Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 82
ऋषिः - वामदेवः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
33
य꣡दि꣢ वी꣣रो꣢꣫ अनु꣣ ष्या꣢द꣣ग्नि꣡मि꣢न्धीत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । आ꣣जु꣡ह्व꣢द्ध꣣व्य꣡मा꣢नु꣣ष꣡क्शर्म꣢꣯ भक्षीत꣣ दै꣡व्य꣢म् ॥८२
स्वर सहित पद पाठय꣡दि꣢꣯ । वी꣣रः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्यात् । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्धीत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । आ꣣जु꣡ह्व꣢त् । आ꣣ । जु꣡ह्व꣢꣯त् । ह꣣व्य꣢म् । आ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । श꣡र्म꣢꣯ । भ꣣क्षीत । दै꣡व्य꣢꣯म् ॥८२॥१
स्वर रहित मन्त्र
यदि वीरो अनु ष्यादग्निमिन्धीत मर्त्यः । आजुह्वद्धव्यमानुषक्शर्म भक्षीत दैव्यम् ॥८२
स्वर रहित पद पाठ
यदि । वीरः । अनु । स्यात् । अग्निम् । इन्धीत । मर्त्यः । आजुह्वत् । आ । जुह्वत् । हव्यम् । आनुषक् । अनु । सक् । शर्म । भक्षीत । दैव्यम् ॥८२॥१
सामवेद - मन्त्र संख्या : 82
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि हमारी सन्तान कैसी हो।
पदार्थ
(यदि) यदि (वीरः) पुत्र (अनु) वेदानुकूल व्रतोंवाला (स्यात्) हो, (मर्त्यः) मरणधर्मा वह (अग्निम्) यज्ञाग्नि को, राष्ट्रियता की अग्नि को और परमात्माग्नि को (इन्धीत) अपने अन्दर प्रदीप्त किया करे, और (आनुषक्) निरन्तर नैत्यिक कर्त्तव्य के रूप में (हव्यम्) यज्ञाग्नि के प्रति सुगन्धित-मधुर-पुष्टिवर्धक और आरोग्य-वर्धक हवि को, राजा के प्रति राजदेय कर रूप हवि को तथा परमात्मा के प्रति मन-बुद्धि-प्राण आदि की हवि को (आजुह्वत्) समर्पित करता रहे तो वह (दैव्यम्) प्रकाशक यज्ञाग्नि, राजा वा परमात्मा से प्रदत्त (शर्म) सुख को (भक्षीत) सेवन कर सकता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
हमारे पुत्र और पुत्रियाँ अपनी मरणधर्मता को विचारकर यदि वेदानुकूल आचरण रखकर नित्य यज्ञाग्नि में घी-कस्तूरी-केसर आदि हवि, राजाग्नि में राजदेय कर रूप हवि और परमात्माग्नि में अपने आत्मा-अग्नि-बुद्धि-प्राण-इन्द्रिय आदि की हवि होमें, तो वे समस्त अभ्युदय और निःश्रेयस-रूप सुख को भोग सकते हैं ॥२॥
पदार्थ
(यदि ‘यत्-इ’) जब हि—जब कि (मर्त्यः) मनुष्य (अग्निम्-इन्धीत) परमात्मा को अपने आत्मा में प्रदीप्त करे—उपासना में लावे—ध्यावे (अनु) फिर (वीरः-स्यात्) वह वीर हो जावे स्वात्मबल का बलवान् हो जावे—वास्तविक स्वाश्रय वीर बन जावे “स ह वाव वीरो य आत्मन एव वीर्यमनु वीरः” [जै॰ २.२८२] (आनुषक्-हव्यम्-आजुह्वत्) पुनः आनुपूर्व्य—क्रमशः—निरन्तर “आनुषगिति नामानुपूर्व्यस्यानुषक्तं भवति” [निरु॰ ६.१५] उस परमात्मा अग्नि में अपने आत्मभाव हवि को समन्तरूप से समर्पित करता है, तो (दैव्यं शर्म भक्षीत) देवों—मुक्तों वाले सुख—मोक्षानन्द को “शर्म सुखनाम” [निरु॰ ३.६] भोगता है।
भावार्थ
धनबल या शरीरबल या सत्ताबल या जनबल के आधार पर बलवान् नहीं होता किन्तु परमात्मा की शरण में जाने से, उसके आराधन से, उस पर आस्था रखने से बलवान् बनता है पुनः निरन्तर परमात्मा के प्रति अपना समर्पण रखने से मोक्षानन्द को भी भोगता है॥२॥
विशेष
