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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 837
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    28

    सं꣡वृ꣢क्तधृष्णु꣣꣬मुक्थ्यं꣢꣯ म꣣हा꣡म꣢हिव्रतं꣣ म꣡द꣢म् । श꣣तं꣡ पुरो꣢꣯ रुरु꣣क्ष꣡णि꣢म् ॥८३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं꣡वृ꣢꣯क्तधृष्णुम् । सं꣡वृ꣢꣯क्त । धृ꣣ष्णुम् । उक्थ्य꣢म् । म꣣हा꣡म꣢हिव्रतम् । म꣣हा꣢ । म꣣हिव्रतम् । म꣡द꣢꣯म् । श꣣त꣢म् । पु꣡रः꣢꣯ । रु꣣रु꣡क्षि꣢णम् ॥८३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवृक्तधृष्णुमुक्थ्यं महामहिव्रतं मदम् । शतं पुरो रुरुक्षणिम् ॥८३७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संवृक्तधृष्णुम् । संवृक्त । धृष्णुम् । उक्थ्यम् । महामहिव्रतम् । महा । महिव्रतम् । मदम् । शतम् । पुरः । रुरुक्षिणम् ॥८३७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 837
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में राजा और परमात्मा को विशेषित किया गया है।

    पदार्थ

    (संवृक्तधृष्णुम्) काम, कोध्र आदि आन्तरिक अथवा बाह्य धर्षणशील शत्रुओं को नष्ट करनेवाले, (उक्थ्यम्) प्रशंसायोग्य, (महामहिव्रतम्) अतिशय पूजनीय कर्मोंवाले, (मदम्) आनन्दजनक, (शतं पुरः) सौ शत्रु-नगरियों को (रुरुक्षणिम्) तोड़-फोड़ देने के लिए कृतसंकल्प पवमान सोम को अर्थात् पवित्रकर्ता जगदीश्वर वा राजा को, हम (ईमहे) प्राप्त करते हैं। [यहाँ ‘ईमहे’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है ] ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर आन्तरिक रिपुओं को नष्ट करता, प्रशंसनीय कर्म करता और अपने उपासकों को आनन्दित करता है, वैसे ही राजा सब विघ्नकारी शत्रुओं को उच्छिन्न करके राज्य की उन्नतिवाले कर्म करके प्रजाओं को आनन्दित करे ॥२॥

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    पदार्थ

    (संवृक्तधृष्णुम्) सम्यक् पृथक् हो जाते हैं धर्षणशील काम आदि जिस से ऐसे (महामहिव्रतम्) महान्—अनेक महत्त्वपूर्ण कर्म जिसके हैं ऐसे—(उक्थ्यं मदम्) प्रशंसनीय—हर्षकर—आनन्दप्रद (शतं पुरः-रुरुक्षणिम्) बहुत—असंख्य उपासकों आत्माओं को “आत्मा वै पूः” [श॰ ७.५.२.२१] रोहण—आरोहण—मोक्ष में आरूढ़ कराने वाले शान्तस्वरूप परमात्मा को हम प्राप्त करें।

    भावार्थ

    जो शान्तस्वरूप परमात्मा हम उपासकों के अन्दर से काम आदियों को पृथक् कर देता है तथा जो महान् प्रशंसनीय कर्म करने वाला आनन्दप्रद है और जो असंख्य उपासक आत्माओं को मोक्ष में स्थापित करता है उसको हम उपासक प्राप्त करते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    उत्तम-प्रार्थना

    पदार्थ

    (संवृक्तधृष्णुम्) = [वृजी वर्जने, धृष्णु शत्रु] = दूर किये हैं कामादि शत्रु जिसने, (उक्थ्यम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय (महामहिव्रतम्) = बड़े-बड़े महनीय व्रतोंवाले (मदम्) = आनन्दमय तथा (शतं पुरः) = सैकड़ों देहरूप नगरियों को (रुरुक्षणिम्) = [रुजो भंगे] नष्ट करनेवाले आपकी हे प्रभो ! (सुकृत्यया ईमहे) = [ये दोनों शब्द पिछले मन्त्र से अनुवृत्त हो रहे हैं] उत्तम पुरुषार्थ के साथ हम याचना करते हैं । वस्तुत: जिन

