Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 768
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
23
आ꣡ ह꣢र्य꣣तो꣡ अर्जु꣢꣯नो꣣ अ꣡त्के꣢ अव्यत प्रि꣣यः꣢ सू꣣नु꣡र्न मर्ज्यः꣢꣯ । त꣡मी꣢ꣳ हिन्वन्त्य꣣प꣢सो꣣ य꣢था꣣ र꣡थं꣢ न꣣दी꣡ष्वा गभ꣢꣯स्त्योः ॥७६८॥
स्वर सहित पद पाठआ । ह꣣र्य꣢तः । अ꣡र्जु꣢꣯नः । अ꣡त्के꣢꣯ । अ꣣व्यत । प्रियः꣢ । सू꣣नुः꣢ । न । म꣡र्ज्यः꣢꣯ । तम् । ई꣣म् । हिन्वन्ति । अ꣡पसः꣢ । य꣡था꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । न꣣दी꣡षु꣢ । आ । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥७६८॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हर्यतो अर्जुनो अत्के अव्यत प्रियः सूनुर्न मर्ज्यः । तमीꣳ हिन्वन्त्यपसो यथा रथं नदीष्वा गभस्त्योः ॥७६८॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । हर्यतः । अर्जुनः । अत्के । अव्यत । प्रियः । सूनुः । न । मर्ज्यः । तम् । ईम् । हिन्वन्ति । अपसः । यथा । रथम् । नदीषु । आ । गभस्त्योः ॥७६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 768
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे पुनः उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ
(हर्यतः) चाहने योग्य, (अर्जुनः) गौरवर्ण, (प्रियः) प्यारा, (मर्ज्यः) अलङ्कार पहनाने योग्य (सूनुः) पुत्र (न) जैसे (अत्के) घोड़े पर बैठाया जाता है, वैसे ही (हर्यतः) सर्वान्तर्यामी और कमनीय, (अर्जुनः) शुद्ध, सात्त्विक, (प्रियः) प्यारा, (मर्ज्यः) वक्ष पर अलङ्कार के समान हृदय में धारण करने योग्य सौम्य परमेश्वर (अत्के) उपासकों की आत्मा में (आ अव्यत) बैठाया जाता है। (तम् ईम्) उसे (अपसः) कर्मण्य लोग (आ हिन्वन्ति) सर्वत्र ले जाते हैं, प्रचारित करते हैं, (यथा) जैसे नाविक लोग (नदीषु) नदियों में (गभस्त्योः) बाहुओं से (रथम्) जलयान को (आ हिन्वन्ति) ले जाते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में दो उपमाओं की संसृष्टि है। पूर्वार्ध में श्लिष्टोपमा है ॥२॥
भावार्थ
उपासक योगी लोगों को चाहिए कि परमात्मा को अपने आत्मा में धारण करके सर्वत्र उसका प्रचार करें, जिससे संसार में आस्तिकता का वातावरण पैदा हो ॥२॥
पदार्थ
(हर्यतः) कमनीय “हर्यति कान्तिकर्मा” [निघं॰ २.६] (अर्जुंनः) जीवन में अर्जित करने योग्य या निर्मल (सूनुः-न प्रियः) पुत्र के समान स्नेहपात्र (मर्ज्यः) तथा अलङ्करणीय निज अर्चना स्तुति से प्रशंसनीय “मृजू शौचालङ्करणयोः” सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (अत्के-आ-अव्यत) “अत सातत्यगमने” [भ्वादि॰] निरन्तर पुनः पुनः जिसमें प्राप्त होता है उस हृदय-प्रदेश में आ जाता है प्राप्त होता है (तम्-इम्) उसे अवश्य (अपसः) कर्म वाले अभ्यासी योगाभ्यासी जन ‘अत्र मत्वर्थीयोऽकारश्छान्दसः’ (हिन्वन्ति) प्राप्त करते हैं अनुभव करते हैं “हिन्वन्ति प्राप्नुवन्ति” [निरु॰ १.२०] (यथा नदीषु रथं गभस्त्योः-आ) जैसे नदियों—जलधाराओं में जलयानों (नौका) को दोनों अरित्ररूप बाहुओं—भुजाओं में बलवान् मल्लाह ‘आप्नुवन्ति’ प्राप्त करते—सम्भाले रखते हैं “गभस्ती बाहुनाम” [निघं॰ २.४]।
भावार्थ
कमनीय स्वात्मा में अर्जित करने योग्य या निर्मल पुत्र के समान स्नेह पात्र तथा अर्चनाओं से भूषित करने प्रशंसित करने योग्य शान्तस्वरूप परमात्मा हृदय में आता है, प्राप्त होता है। उसको अभ्यासी उपासकजन अनुभव करते हैं, प्राप्त करते हैं जैसे जलधाराओं में जलयान—नौका को बलवान् मल्लाह चप्पूसहित दोनों भुजाओं में सम्भाले रहते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
