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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 866
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    29

    क꣡ण्वे꣢भिर्धृष्ण꣣वा꣢ धृ꣣ष꣡द्वाजं꣢꣯ दर्षि सह꣣स्रि꣡ण꣢म् । पि꣣श꣡ङ्ग꣢रूपं मघवन्विचर्षणे म꣣क्षू꣡ गोम꣢꣯न्तमीमहे ॥८६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क꣡ण्वे꣢꣯भिः । धृ꣣ष्णो । आ꣢ । धृ꣣ष꣢त् । वा꣡ज꣢꣯म् । द꣣र्षि । सहस्रि꣡ण꣢म् । पि꣣श꣡ङ्ग꣢रूपम् । पि꣣श꣡ङ्ग꣢ । रू꣣पम् । मघवन् । विचर्षणे । वि । चर्षणे । मक्षू । गो꣡म꣢꣯न्तम् । ई꣣महे ॥८६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कण्वेभिर्धृष्णवा धृषद्वाजं दर्षि सहस्रिणम् । पिशङ्गरूपं मघवन्विचर्षणे मक्षू गोमन्तमीमहे ॥८६६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कण्वेभिः । धृष्णो । आ । धृषत् । वाजम् । दर्षि । सहस्रिणम् । पिशङ्गरूपम् । पिशङ्ग । रूपम् । मघवन् । विचर्षणे । वि । चर्षणे । मक्षू । गोमन्तम् । ईमहे ॥८६६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 866
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (धृष्णो) अविद्या, दोष आदि को दूर करने के स्वभाववाले परमात्मन् वा आचार्य ! (कण्वेभिः) मेधावी विद्वानों के द्वारा (धृषन्) अविद्या, दीनता आदि को दूर करते हुए आप (सहस्रिणम्) संख्या में हजार (वाजम्) विद्या आदि धन को (आ दर्षि) प्रदान करते हो। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन्, (विचर्षणे) सर्वद्रष्टा परमात्मन् वा शास्त्रद्रष्टा आचार्य ! (पिशङ्गरूपम्) पीले रंगवाले वा तेजस्वी रूपवाले, (गोमन्तम) उत्तम वाणी, गाय, भूमि आदि से युक्त (वाजम्) सुवर्णरूप वा ब्रह्मचर्यरूप धन को, हम (मक्षु) शीघ्र ही (ईमहे) आपसे चाहते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा और गुरु सुयोग्य उपासकों और शिष्यों को सब सोना, मणि, मोती, गाय आदि तथा विद्या, ब्रह्मचर्य, सदाचार आदि विशाल ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (धृष्णो विचर्षणे मघवन्) हे दोषनिवारक विशेषद्रष्टा ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (कण्वेभिः) मेधावी उपासकों को लक्ष्य कर “कण्वो मेधावी” [निघं॰ ३.१५] (सहस्रिणं वाजं धृषत्-अदर्षि) सहस्रों में गिना जाने वाला सहस्रों के तुल्य बढ़े चढ़े दबाने वाले सताने वाले विरोधिबल वासनाबल को चकनाचूर छिन्न भिन्न कर दे, पुनः (पिशङ्गरूपं गोमन्तं मक्षु-ईमहे) स्तुति वाणियों वाले—स्तुतियों के फलभूत तेरे सुनहरे रूप ज्ञानानन्दरूप को शीघ्र चाहते हैं “मक्षु क्षिप्र नाम” [निघं॰ २.१५] “ईमहे याञ्चाकर्मा” [निघं॰ ३.१९]।

    भावार्थ

    दोषनिवारक अन्तर्द्रष्टा ऐश्वर्यवान् परमात्मा मेधावी उपासकों के अन्दर से सहस्रों में बढ़े चढ़े विरोधी कामवासनाबल को छिन्न भिन्न कर देता है और स्तुतियों के फलभूत अपने सुनहरे ज्ञानानन्दरूप को प्रदान करता है जिसकी उपासक शीघ्र प्रार्थना करते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वासना-विनाश अथवा विकसित मुख-मुद्रा

    पदार्थ

    (धृष्णो) = अपनी उपस्थिति से हमारी सब वासनाओं का धर्षण करनेवाले प्रभो ! (मघवन्) = ज्ञानैश्वर्यसम्पन्न अथवा [मघ= मख] यज्ञरूप प्रभो ! हे (विचर्षणे) = विशेष द्रष्टः प्रभो ! आप (कण्वेभिः) = मेधावी पुरुषों के द्वारा (मक्षू) = शीघ्र ही हमें (वाजम्) = उस ज्ञानरूप शक्ति को दर्षि देते हैं जो १. (आधृषत्) = हमारे जीवनों में वासनाओं का समन्तात् धर्षण करती है और (सहस्त्रिणम्) = हमें सदा विकसित मुख-मुद्रा से [हस्र — विकास, स-सहित] युक्त करती है । ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करके ज्ञान के दो परिणामों को हम अपने जीवनों में अनुभव करते हैं, एक तो यह कि हम अपने passions का – उत्तेजनाओं का धर्षण कर पाते हैं और दूसरी यह कि यह हमें सुख-दुःखमय इस संसार में निर्लेपभाव से रहने के योग्य, अतएव सदा विकसित मुख-मुद्रामय जीवनवाला बनाता है । हे प्रभो ! हम तो आपसे इसी (गोमन्तम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाले [गाव: इन्द्रियाणि] उत्तम वेदवाणियोंवाले [गाव: वेदवाच:] उत्तम ज्ञानरश्मियोंवाले [गाव:= रश्मयः] (पिशंगरूपम्) = [पिश अवयवे, पिश-पीस डालना] वासनाओं को चूर्णीभूत कर डालनेवाले ज्ञान को ही ईमहे - माँगते हैं । इसी ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं ।