ऋषिः—वामदेवो वा भरद्वाजो वा (वननीय परमात्मदेव वाला या अमृत अन्न भोग को धारण करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
एक वीर का अखण्ड यज्ञ
पदार्थ
(यदि)=यदि (वीर:)=विशेषरूप से शत्रुओं को कम्पित करनेवाला [वि+ ईर] (अनुष्यात्) = होना चाहे [प्रार्थना में लिङ्लकार है] तो (मर्त्यः) = शत्रुओं से लड़ाई में जिसके मर जाने की सम्भावना है वह मनुष्य (अग्निम्) = शत्रुओं को जला डालनेवाले प्रभु को (इन्धीत) = अपने हृदय में, जहाँ काम-क्रोधादि शत्रुओं से युद्ध चल रहा है, दीप्त करे [इन्ध-दीप्त करना]। ‘यदि' शब्द हमारे कर्म-स्वातन्त्र्य की सूचना दे रहा है, हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम प्रभु को याद करें या न करें। 'मर्त्य' शब्द स्पष्ट कर रहा है कि इन शत्रुओं को हम युद्ध में हरा न सकेंगे। ‘अग्नि’ शब्द स्पष्ट संकेत कर रहा है कि इन शत्रुओं को वे अग्निरूप प्रभु ही जलाएँगे। इन्हें भस्मसात् करना मानवशक्ति से परे है। हमें प्रभु को हृदय में दीप्त करना है–हृदय में बिठाना है न कि बाहर मन्दिर के मण्डप में । युद्धस्थली हृदय है- प्रभु का वहीं उपस्थित होना आवश्यक है।
अब यदि हम प्रभु की सहायता से वीर बनकर शत्रुओं को कम्पित कर परे भगा देंगे तो हम कामादि से ऊपर उठकर अपने जीवन को हव्य:हविरूप बना सकेंगे- लोकहित के
लिए न्यौछावर कर सकेंगे और (आनुषक्) = निरन्तर-जीवन के सौ-के-सौ वर्ष (हव्यम्) = पवित्र हविमय जीवन की (आजुह्वत्) = प्राजापत्य यज्ञ में आहुति देते हुए हम (दैव्यम्)
= अलौकिक प्रभु की प्राप्तिरूप (शर्म) = दु:ख-संयोग के वियोगरूप शुद्ध सुख [आनन्द ] को (भक्षीत) = अनुभव करेंगे। सेवा में जो आनन्द है वह भोग के आनन्दों से अनन्तगुणा उत्तम है। प्राकृतिक सुखों में दुःख का मिश्रण है-यह प्रभु-प्राप्ति का आनन्द ही सब दुःखों को समाप्त कर शुद्ध आनन्द का अनुभव कराता है। यह जीवन को हव्य बना देने से ही मिलेगा। उस समय हमारा जीवन निर्दोष ही नहीं सुन्दर व दिव्य गुणोंवाला होगा। हम इस मन्त्र के ऋषि वामदेव होंगे।
भावार्थ
हम वीर बनकर जीवन को हविरूप बनाएँ और दिव्य सुख - मोक्ष के अधिकारी हों|
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( यदि ) = जब पुरुष ( वीर:१ ) = ब्रह्मचर्य से वीर्यवान् ( अनु स्यात् ) = हो तब वह ( मर्त्यः ) = मरणधर्मा पुरुष ( अग्निं ) = ईश्वररूप अग्नि को ( इन्धीत ) = प्रदीप्त करे अपने अन्तरात्मा में जगावे और ( अनुषक् ) = निरन्तर ( हव्यं ) = प्राणापान रूप आहुतियों को ( आजुह्वत् ) = उसमें ही समर्पण करता हुआ ( दैव्यम् ) = देव परमेश्वर से प्राप्त ( शर्म ) = सुख और शान्ति को ( भक्षीत ) = भोग करे ।
जब मनुष्य वीर्यवान् हो तो वह गृहस्थ प्रवेश के साथ २ अग्नि आधान करे और उसमें हव्य चरु की आहुति दे ।
टिप्पणी