    गुणों की प्रार्थना करनी होती है उन्हीं गुणों से विशिष्ट प्रभु का स्तवन चलता है, अतः प्रार्थना का स्वरूप यह है कि मैं शत्रुओं — काम आदि वासनाओं को जीत जाऊँ, मेरा जीवन प्रशस्य हो, मैं महनीय व्रतोंवाला बनूँ, मेरा जीवन उल्लासमय हो और मैं इन शतशः बन्धनों का तोड़नेवाला बनूँ। 

    भावार्थ

    हम पुरुषार्थ से बन्धनों को तोड़कर प्रभु को प्राप्त करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    और पुनः (संवृक्तधृष्णुं) आत्मा का घर्षण करने हारे काम क्रोधादि नाना शत्रुओं का मूल काट डालने वाले, (उक्थ्यं) वेदमन्त्रों से स्तुति करने योग्य, (महामहिव्रतं) बड़े भारी पूजनीय कर्म करने वाले, (शतं पुरः) सैकड़ों देहों के समान ब्रह्माण्डों के भोक्ता, या सैंकडों देहधारियों को (रुरुक्षिणं) उच्च लोक-मोक्ष में उठा लेने वाले आपको हम प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं राजानं च विशिनष्टि।

    पदार्थः

    (संवृक्तधृष्णुम्) संवृक्ताः संछिन्नाः धृष्णवो धर्षणशीलाः कामक्रोधाद्या आन्तरा बाह्या वा रिपवो येन तम्, (उक्थ्यम्) प्रशंसार्हम्, (महामहिव्रतम्) अतिशयपूजनीयकर्माणम्, (मदम्) आनन्दजनकम्, (शतं पुरः) शतसंख्यकाः शत्रुनगरीः (रुरुक्षणिम्) भङ्क्तुं कृतसंकल्पम्।[रुजो भङ्गे सन्नन्तः। बाहुलकाद् औणादिकः अनिप्रत्ययः। आङि शुषेः सनश्छन्दसि उ० २।१०५ आशुशुक्षणिः इति वत्।] पवमानं पवित्रकर्तारं सोमं जगदीश्वरं राजानं वा वयम् (ईमहे) प्राप्नुमः। [अत्र ‘ईमहे’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते] ॥२॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वर आन्तरान् सपत्नान् हिनस्ति, प्रशंसनीयानि कर्माणि करोति, स्वोपासकानानन्दयति च तथैव राजा सर्वान् विघ्नकरान् शत्रूनुच्छिद्य राज्योन्नतिकराणि कर्माणि कृत्वा प्रजा आनन्दयेत् ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४८।२।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    We win God, the Crusher of the enemies of lust and anger. Worthy of praise, the Doer of mighty deeds, the Gladdener of humanity, the Elevator of hundreds of human beings to the stage of salvation.

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    Meaning

    We worship you, eliminator of arrogance and pride, adorable, observer of lofty vows of discipline, inspiring, and breaker of a hundred strongholds of darkness. (Rg. 9-48-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (संवृक्त धृष्णुम्) જેનાથી ધર્ષણશીલ કામ આદિ સમ્યક્ પૃથક્ થઈ જાય છે એવા, (महामहिव्रतम्) મહાન-જેના અનેક મહત્ત્વપૂર્ણ કર્મ છે એવા, (उक्थ्यं मदम्) પ્રશંસનીય-હર્ષકર-આનંદપ્રદ (शतं पुरः रुरुक्षणिम्) બહુજ-અસંખ્ય ઉપાસકો-આત્માઓને રોહણ-આરોહણ-મોક્ષમાં આરૂઢ કરાવનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને અમે પ્રાપ્ત કરીએ. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા અમારી-ઉપાસકોની અંદરથી કામ આદિને પૃથક્ કરી દે છે; તથા જે મહાન, પ્રશંસનીય કર્મ કરનાર આનંદપ્રદ છે; અને જે અસંખ્ય ઉપાસક આત્માઓને મોક્ષમાં સ્થાપિત કરે છે, તેને અમે ઉપાસકો પ્રાપ્ત કરીએ છીએ. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे जगदीश्वर आंतरिक रिपूंना नष्ट करतो, प्रशंसनीय कर्म करतो व आपल्या उपासकांना आनंदित करतो तसेच राजाने सर्व विघ्नकारी शत्रूंचा उच्छेद करून राज्याची उन्नती होईल असे कर्म करून प्रजेला आनंदित करावे. ॥२॥

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