सोम किस में रक्षित होता है
पदार्थ
गत मन्त्र में ‘षट्कसम्पत्ति' का वर्णन हुआ है । वह षट्कसम्पत्ति सबसे प्रथम ‘सोम' रूप सम्पत्ति की नींव पर आश्रित है । यह सोम हमारे शरीर में Semen = वीर्य के रूप में स्थित है। यह १. (हर्यतः) = [हर्य गतिकान्त्योः] गति का स्रोत व कान्त है । इसके होने पर ही जीवन प्रगतिमय व सुन्दर होता है । २. (अर्जुनः) = यह अर्जुन के योग्य होता है। अर्जुन का अर्थ 'श्वेत' भी है । यह शुभ्र वर्ण का सोम वस्तुतः अर्जनीय होता है । यही हमारे जीवन की सर्वमहान् कमाई है। ३. ('सूनुः न प्रियः') = पुत्र के समान हमें यह प्रिय होना चाहिए । ४. (मर्ज्य:) = यह सोम शुद्ध रखने योग्य है। वासनाएँ इसे अपवित्र करती हैं। इसे वासनाओं का शिकार नहीं होने देना ।
यह सोम (अत्के) = [अत्क=Members of the body] शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में (आ) = सर्वथा (अव्यत) = रक्षित किया जाए। शरीर में उत्पन्न होकर वह शरीर में सुरक्षित हो । 'अत्क' का अर्थ सतत गतिशील भी है—यह सोम सतत गतिशील में ही सुरक्षित होता है। इसी भावना को मन्त्र में इस रूप में व्यक्त करते हैं कि (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से ('अपसः') = क्रियाशील लोग ही (हिन्वन्ति) = प्राप्त करते हैं। यह सोम (यथारथम्) = [रथस्य (योग्यम्) = यथारथम्] शरीर के ही योग्य हैशरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में ही इसका निवास होना चाहिए। इस तत्त्व को समझ लेनेवाला व्यक्ति इस कार्य की दुष्करता को अनुभव करता हुआ प्रभु का स्तवन करेगा। प्रभु ही उसे इस दुष्कर कार्य में समर्थ बनाएँगे, अतः (नदीषु) = स्तोताओं में – प्रभु की स्तुति करनेवालों में जो (अपसः) = क्रियाशील लोग होते हैं, वे ही इस सोम को शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में [रथ=शरीर] व्याप्त करनेवाले बनते हैं। ये कर्मशील स्तोता ही (गभस्त्योः) = ज्ञान की किरणरूप हाथों में ही (आहिन्वन्ति) = इसे सर्वथा प्राप्त करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने पर यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बन उसे उज्ज्वल करता है, क्रियाशीलता से यह शरीर का अङ्ग बनकर उन्हें सबल बनाता है। उपासना से यह हमें सचमुच उस प्रभु के [उप] समीप [आसना] आसीन करता है ।
एवं, यह स्पष्ट है कि सोम की रक्षा के लिए 'ज्ञान, कर्म व उपासना' की त्रयी आवश्यक है। यह त्रयी ही हमें वासनाओं से तराएगी और हम 'सोम' को प्राप्त कर सोमी बनेंगे।
भावार्थ
हम सोम के महत्त्व को समझें और उसका विनियोग ज्ञान, कर्म व उपासना में करनेवाले बनें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (२) ( हर्यतः ) = हरण करने योग्य, प्रिय ( अर्जुनः १ ) = इन्द्र, आत्मा , ( प्रियः ) = प्राणों का प्रिय इष्ट ( सूनुः न ) = पुत्र के समान ( मर्ज्य: ) = संभाल कर, धो, पोंछ कर, साफ स्वच्छ करने योग्य है । वह ( अत्के ) = सर्वव्यापक ब्रह्म में ( आ अव्यत ) = मग्न हो जाता है और ( तम् ई ) = उसको ही ( गभस्त्योः ) = दीप्तिस्वरूप प्राण और अपान, इड़ा और पिंगला के बीच की ( नदीषु ) = धाराओं या नाड़ियों में ( अपस: ) = वेगवान् प्राण या ध्यान वृत्तियों को उसी प्रकार ( आ हिन्वन्ति ) = प्रेरित करता है ( यथा ) = जिस प्रकार ( अपस: ) = वेगवान् सुभट ( रथं ) = अपने रथ को प्रेरित करते हैं, आगे बढ़ाते हैं । १. अर्जुनो ह वा इन्द्रो यदस्य गुह्यं नाम ॥ श० ५ । ४ । ३ । ७ ॥ भा० (३) =?