१. वीरः । पुत्र: । सा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वामदेव:। छन्द: - अनुष्टुप् ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथास्माकं सन्तानः कीदृशो भवेदिति प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(यदि) चेद् (वीरः) पुत्रः (अनु) अनुव्रतः, वेदानुकूलव्रतः (स्यात्) भवेत्, (मर्त्यः) मरणधर्मा सः (अग्निम्) यज्ञाग्निं राष्ट्रियताया अग्निम्, परमात्माग्निं च (इन्धीत) प्रदीपयेत्। इन्धी दीप्तौ, लिङि रूपम्। (आनुषक्) निरन्तरम्, नैत्यिककर्त्तव्यरूपेण (हव्यम्) अग्नौ सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यवर्द्धकं हविः, राजनि राजदेयकररूपं हविः, परमात्मनि च मनोबुद्धिप्राणादीनां हविः (आजुह्वत्) समर्पयेत्। आङ्पूर्वाद् हु दानादनयोः धातोः लेटि रूपम्। तर्हि (दैव्यम्) देवेन यज्ञाग्निना, राज्ञा, परमात्मना वा कृतम्। कृतार्थे देवाद् ययञौ अ० ४।१।८५ वा० सूत्रेण यञ् प्रत्ययः। (शर्म) सुखम्। शर्म सुखनाम। निघं० ३।६। (भक्षीत) सेवेत। भज सेवायाम्, लिङः सीयुटि, बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि रूपम् ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
अस्माकं पुत्राः पुत्र्यश्च स्वमरणधर्मतां विचार्य यदि वेदानुकूलाचारं स्वीकृत्य नित्यं यज्ञाग्नौ घृतकस्तूरीकेसरादिकं हविः, राजादौ राजदेयकररूपं हविः, परमात्माग्नौ च स्वात्ममनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादीनां हविर्जुहुयुस्तदा तैः सकलमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं सुखं भोक्तुं शक्यते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋग्वेदे शाकलीये पदपाठे सर्वत्रावग्रहरहितो दीर्घादिश्च आनुषक् इत्येव पाठ उपलभ्यते। अनूपूर्वात् सचतेर्दीर्घश्छान्दसः। आनुषगिति नाम आनुपूर्व्यस्य, अनुषक्तं भवति इति निरुक्तम् ६।१४।
इंग्लिश (3)
Meaning
The man who worships God, and then incessantly dedicates his deeds to Him, becomes a hero and attains to the happiness of salvation.
Meaning
If a person is brave and zealous, lights the fire, then offers havi into the vedi with surrender, the mortal would have the lasting gift of divine peace and prosperity.
Translation
In case one has a brave son, full of zeal, may he serve and kindle the spiritual fire within him and serve the society with benevolent deeds. He is blessed with God's protection and favours .
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यदि 'यत् - इ') જ્યારે (मर्त्यः) મનુષ્ય (अग्निम् इन्धीत) પરમાત્માને પોતાના આત્મામાં પ્રદીપ્ત કરે - ઉપાસનામાં લાવે - ધ્યાન કરે (अनु) ફરી (वीरः स्यात्) તે વીર બની જાય , સ્વઆત્મબળથી બળવાન બની જાય - વાસ્તવિક સ્વાશ્રયી વીર બની જાય (आनुषक् हव्यम् आजुह्वत्) પુનઃ જ્યારે ક્રમશઃ - નિરંતર તે પરમાત્મારૂપ અગ્નિમાં પોતાના આત્મભાવના હવિને સંપૂર્ણ રૂપથી સમર્પિત કરે છે , ત્યારે (दैव्यं शर्म भक्षीत) દેવો મૂક્તોનું સુખ-મોક્ષાનંદને ભોગવે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્ય ધનબળ , શરીરબળ , સત્તાવળ અથવા જનબળના આધારે બળવાન બની શકતો નથી , પરંતુ પરમાત્માનાં શરણમાં જવાથી , તેની આરાધનાથી , તેના પર શ્રદ્ધા રાખવાથી બળવાન બને છે. પુનઃ નિરંતર પરમાત્મા પ્રત્યે પોતાનું સમર્પણ રાખવાથી મોક્ષાનંદને પણ ભોગવે છે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
برہم جیوتی کو جلائے رکھنے والا وِیر سُکھ شانتی سے بھرا رہتا ہے!
