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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 760
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
24
दु꣣हानः꣢ प्र꣣त्न꣡मित्पयः꣢꣯ प꣣वि꣢त्रे꣣ प꣡रि꣢ षिच्यसे । क्र꣡न्दं꣢ दे꣣वा꣡ꣳ अ꣢जीजनः ॥७६०॥
स्वर सहित पद पाठदुहानः꣢ । प्र꣡त्न꣢म् । इत् । प꣡यः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । क्र꣡न्द꣢꣯न । दे꣣वा꣢न् । अ꣣जीजनः ॥७६०॥
स्वर रहित मन्त्र
दुहानः प्रत्नमित्पयः पवित्रे परि षिच्यसे । क्रन्दं देवाꣳ अजीजनः ॥७६०॥
स्वर रहित पद पाठ
दुहानः । प्रत्नम् । इत् । पयः । पवित्रे । परि । सिच्यसे । क्रन्दन । देवान् । अजीजनः ॥७६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 760
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
हे रस के भण्डार परमात्मारूप सोम ! (प्रत्नम् इत्) सनातन (पयः) आनन्द-रस को (दुहानः) दुहकर देते हुए, आप (पवित्रे) पवित्र हृदय में (परिषिच्यसे) चारों ओर सींचे जाते हो। (क्रन्दन्) मानो कल-कल शब्द करते हुए, आप (देवान्) दिव्य तरंगों को (अजीजनः) उत्पन्न करते हो ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा की स्तुति से उपासक के हृदय में ब्रह्मानन्द के प्रवाह बहने लगते हैं ॥३॥
पदार्थ
(दुहानः) ‘दुह्यमानः’ कर्मणि कर्तृप्रत्ययः, वेदज्ञान से दुह्यमान—दुहा जाता हुआ हे सोम—शान्त परमात्मन्! (प्रत्नम्-इत् पयः) शाश्वत दूधरूप ही (पवित्रे परिषिच्यसे) पवित्र—हृदय में परिषिक्त किया जाता है—बिठाया जाता है (क्रन्दन् देवान्-अजीजनः) तू उपदेश देता हुआ मेरे अन्दर दिव्यगुणों को उत्पन्न करता है।
भावार्थ
शान्तस्वरूप परमात्मा वेदज्ञान से प्राप्त किया हुआ शाश्वत दूधरूप हृदय में निश्चित बैठ जाता है, वहाँ उपदेश करता हुआ दिव्यगुणों को प्रकट करता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
प्रभु में समा जाना
पदार्थ
यह मेध्यातिथि (इत्) = निश्चय से (प्रत्नम् पय:) = सनातन, वृद्धि के साधनभूत वेदज्ञान को | (दुहान:) = अपने में भरता हुआ (पवित्रे) = पवित्र प्रभु में (परिषिच्यसे) = परिषिक्त होता है। जैसे नदी समुद्र में, उसी प्रकार यह उस प्रभु में समा जाता है । वह सदा (क्रन्दम्) - उस प्रभु को पुकारता हुआ देवान्- दिव्यगुणों को अजीजन:-अपने में उत्पन्न करता है ।
दिव्य गुणों को बढ़ाते-बढ़ाते देव बनकर ही वस्तुतः कोई भी व्यक्ति प्रभु का सच्चा उपासक होता है | दिव्य-गुणों को बढ़ाने के लिए प्रभु को पुकारना आवश्यक है। बिना प्रभु को आगे किये, वासनाओं को हम स्वयं
नितान्त आवश्यक है । ज्ञानाग्नि ही तो हमें पवित्र बनाती है। ये दोनों बातें [प्रभु-स्मरण व ज्ञानप्राप्ति] उसे इस योग्य बनाती हैं कि यह प्रभु का ज्ञान प्राप्त करे, साक्षात्कार करे और उसमें समा जाए। प्रभु की सर्वव्यापकता के नाते ज्ञान-प्राप्ति से पूर्व भी हम प्रभु में हैं, परन्तु उस प्रकार तो सब पशु-पक्षी भी उसी में हैं। ज्ञान होने पर जब हम प्रभु में समाएँगे, तब वास्तविक आनन्द का लाभ कर सकेंगे।
भावार्थ
मैं ज्ञानी बनूँ, देव बनूँ, जिससे प्रभु को पा सकूँ ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (३) हे सोम ! ( प्रत्नम् इत् ) = पुराने, अनादिकाल से चले आये ( पयः ) = प्राण, जीवन को ही ( दुहानः ) = रस या जीवनरूप में दुहता हुआ तू ( पवित्रे ) = पवित्र करने हारे प्राण और अपान या परम पावन ज्ञान के द्वारा ही ( परि सिच्यसे ) = पवित्र किया जाता है । ( ऋन्दन् ) = शब्द करता हुआ, 'सोहं' का नाद करता हुआ या 'ओं ' का नाद करता हुआ तू ( देवान् ) = इन्द्रियगण को ( अजीजन:) = प्रकट करता है । प्राणाः पयः ।। शत० ६ । ५ । ४ । १५ । और ९२ । ३ । ३ । ३१ । अन्तर्हितमिव वा एतद् यत् पयः । ताण्डय० ८ । ९ । ३ ।
टिप्पणी
७६० —'अजीजनत्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - असित: काश्यपो अमहीर्युवा । देवता - सोम:। छन्द: - गायत्री। स्वरः - षड्ज:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे रसागार परमात्मसोम ! (प्रत्नम् इत्) पुराणम् एव (पयः) आनन्दरसम् (दुहानः) प्रयच्छन्, त्वम् (पवित्रे) परिपूते हृदये (परिषिच्यसे) प्रवाह्यसे। (क्रन्दन्) कल-कलशब्दं कुर्वन्निव त्वम् हृदये (देवान्) दिव्यतरङ्गान् (अजीजनः) जनयसि ॥३॥
भावार्थः
परमात्मस्तवनादुपासकस्य हृदये ब्रह्मानन्दप्रवाहाः प्रवहन्ति ॥३॥
टिप्पणीः
३. ऋ० ९।४२।४।
इंग्लिश (2)
Meaning
0 soul, granting the sap of ancient knowledge to all, thou sprinklest thy heart with it. Reciting aloud Om, thou makest the organs resound with it.
Meaning
Creating the eternal life-giving food of divine ecstasy for the soul, the presence of blissful Soma vibrates in the heart of the celebrant and, calling out as if loud and bold, awakens the dormant divine potentialities of the devotee to active possibilities. (Rg. 9-42-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दुहानः) વેદજ્ઞાનથી દોહન થનાર સોમ-શાન્ત પરમાત્મન્ ! (प्रत्नम् इत् पयः) શાશ્વત દૂધરૂપ જ (पवित्रे परिषिच्यसे) પવિત્ર-હૃદયમાં પરિષિક્ત કરવામાં આવે છે-બેસાડવામાં આવે છે (क्रन्दन् देवान् अजीजनः) તું ઉપદેશ કરતાં મારા અંદર દિવ્ય ગુણોને ઉત્પન્ન કરે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા વેદજ્ઞાનથી પ્રાપ્ત કરેલ શાશ્વત દૂધ રૂપ હૃદયમાં બેસી જાય છે, ત્યાં ઉપદેશ કરતાં દિવ્ય-ગુણોને પ્રકટ કરે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या स्तुतीने उपासकाच्या हृदयात ब्रह्मानंदाचे प्रवाह वाहू लागतात ॥२॥
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