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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 830
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    31

    ए꣣त꣡ अ꣢सृग्र꣣मि꣡न्द꣢वस्ति꣣रः꣢ प꣣वि꣡त्र꣢मा꣣श꣡वः꣢ । वि꣡श्वा꣢न्य꣣भि꣡ सौभ꣢꣯गा ॥८३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए꣣ते꣢ । अ꣣सृग्रम् । इ꣡न्द꣢꣯वः । ति꣣रः꣢ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । आ꣣श꣡वः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । अ꣣भि꣢ । सौ꣡भ꣢꣯गा । सौ । भ꣣गा ॥८३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एत असृग्रमिन्दवस्तिरः पवित्रमाशवः । विश्वान्यभि सौभगा ॥८३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एते । असृग्रम् । इन्दवः । तिरः । पवित्रम् । आशवः । विश्वानि । अभि । सौभगा । सौ । भगा ॥८३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 830
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा में उपासक का व्यवहार वर्णित है।

    पदार्थ

    (एते) ये (तिरः) तिरछी गति से (आशवः) शीघ्र आगे बढ़नेवाले (इन्दवः) तेजस्वी उपासक लोग (पवित्रम्) पवित्र व्यवहार को (असृग्रम्) उत्पन्न करते हैं। इसीलिए (विश्वानि) सब (सौभगा) सौभाग्यों को (अभि) प्राप्त कर लेते हैं।

    भावार्थ

    जगदीश्वर की उपासना से अपने हृदय को पवित्र करके समाज में सबके प्रति पवित्र व्यवहार यदि किया जाए तो निश्चय ही सब सौभाग्य प्राप्त हो जाते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (एते-आशवः-इन्दवः) ‘अत्र सर्वत्र बहुवचनमादरार्थम्’ यह व्यापनशील आनन्दरस भरा सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (तिरः पवित्रम्-असृग्रम्) अन्तर्हित—अन्दर “तिरो दधे—तिरो अन्तर्दधाति” [निरु॰ १२.३२] “तिरोऽन्तर्धौ” [अष्टा॰ १.४.७०] पवित्र हृदय में सृजा जाता है—प्रकट—प्रत्यक्ष किया जाता ध्यानी उपासकों द्वारा (विश्वानि सौभगा-अभि) सारे सुभग धर्मों को प्राप्त करने के लिए।

    भावार्थ

    उपासक आनन्दरसपूर्ण व्यापनशील शान्त परमात्मा को अन्दर हृदय में साक्षात् करते हैं समस्त सौभाग्यप्राप्ति को लक्ष्य करके॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—जमदग्निः (प्रज्वलित ज्ञानाग्नि वाला उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    प्रभु-प्राप्ति व सौभग-लाभ

    पदार्थ

    (एते) = ये (आशवः) = मनुष्य को शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त करनेवाले, शक्ति- उत्पादन के द्वारा मनुष्य में स्फूर्ति उत्पन्न करनेवाले (इन्दवः) = शक्तिशाली सोमकण [१] (तिरः पवित्रम्) = सर्वत्र अन्तर्हित, सभी को पवित्र करनेवाले प्रभु को तथा (विश्वानि सौभगा) = सब सौभगों को (अभि) = लक्ष्य करके (असृग्रम्) = उत्पन्न किये गये हैं।

    सोमकण ‘आशु' हैं— 'इन्दु' हैं । ये सुरक्षित होने पर स्फूर्ति व शक्ति को जन्म देनेवाले हैं । ये उत्पन्न इसलिए किये गये हैं कि १. उस सर्वव्यापक, परन्तु अन्तर्हित प्रभु का दर्शन हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला है । २. इनके उत्पादन का दूसरा प्रयोजन यह है कि सभी सौभग हमें प्राप्त हों। ये सौभग ‘ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य' हैं । इनको प्राप्त करके हमारा जीवन चमक उठता है । एवं, सोम निःश्रेयस को भी देनेवाला है— अभ्युदय का भी साधक है । सोम की रक्षा करनेवाला सब सौभगों से युक्त 'जमदग्नि' अन्त तक ठीक जाठराग्निवाला बनता है। इन सौभगों के कारण उसे आधिव्याधियाँ नहीं सतातीं । अपना ठीक परिपाक करने से यह प्रभु - दर्शन करनेवाला 'भार्गव' बनता है ।

