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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 753
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    10

    इ꣣मा꣡ उ꣢ वां꣣ दि꣡वि꣢ष्टय उ꣣स्रा꣡ ह꣢वन्ते अश्विना । अ꣣यं꣡ वा꣢म꣣ह्वे꣡ऽव꣢से शचीवसू꣣ वि꣡शं꣢विश꣣ꣳ हि꣡ गच्छ꣢꣯थः ॥७५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣माः꣢ । उ꣣ । वाम् । दि꣡वि꣢꣯ष्टयः । उ꣣स्रा꣢ । उ꣣ । स्रा꣢ । ह꣣वन्ते । अश्विना । अय꣢म् । वा꣣म् । अह्वे । अ꣡व꣢꣯से । श꣣चीवसू । शची । वसूइ꣡ति꣢ । वि꣡शं꣢꣯विशम् । वि꣡श꣢꣯म् । वि꣣शम् । हि꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯थः ॥७५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा उ वां दिविष्टय उस्रा हवन्ते अश्विना । अयं वामह्वेऽवसे शचीवसू विशंविशꣳ हि गच्छथः ॥७५३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः । उ । वाम् । दिविष्टयः । उस्रा । उ । स्रा । हवन्ते । अश्विना । अयम् । वाम् । अह्वे । अवसे । शचीवसू । शची । वसूइति । विशंविशम् । विशम् । विशम् । हि । गच्छथः ॥७५३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 753
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ‘अश्विनौ’ देवतावाली प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३०४ पर परमात्मा-जीवात्मा और अध्यापक-उपदेशक के पक्ष में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ राष्ट्र की उन्नति के लिए ब्राह्मण-क्षत्रियों का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) ज्ञान एवं रक्षा से व्याप्त होनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रियो ! (इमाः उ) ये (दिविष्टयः) यश के प्रकाश की इच्छुक (उस्राः) प्रजाएँ (वाम्) तुम निवासकों को (हवन्ते) पुकार रही हैं। हे (शचीवसू) कर्म-धन और प्रज्ञा-धन के धनियो ! (अयम्) यह मैं भी (अवसे) रक्षा के लिए (वाम्) तुम्हें (अह्वे) पुकारता हूँ, (हि) क्योंकि, तुम (विशं विशम्) प्रत्येक प्रजा के पास (गच्छथः) पहुँचा करते हो ॥१॥

    भावार्थ

    जहाँ ब्रह्म और क्षत्र एक साथ मिलकर रहते हैं, उस राष्ट्र को मैं पुण्यवान् समझता हूँ (य० २०।२५)। इस वेदोक्ति के अनुसार जो ब्राह्मण और क्षत्रिय राष्ट्र को सौभाग्यशाली बनाने के योग्य होते हैं, उनका संरक्षण सब प्रजाओं को प्राप्त करना चाहिए ॥१॥

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    टिप्पणी

    [*5. “अश्विनौ ज्योतिषाऽन्यो रसेनान्यः” [निरु॰ १२.१]।] (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ३०४)

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥ देवता—अश्विनौ (प्रकाशस्वरूप और आनन्दरसरूप परमात्मा*5)॥ छन्दः—बृहती॥<br>

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    विषय

    पति+पत्नी व प्राण-अपान

    पदार्थ

    प्रस्तुत तथा अगले मन्त्र की देवता ' अश्विनौ' है । यह शब्द पति-पत्नी के लिए प्रयुक्त होता है। यास्क ने इन्हें प्राणापान का वाचक माना है। 'न श्वः' आज हैं और कल नहीं - इस अस्थिरता के कारण भी प्राणापान 'अश्विनौ' हैं और 'अश् व्याप्तौ' से बनकर यह शब्द प्राणापान का वाचक इसलिए भी है कि ये कर्मों में व्याप्त होते हैं । मन्त्र का ऋषि वसिष्ठ कहता है कि हे (उस्स्रा) = [उस्स्रौ ] उत्तम निवास देनेवाले व (अश्विना) - कर्मों में व्याप्त होनेवाले प्राणापानो! (इमाः) = ये (दिविष्टयः) =[दिव+इष्] प्रकाश चाहनेवाले साधक (उ) = निश्चय से (वाम्)-आप दोनों को (हवन्ते) = पुकारते हैं। एक साधक प्रकाश की कामना करता हुआ - यह चाहता हुआ कि उसका मस्तिष्क सुलझा हुआ हो, उसे प्रत्येक वस्तु का तत्त्व स्पष्टरूप में दिखे, इसके लिए वह प्राणापान की साधना करता है, प्राणायाम के द्वारा इनका संयम करता है । सूर्यनाड़ी में प्राणों का संयम करके वह सारे भुवन को ही प्रत्यक्ष देखने लगता है—(‘भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्') [योगदर्शन] । वस्तुतः प्राण संयत होकर ज्ञानाग्नि को सन्दीप्त कर देते हैं, जैसे वायु भौतिक अग्नि को, अतः मन्त्र का ऋषि वसिष्ठ भी निश्चय करता है कि (अयम्) = यह मैं (शचीवसू) = शक्ति के सम्पादन द्वारा उत्तम निवास देनेवाले प्राणापानो ! आपको (अवसे) = रक्षा के लिए - शरीर को रोगों से आक्रान्त न होने देने के लिए अह्वे-पुकारता हूँ प्राणापान की साधना से शरीर की शक्ति बढ़ती है । शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति का निवास उत्तम होता है।
    प्राणशक्ति [Vitality ] की वृद्धि से शरीर पर रोगों का आक्रमण नहीं होता । एवं, शरीर की रोगों से सुरक्षा होती है।

    एवं, प्राणसाधना के तीन लाभ हैं – १. प्रकाश की प्राप्ति, २. शरीर का शक्ति-सम्पन्न बनना तथा ३. रोगों से रक्षा । इन तीन लाभों को प्राप्त करानेवाले ये प्राणापान (विशं विशम्) - प्रत्येक प्रजा को (हि) = निश्चय से (गच्छथः)= प्राप्त हैं। प्राणापान की सत्ता तो शरीर में है ही । उनका संयम के द्वारा उचित प्रयोग जीव की साधना पर निर्भर है। जो भी व्यक्ति साधना करेगा वह शरीर में उत्तम निवास करनेवालों का अग्रणी 'वशिष्ठ' कहलाएगा। प्राणापान को वश में करने से यह वशियों में श्रेष्ठ वशिष्ठ भी कहलाता है। प्राणापान का नाम मित्र और वरुण भी है, अतः ये ‘मैत्रावरुणि' भी कहा जाता है।

    भावार्थ

    प्राणापान की साधना से हमारा जीवन 'प्रकाशमय’, ‘शक्ति-सम्पन्न', स्वस्थ और ‘नीरोग' हो ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अविकल सं० [ ३०४ ] पृ० १५५ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वसिष्ठ:। देवता - अश्विनौ । छन्द: - वृहती । स्वरः - मध्यम: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र अश्विदेवताका प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३०४ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मपक्षेऽध्यापकोपदेशकपक्षे च व्याख्याता। अत्र राष्ट्रोन्नतये ब्राह्मणक्षत्रियौ आह्वयति।

    पदार्थः

    हे (अश्विना) ज्ञानेन रक्षया च व्याप्तिमन्तौ ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (इमाः उ) एताः खलु (दिविष्टयः) यशःप्रकाशेच्छवः प्रजाः (उस्रा वाम्) वासकौ युवाम् (हवन्ते) आह्वयन्ति। हे (शचीवसू)कर्मधनौ प्रज्ञाधनौ वा ! (अयम्) एषः अहमपि (अवसे) रक्षणाय (वाम्) युवाम् (अह्वे) आह्वयामि, (हि) यतः, युवाम् (विशं विशं) प्रजां प्रजाम् (गच्छथः) प्राप्नुथः ॥१॥

    भावार्थः

    यत्र॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चर॑तः स॒ह। तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑ष॒म् (य० २०।२५) इति श्रुत्युक्तदिशा यौ ब्राह्मणक्षत्रियौ राष्ट्रं सौभाग्यशालिनं कर्तुमर्हतः, तयोः संरक्षणं सर्वाभिः प्रजाभिः प्राप्तव्यम् ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ७।७४।१, साम० ३०४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Prana and Apana, the settlers of all, these seven forces working in the head, also sing Your glory. I, for the protection of my life, call Ye again and again from inside outside and from outside inside. O both powerful breaths Ye move in each body.

    Translator Comment

    The verse 753 is the same as 304. 'I' refers to soul.

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    Meaning

    Brilliant Ashvins, these yajakas dedicated to life divine invoke and call upon you for light, and I too, O versatile commanders of the wealth of knowledge, power and vision, invite you and pray for protection and advancement since you visit and bless every individual and every community. (Rg. 7-74-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (उस्रा अश्विना) હે ઇન્દ્ર પરમૈશ્વર્યવાન પરમાત્માને વસાવનાર વ્યાપનશીલ જ્ઞાનપ્રકાશ અને આનંદરસ (वाम्) તમે બન્નેને (इमाः दिविष्टयः) એ દિવ્ય-અમૃતમોક્ષને ચાહનારી પ્રજાઓ-ઉપાસકજનો
    (हवन्ते) બોલાવે છે-આકર્ષિત કરે છે (वाम्) જેમ તમે બન્નેને (अवसे)  રક્ષા માટે (अयम् अह्ने) એ હું બોલાવું
    છું-આકર્ષિત કરું છું તેમ તમે ।(शचीवसू) પ્રજ્ઞાથી વસનારા (विशं विशं हि गच्छथः) પ્રત્યેક મનુષ્યોને જ પ્રાપ્ત થાઓ છો. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે વસાવનાર પરમાત્માના જ્ઞાન પ્રકાશ અને આનંદરસ ધર્મો તમને મોક્ષને ચાહનારા મુમુક્ષુ ઉપાસક જનો અવશ્ય પોતાની અંદર આમંત્રિત કરે છે-આકર્ષિત કરે છે, તો એ હું પણ મારી રક્ષા માટે તમને આમંત્રિત કરું છું , તેમ તમે પ્રજા દ્વારા વસવાવાળા બનીને પ્રત્યેક મનુષ્યને પ્રાપ્ત થાઓ છો , પ્રજ્ઞાવાન મનુષ્યો તમને પોતાની અંદર અવશ્ય ધારણ કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेथे ब्रह्म व क्षत्र एकत्र मिळून राहतात, त्या राष्ट्राला मी पुण्यवान समजतो (य. २०।२५) या वेदोक्तीनुसार जे ब्राह्मण व क्षत्रिय राष्ट्राला सौभाग्यशाली बनवितात, त्यांचे संरक्षण सर्व प्रजेला मिळाले पाहिजे ॥१॥

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