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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 839
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    22

    अ꣡धा꣢ हिन्वा꣣न꣡ इ꣢न्द्रि꣣यं꣡ ज्यायो꣢꣯ महि꣣त्व꣡मा꣢नशे । अ꣣भिष्टिकृ꣡द्विच꣢꣯र्षणिः ॥८३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡ध꣢꣯ । हि꣡न्वानः꣢ । इ꣣न्द्रिय꣢म् । ज्या꣡यः꣢꣯ । म꣣हित्व꣢म् । आ꣣नशे । अभिष्टिकृ꣢त् । अ꣣भिष्टि । कृ꣢त् । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः ॥८३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा हिन्वान इन्द्रियं ज्यायो महित्वमानशे । अभिष्टिकृद्विचर्षणिः ॥८३९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अध । हिन्वानः । इन्द्रियम् । ज्यायः । महित्वम् । आनशे । अभिष्टिकृत् । अभिष्टि । कृत् । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः ॥८३९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 839
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    (अध) और यह बात भी है कि वह पवमान सोम अर्थात् पवित्रता देनेवाला जगत्स्रष्टा परमात्मा (इन्द्रियम्) आँख आदि इन्द्रिय को अथवा आत्मबल को (हिन्वानः) प्रेरित करता हुआ (ज्यायः) अत्यन्त प्रशस्त (महित्वम्) महत्त्व को (आनशे) प्राप्त करता है। वही (अभिष्टिकृत्) अभीष्ट प्रदाता और (विचर्षणिः) विशेषरूप से सबका साक्षात् द्रष्टा है ॥४॥

    भावार्थ

    जो मन, आँख, कान आदि में मनन करने, देखने, सुनने आदि के सामर्थ्य को तथा आत्मा में बल को निहित करता है, उस कामना पूर्ण करनेवाले, विश्वद्रष्टा परमात्मा का महत्त्व सबको जानना चाहिए ॥४॥

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    पदार्थ

    (अध) पुनः (ज्यायः-इन्द्रियं हिन्वानः) ज्येष्ठ इन्द्रिय अर्थात् मन को प्रेरित करता हुआ (महित्वम्-आनशे) मेरे द्वारा पूजन सत्कार को प्राप्त होता है (अभिष्टिकृत्-विचर्षणिः) तू कामना पूर्ण करने वाला विशेष कृपादृष्टि रखने वाला है।

    भावार्थ

    शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक के मन या अन्तःकरण को प्रेरित करता हुआ—कामनापूरक और कृपादृष्टि करने वाला होने से हमारे द्वारा पूजा पात्रता को प्राप्त है॥४॥

    विशेष

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    विषय

    महान् महिमा

    पदार्थ

    हे जीव ! ('दिवः रयि:') = ज्ञान का प्रकाश तो तुझे प्राप्त होता ही है । (अध) = अब (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति – बल को (हिन्वान:) = प्राप्त करता हुआ तू (ज्याय: महित्वम्) = उत्कृष्ट महत्त्व को (आनशे) = प्राप्त करता है।‘ब्रह्म’ के साथ ‘क्षत्र' के मिल जाने से सोने में सुगन्ध हो जाती है। (अभिष्टिकृत्) = इस ब्रह्म व क्षत्र के मेल से तू सब अभीष्टों को – सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला होता है। अथवा [अभिष्टि worship] तू सच्ची उपासना करनेवाला होता है तथा (विचर्षणिः) = तू विशिष्ट द्रष्टावस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाला होता है। ब्रह्म और क्षत्र का मेल ही ज्ञान और क्रिया का समन्वय है । अकेला ज्ञान पङ्गु है, अकेली क्रिया अन्धी। दोनों का सम्बन्ध मानव-जीवन को पङ्गुत्व व अन्धत्व से ऊपर उठाकर प्रकाशमय व क्रियाशील बनाता है, इसी से उसे महा महिमा प्राप्त होती
    है।