    भावार्थ

    मैं सोम- रक्षा के द्वारा इस जीवन में सौभगों को प्राप्त करूँ और प्रभुदर्शन करके पवित्र-जीवनवाला बनूँ।

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    विषय

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    भावार्थ

    जिस प्रकार (तिरः) तिरछे रूप से थामे हुए (पवित्रं) दशा पवित्र नामक वस्न खण्ड पर (एते) ये (आशवः) शीघ्र गति करने हारे सोम ओषधि के रस (विश्वानि) समस्त (सौभगा) सौभाग्यों को (अभि) प्राप्त करने के लिये (असृग्रम्) छोड़े जाते हैं, प्रवाहित किये जाते हैं। उसी प्रकार (आशवः) व्यापनशील (इन्दवः) आह्लादकारक, आनन्द रस (एते) ये (तिरः) सत्स्वरूप, (पवित्रं) शुद्ध, मलादि दोषों से रहित चित्त में (विश्वानि सौभगानि अभि) समस्त ऐश्वर्यों के साक्षात् करने के लिये (असृग्रम्) प्रवाहित होते हैं। इस मन्त्र से समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई ऐसा बहुतसे विद्वानों का मत है। तदनुसार सृष्टि प्रकरण में (आशवः) गतिशील (इन्दवः) प्रकाशमान पिण्ड (एते) ये सब (विश्वानि सौभगानि अभि) समस्त ऐश्वर्यों को साक्षात् प्रकट करने के लिये (तिरः पवित्रम्) सत्स्वरूप, परम ब्रह्मरूप मूलकारण से (असृग्रम्) उत्पन्न होते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमायामृचि उपासकव्यवहारमाह।

    पदार्थः

    (एते) इमे (तिरः) तिरश्चीनगत्या (आशवः) आशु अग्रगामिनः (इन्दवः) तेजस्विनः उपासकाः (पवित्रम्) पवित्रव्यवहारम् (असृग्रम्) असृजन् सृजन्ति। [सृज विसर्गे धातोः लडर्थे लङि प्रथमपुरुषबहुवचने असृजन् इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः, वर्णव्यत्ययेन जकारस्य गकारः, नकारस्य च मकारः।] अत एव (विश्वानि) सर्वाणि (सौभगा) सौभगानि, सौभाग्यानि (अभि) अभिप्राप्नुवन्ति ॥१॥

    भावार्थः

    जगदीश्वरोपासनया स्वहृदयं पवित्रं कृत्वा समाजे सर्वान् प्रति पवित्रो व्यवहारश्चेत् क्रियते तर्हि नूनं सर्वाणि सौभाग्यानि प्राप्यन्ते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These rapid exhilarating juices of joy flow in the true, pure heart to bring us all felicities.

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    Meaning

    These vibrant forces of humanity dedicated to peace and joy for all, above pettiness and negativities, move on with noble work for humanity toward the achievement of all wealth, honour and excellence. (Rg. 9-62-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एते आशवः इन्दवः) એ વ્યાપનશીલ આનંદરસ ભરેલ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (तिरः पवित्रम् असृग्रम्) અન્તર્હિત-અંદર પવિત્ર હૃદયમાં સજાવાય છે-પ્રકટ-પ્રત્યક્ષ કરવામાં આવે છે. જે ધ્યાની ઉપાસકો દ્વારા (विश्वानि सौभगा अभि) સમસ્ત સુભગ ધર્મોને પ્રાપ્ત કરવા માટે. (૧)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસક આનંદરસપૂર્ણ વ્યાપનશીલ શાન્ત પરમાત્માનો અંદર હૃદયમાં સાક્ષાત્ કરે છે. સમસ્ત સૌભાગ્ય પ્રાપ્તિનો લક્ષ્ય કરીને. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वराच्या उपासनेने आपल्या हृदयाला पवित्र करून समाजात सर्वांबरोबर पवित्र व्यवहार जर केला तर निश्चयपूर्वक सर्व सौभाग्य प्राप्त होते. ॥१॥

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