    भावार्थ

    प्रभु की कृपा से प्रभुनिष्ठ, ज्ञान-कणों के संग्रहीता आचार्यों से ज्ञान कणों का संग्रह करके हम भी वासना - विनाश के द्वारा 'मेध्यातिथि काण्व' बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (मघवन् !) सम्पूर्ण धनों और यज्ञों के स्वामिन् ! हे (विचर्षणे !) समस्त संसार के द्रष्टः ! हे (धृष्णो) सहनशील ! समस्त संसार के भार को वहन करने हारे! सब कष्टों और दुष्टों को दूर करने हारे ! आप (कण्वेभिः) मेधावी पुरुषों के निमित्त (सहस्रिणम्) सहस्रों ऐश्वर्या से युक्त (धृषद) बाधक विरोधियों को पराजित करने वाले (वाजं) बल को (आदर्षि) देते हैं। उस ही (पिशङ्गरूपं) अत्यन्त मनोहर, पीतवर्ण के, सुवर्ण आदि और (गोमन्तम्) गौ आदि पशुओं से युक्त (वाजं) धन की (मक्षू) निरन्तर हम (ईमहे) याचना करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानमाचार्यं च प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (धृष्णो) अविद्यादोषादिधर्षणशील परमात्मन् आचार्य वा ! (कण्वेभिः) मेधाविभिर्विद्वद्भिः (धृषन्) अविद्यादैन्यादिकं धर्षयन् त्वम् (सहस्रिणम्) सहस्रसंख्याकम् (वाजम्) विद्यादिधनम् (आ दर्षि) प्रयच्छ। [आङ्पूर्वाद  विदारणे क्र्यादिः। ततो लोटि सिपि ‘बहुलं छन्दसि’ अ० २।४।७३ इति विकरणस्य लुक्।] हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् (विचर्षणे२) सर्वद्रष्टः परमात्मन् शास्त्रद्रष्टः आचार्य वा ! (पिशङ्गरूपम्) पिङ्गलवर्णं तेजोमयं वा, (गोमन्तम्) उत्तमवाग्धेनुपृथिव्यादियुक्तं च (वाजम्) सुवर्णाख्यं ब्रह्मचर्याख्यं वा धनम्, वयम् (मक्षु) सद्य एव (ईमहे) याचामहे। [ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९] ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मा गुरुश्च सुयोग्यानुपासकान् शिष्यांश्च प्रति सर्वं सुवर्णमणिमुक्ताधेन्वादिकं विद्याब्रह्मचर्यसद्वृत्तादिकं च विपुलमैश्वर्यं प्रापयतः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।३३।३, अथ० २०।५२।३, ५७।१६। २. विचर्षणे विविधाश्चर्षणयः पुरुषा यस्य स विचर्षणिः अथवा विश्वस्य द्रष्टा—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Wealthy, All-seeing, Patient God, Thou grandest to the wise, a thousand kind of foe-subduing power. We constantly pray for charming wealth of knowledge !

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    Meaning

    Indra, lord of universal vision, resolute will and irresistible action, ruler and commander of the worlds wealth, power and force, we pray, conceive, plan and bring about for the intelligent people of action and ambition a social order of golden beauty and progressive achievement, full of a hundred-fold prosperity of lands and cows, education and culture, and invincible will, strength and advancement free from indecision and delay in action. (Rg. 8-33-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (धृष्णो विचर्षणे मघवन्) હે દોષ-નિવારક વિશેષ દ્રષ્ટા ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (कण्वेभिः) મેધાવી ઉપાસકોને (सहस्रिणं वाजं धृषत् अदर्षि) હજારોમાં ગણનારા હજારોની સમાન ખૂબજ દબાવનાર સતાવનાર વિરોધી બળ વાસનાબળને ચકનાચૂર છિન્ન-ભિન્ન કરી દે, પુનઃ (पिषङ्गरूपं गोमन्तं मक्षु ईमहे) સ્તુતિ વાણીઓ વાળા-સ્તુતિઓનાં ફળભૂત તારા સોનેરી રૂપ જ્ઞાનાનંદ રૂપને શીઘ્ર ચાહે છે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : દોષ નિવારક, અન્તર્દ્રષ્ટા, ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા મેધાવી ઉપાસકોની અંદરથી હજારોમાં વધેલાં વિરોધી કામવાસના બળને છિન્ન-ભિન્ન કરી દે છે અને સ્તુતિઓનાં ફળભૂત પોતાનાં સોનેરી જ્ઞાનાનંદરૂપને પ્રદાન કરે છે. જેની ઉપાસક શીઘ્ર પ્રાર્થના કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा व गुरू सुयोग्य उपासकांना व शिष्यांना सोने, मणी, मोती, गाय इत्यादी व विद्या, ब्रह्मचर्य, सदाचार इत्यादी विशाल ऐश्वर्य प्राप्त करवितात. ॥३॥

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