    भावार्थ

    हम ब्रह्म व क्षत्र का मेल करते हुए अपने जीवन को महत्त्वशाली बनाएँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अथ) और (विचर्षणिः) सब संसार का द्रष्टा, निरीक्षक तू (अभिष्टिकृद्) सबको अभीष्ट कर्मफल देने वाला होकर (इन्द्रियं) इन्द्र अर्थात् जीवात्मा से युक्त देहों को प्रेरित करता हुआ (ज्यायः) बहुत बड़े (महित्वं) महान् सामर्थ्य को (आनशे) धारण करता है। अथवा (इन्द्रियं ज्यायः महित्वम् आनशे) परमैश्वर्य युक्त, सबसे अधिक बड़े महान् सामर्थ्य को प्राप्त है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (अध) अथ, स पवमानः सोमः पवित्रतादायकः जगत्स्रष्टा परमात्मा (इन्द्रियम्) चक्षुरादि इन्द्रियम् आत्मबलं वा। [इन्द्रस्य आत्मनः लिङ्गम्, इन्द्रेण आत्मना जुष्टं वा इन्द्रियम्। ‘इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्ट०। अ० ५।२।९३’ इत्यनेन घच्प्रत्ययान्तो निपातः।] (हिन्वानः) प्रीणयन् प्रेरयन्। [हिवि प्रीणनार्थः। यद्वा हि गतौ वृद्धौ च स्वादिः। आत्मनेपदं छान्दसम्।] (ज्यायः) अतिप्रशस्तम् (महित्वम्) महत्त्वम् (आनशे) प्राप्नोति। स एव (अभिष्टिकृत्) अभीष्टप्रदः। [अभिपूर्वाद् इषु इच्छायाम् इति धातोः क्तिनि अभीष्टि इति प्राप्ते ‘एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्’ इति वार्तिकेन पररूपम्।] (विचर्षणिः) विशेषेण सर्वेषां साक्षाद् द्रष्टा च अस्ति। [विचर्षणिः पश्यतिकर्मा। निघं० ३।११] ॥४॥

    भावार्थः

    यो मनश्चक्षुःश्रोत्रादिषु मननदर्शनश्रवणादिसामर्थ्यमात्मनि च बलं निदधाति तस्य कामपूरकस्य विश्वद्रष्टुः परमात्मनो महत्त्वं सर्वैर्ज्ञातव्यम् ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४८।५।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, the Seer and Supervisor of the universe, the Giver of the fruit of action to all, impelling the bodies coupled with souls, possesses mighty power.

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    Meaning

    And so, the inspirer of the power of senses, mind and intelligence, giver of fulfilment to the devotees, all watching Soma, divine Spirit of peace, power and enlightenment, pervades and abides in and over existence as the supreme power of divine glory. (Rg. 9-48-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अधः) પુનઃ (ज्यायः इन्द्रियं हिन्वानः) જ્યેષ્ઠ ઇન્દ્રિય અર્થાત્ મનને પ્રેરિત કરતાં (महित्वम् आनशे) મારા દ્વારા પૂજન સત્કારને પ્રાપ્ત થાય છે (अभिष्टिकृत् विचर्षणिः) તું કામના પૂર્ણ કરનાર વિશેષ કૃપા દૃષ્ટિ રાખનાર છે. (૪)


     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉપાસકનાં મન અર્થાત્ અન્તઃકરણને પ્રેરિત કરતાં-કામનાપૂરક અને કૃપાદૃષ્ટિ કરનાર હોવાથી અમારા દ્વારા પૂજા પાત્રતાને પ્રાપ્ત છે. (૪)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो मन, नेत्र, कान इत्यादींमध्ये मनन करणे, पाहणे, ऐकणे इत्यादींच्या सामर्थ्याला व आत्म्यामध्ये बलाला निहित करतो. ती कामना पूर्ण करणाऱ्या विश्वद्रष्टा परमात्म्याचे महत्त्व सर्वांनी ओळखले पाहिजे, जाणले पाहिजे. ॥४॥

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