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाजादय: सप्त ऋषय: । देवता -सोम:। छन्द: - वृहती । स्वरः - मध्यम:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
(हर्यतः) कमनीयः। [हर्य गतिकान्त्योः। भृमृदृशि० उ० ३।११० इति अतच् प्रत्ययः।] (अर्जुनः) गौरवर्णः, (प्रियः) प्रीतिपात्रभूतः, (मर्ज्यः) अलङ्कार्यः. [मृजू शौचालङ्कारयोः।] (सूनुः) पुत्रः (न) यथा (अत्के) अश्वे, (आ अव्यत) आरोह्यते तथा (हर्यतः) सर्वान्तर्यामी, कमनीयः, (अर्जुनः) शुद्धः, सात्त्विकः, (प्रियः) प्रेमार्हः, (मर्ज्यः) वक्षसि अलंकारवद् हृदि धारणीयः सोमः सौम्यः परमेश्वरः (अत्के) उपासकानाम् आत्मनि२ (आ अव्यत) आनीयते। [आङ्पूर्वस्य अवतेर्गत्यर्थस्य कर्मणि रूपम्।] (तम् ईम्) तम् एनम् (अपसः) अपस्विनः कर्मण्याः जनाः (आ हिन्वन्ति) सर्वत्र गमयन्ति प्रचारयन्ति। कथमिव ? (यथा) येन प्रकारेण, नाविकाः (नदीषु) सरित्सु (गभस्त्योः) गभस्तिभ्यां, बाहुभ्याम्। [तृतीयार्थे षष्ठी।] (रथम्) जलपोतम् (आ हिन्वन्ति) चालयन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्र द्वयोरुपमयोः संसृष्टिः। पूर्वार्धे श्लिष्टोपमा ॥२॥
भावार्थः
उपासकैर्योगिभिः परमात्मानं स्वात्मनि संधार्य स सर्वत्र प्रचारणीयो येन जगत्यास्तिकताया वातावरणं भवेत् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०७।१३, अर्जुने इति पाठः। २. अततीति अत्कः वायुः आत्मा च इति दशपाद्युणादिवृत्तौ ‘इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्यः कन्’ द० पा० उ० ३।२१ सूत्रे माणिक्यः।
इंग्लिश (2)
Meaning
The lovely soul, liked by the Pranas (breaths) should be kept pure as a son is washed and kept clean. The soul absorbs itself in God, and concentrates the forces of meditation on God, in veins lying between Ida and Pingla, just as skilful driver carries the car to the battlefield.
Meaning
Dear, loved and fascinating, Soma emerges in transparent unsullied form, winsome worth refinement like a childs and inspiring as a sanative. Devotees stimulate it with holy karma, a thing beautiful and inspiring, and let it join and flow in the streams of thought and action between their intellect and emotion and their prana and apana energies. (Rg. 9-107-13)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (हर्यतः) કમનીય-કાન્તકર્મા (अर्जुनः) જીવનમાં કમાણી કરવા યોગ્ય અથવા નિર્મળ-શ્વેત (सूनुः न प्रियः) પુત્રની સમાન સ્નેહપાત્ર (मर्ज्यः) તથા અલંકરણીય નિજ અર્ચના સ્તુતિથી પ્રશંસનીય સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अत्के आ अव्यत्) નિરંતર ફરી-ફરી જેમાં પ્રાપ્ત થાય છે તે હૃદય પ્રદેશમાં આવી જાય છે (तम् ईम्) તેને અવશ્ય (अपसः) કર્મવાળા અભ્યાસી યોગી-યોગાભ્યાસીજન (हिन्वन्ति) પ્રાપ્ત કરે છે અનુભવ કરે છે. (यथा नदीषु रथं गभस्त्योः आ) જેમ નદીઓ-જલધારાઓમાં (नौका) નાવને બન્ને હલેસારૂપ ભુજાઓમાં બળવાન નાવિક ‘આપનુવન્તિ’ પ્રાપ્ત કરીને-સંભાળી રાખે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : કમનીય સ્વાત્મામાં અર્જિત-કમાણી કરવા યોગ્ય અથવા નિર્મળ પુત્રની સમાન સ્નેહ પાત્ર તથા અર્ચનાઓથી આભૂષિત કરવા, પ્રશંસિત કરવા યોગ્ય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા હૃદયમાં આવે છે , પ્રાપ્ત થાય છે. તેનો અભ્યાસી ઉપાસક જન અનુભવ કરે છે, પ્રાપ્ત કરે છે; જેમ જલધારાઓમાં નાવને બળવાન નાવિક હલેસાં સહિત બન્ને ભુજાઓમાં સંભાળી રાખે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांनी परमात्म्याला आपल्या आत्म्यात धारण करून सर्वत्र त्याचा प्रचार करावा, ज्यामुळे जगात आस्तिकतेचे वातावरण निर्माण व्हावे. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal