક, સંસારથી પારકર્તા, શ્રેષ્ઠ યશના નિમિત્ત, હૃદયમાંના કામ આદિના નાશક પરમાત્મા ઉપાસનીય છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सुयोग्य, विद्येचा सागर, कर्मयोगी आचार्याला प्राप्त करून विद्यार्थी ही तसेच बनतात. ॥२॥

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    विषय

    पुन्हा त्याचविषयी सांगत आहेत.

    शब्दार्थ

    (स:) आचार्य विद्या दान करणारा आहे. (प्रथमे) श्रेष्ठ अशा (व्योमनि) आकाशाप्रमाणे सर्वत्र व्यापक आणि ओंकार या एका पदाने ज्याचा परिचय द्यावा अशा ब्रह्मामध्ये स्थित आहे. म्हणजे ब्रह्मज्ञानी आहे. तो आचार्य (देवानांसदने) विद्वानांच्या घरी म्हणजे गुरुकुलात राहून (वृध:) विद्यार्थ्यांची प्रगती घडवितो. तो (सुपार) विद्या सणराच्या पलीकडे पुढे नेणारा (सुश्रवस्तम:) अत्यंत यशस्वी व्याप्त वा प्राप्त विद्या कलवी क्षेत्रात सर्व शुभकर्मात अन्यांवर विजय मिळविणारा आहे अर्थात तो सर्वांपेक्षा अधिक कुशल आहे. मी (त्याच्या विद्यार्थी) त्याची उत्तम प्रकारे स्तुती करतो. ।।२।।

    भावार्थ

    योग्य, विद्यासागर आणि कर्मयोगी आचार्यांकडे राहिल्यामुळे आचार्यांचे विद्यार्थीदेखील तसेच योग्य व कर्मयोगी होतात.

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