Lafzi Maana
(مرتیہ) منش (یدی اگنم) اگر پرماتم اگنی کو (انُو) ہمیشہ اپنے جیون میں جلائے رکھتا ہے تو وہ (ویر سیات) وِیر بن جاتا ہے۔ اور اگر وہ (آنوُشک) لگاتار (ہویّم) آتم ارپن روُپ سامگری کی (آجہوُوت) آہوتی دیتا رہتا ہے تو وہ (دئیویّم) بھگوان کے دیئے ہُوئے (شرم بھکھیت) سُکھ شانتی کو بھوگتا رہتا ہے۔
Tashree
اگنی دیو کو روشن کر کے وِیر چمکتا جاتا ہے،
اُس کی آگیا میں چل کر کے سب سُکھ شانتی پاتا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
आमचे पुत्र व पुत्री आपल्या मरणशीलतेचा विचार करून जर वेदानुकूल आचरण ठेवून नित्य यज्ञाग्नीमध्ये तूप-कस्तुरी-केशर इत्यादी हवि, राजाग्नीमध्ये राजदेय कररूपी हवि व परमात्माग्नीमध्ये आपला आत्मा-अग्नी-बुद्धी-प्राण-इंद्रिय इत्यादींची हवि दिल्यास ते संपूर्ण अभ्युदय व नि:श्रेयसरूपी सुख भोगू शकतात. ॥२॥
विषय
आमची संतती कशी असावी, याविषयी -
शब्दार्थ
(यदि) जर (वीर:) एक वीर पुत्र (एक) वेदानुकूल व्रतांचे पालन करणारा (स्यात्) असेल, (मर्त्य:) मरणधर्मा असून जर तो (अग्निम्) यज्ञाग्नीला, राष्ट्रीयत्वाच्या अग्नीला (राष्ट्रप्रेमाला) आणि परमात्म अग्नी (उपासना वृत्ती) आपल्या हृदयात (इन्धीत) प्रदीप्त करणारा असेल, आणि (आनुषक) वैत्यिक, नित्य-नैमित्तिक कर्तव्याचे नेहमी पालन करणारा असून, (हव्यम्) यज्ञाग्नीप्रत सुगंधित, मधुर, पुष्टिकारक आणि आरोग्यवर्धक हवी देत असेल, राजासाठी राजदेय कररूप हवी देणारा असेल व परमेश्वराप्रत मन, बुद्धी, प्राण आदीरूप हवीची (आजुहृ) आहुती सातत्याने देत असेल, तर तो (दैव्यम) प्रकाशक यज्ञाग्नी, राजा व परमेश्वराद्वारे प्रदत्त (शर्म) सुखाचे (भक्षीत) मनसोक्त सेवन करू शकेल. ।।२।।
भावार्थ
आमच्या राष्ट्राचे पुत्र व पुत्री आपले मरण धर्मित्व आठवून (शरीर मरणाधीन आहे, पण मरणारे भय त्यागून) जर वेदात सांगितल्याप्रमाणे आचरण करीत नित्यमेव यज्ञाग्नीत घृत, कस्तुरी, केशर आदीची हवी देत असतील राजाग्नीकरीता रादेव कररूप हवी देत असतील आणि परमात्म अग्नीत आत्मा, मळ, प्राण, बुद्धीरूप हवी समर्पित करीत असतील, तर ते समस्त अभ्युदय (ऐहिक उत्कर्ष) व नि:श्रेयस (मोक्ष) रूप सुखांचा उपभोग घेऊन शकतील. ।।२।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ।।२।।
तमिल (1)
Word Meaning
[1] ஹவ்யத்தை நியமமுடன் அளித்து உற்சாகம் நிறைந்து சுடருடனான அக்னியை எழுச்சியாக்கினால் வீரமக்கட்கள் தேவ சம்பந்தமான சுகத்தை அனுபவிக்கட்டும்.
FootNotes
[1] ஹவ்யத்தை - கடனான கடமைச் செயலை
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal