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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 870
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
26
अ꣣भि꣡ ब्रह्मी꣢꣯रनूषत य꣣ह्वी꣢रृ꣣त꣡स्य꣢ मा꣣त꣡रः꣢ । म꣣र्ज꣡य꣢न्ती꣣र्दिवः꣡ शिशु꣢꣯म् ॥८७०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । ब्र꣡ह्मीः꣢꣯ । अ꣣नूषत । यह्वीः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । मा꣣त꣡रः꣢ । म꣣र्ज꣡य꣢न्तीः । दि꣣वः꣢ । शि꣡शु꣢꣯म् ॥८७०॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि ब्रह्मीरनूषत यह्वीरृतस्य मातरः । मर्जयन्तीर्दिवः शिशुम् ॥८७०॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । ब्रह्मीः । अनूषत । यह्वीः । ऋतस्य । मातरः । मर्जयन्तीः । दिवः । शिशुम् ॥८७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 870
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में वेदवाणी का और चन्द्रमा का विषय वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—वेदवाणी के पक्ष में। (यह्वीः) महत्त्वशालिनी, (ऋतस्य मातरः) सत्यज्ञान का निर्माण करनेवाली, (दिवः शिशुम्) तेजस्वी परमात्मा के पुत्र मानव को (मर्जयन्तीः) शुद्ध-पवित्र करती हुई (ब्रह्मीः) ब्रह्मा से प्रोक्त वेदवाणियाँ (अभि अनूषत) गुण-वर्णन द्वारा सब पदार्थों की स्तुति करती हैं ॥ द्वितीय—चन्द्र के पक्ष में। (यह्वीः) महान् (ऋतस्य मातरः) वृष्टि-जल का निर्माण करनेवाली, (मर्जयन्तीः) अपने प्रकाश द्वारा सबका शोधन करनेवाली या सबको अलङ्कृत करनेवाली (ब्रह्मीः) महान् सूर्य की कान्तियाँ (दिवः शिशुम्) आकाश के शिशु के समान विद्यमान चन्द्रमा को (अभि) लक्ष्य करके अर्थात् उसे प्रकाशित करने के लिए (अनूषत) जाती हैं ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। द्वितीय व्याख्या में चन्द्रमा को ‘आकाश का शिशु’ कहने में लुप्तोपमा है ॥२॥
भावार्थ
जैसे माताएँ शिशु को प्राप्त होती हैं, वैसे ही वेदवाणियाँ गुणवर्णन द्वारा सब पदार्थों को प्राप्त होती हैं और सूर्यकिरणें चन्द्रमा को प्रकाशित करने के लिए उसे प्राप्त होती हैं ॥२॥
पदार्थ
(यह्वीः) महत्त्वपूर्ण (ब्राह्मीः) ब्रह्म—वेद सम्बन्धी (ऋतस्य मातरः) सत्य का स्वरूप प्रकट कराने वाली (दिवः शिशुं मर्जयन्तीः) अमृतधाम में शयन करने वाले परमात्मा को प्राप्त करने के हेतु “मर्जयन्त गमयन्तः” [निरु॰ १२.४३] (अभि-अनूषत) अभिमुखता से स्तुति करती है।
भावार्थ
वेद में कही सत्य का स्वरूप दर्शाने वाली महत्त्वपूर्ण वाणियाँ अमृतधाम में वर्तमान परमात्मा के प्राप्त कराने हेतु उसकी पूर्ण स्तुति करती हैं, उनका सेवन करना चाहिये॥२॥
विशेष
<br>
विषय
सत्य की निर्मात्री वेदवाणियाँ
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णित (‘तिस्रो वाचः') = ऋग्यजुसामरूप तीन प्रकार की वेदवाणियाँ (दिवः) = ज्ञान के (शिशुम्) = तीव्र करनेवाले [शो तनूकरणे], ज्ञान-दीप्ति प्राप्त करानेवाले अथवा ज्ञान से हृदय में प्रकाशित होने के कारण ज्ञान के पुञ्जरूप उस प्रभु को (अभ्यनूषत) = स्तुत करती हैं। ('सर्वे वदा यत् पदमामनन्ति') = इस वाक्य के अनुसार सब वेदवाणियों का अन्तिम तात्पर्य उस प्रभु में ही है। ये वाणियाँ – १. (ब्रह्मीः) = ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाली, ब्रह्म को प्राप्त करानेवाली हैं, २. (यह्वीः) = [महत्य:] ये वेदवाणियाँ महान् हैं, अर्थगौरव के कारण अत्यधिक महिमावाली हैं । सम्पूर्ण विद्याओं के बीज इनमें निहित हैं, अतः इनकी महत्ता तो सुव्यक्त ही है । ३. (ऋतस्य मातरः) = ये सत्यज्ञान की माताएँ हैं। सम्पूर्ण
सत्यविद्याओं को जन्म देनेवाली हैं। सब विद्याओं के बीज इसमें निहित हैं, वे ही बीज वृक्षरूप से अंकुरित व विकसित होकर हमें प्रभु-प्राप्तिरूप महान् फल को प्राप्त कराते हैं । इस लोक में भी आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' इसके फल हैं। ये फल भी सत्य हैं, परन्तु इसका अन्तिम फल प्रभु-प्राप्ति तो सत्य का भी सत्य है, अत: वेदवाणियाँ सत्य की निर्मात्री हैं। ४. (मर्जयन्तीः) = ये हमारे जीवनों को परिमार्जित – शुद्ध करनेवाली हैं। उस प्रभु के प्रकाश में वासनाओं की मलिनता का सम्भव ही कैसे हो सकता है ? "
भावार्थ
वेदवाणियाँ हमें पवित्र जीवनवाला बनाकर प्रभु का दर्शन करनेवाली हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
(ब्रह्मीः) ब्रह्म वेद की वाणियें (ऋतस्य मातरः) सत्य को ज्ञान कराने हारी (दिवः) आकाश में सूर्य के समान, परम तेज और दिव्यगुणों में ज्ञान के स्वरूप में (शिशुं) शयन करने वाले, व्यापक परमात्मा को (अभि-अनूषत) साक्षात् रूप से स्तुति करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
missing
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वेदवाग्विषयं चन्द्रविषयं चाह।
पदार्थः
प्रथमः—वेदवाग्विषयकः। (यह्वीः) यह्व्यः महत्यः। [यह्व इति महतो नामधेयं यातश्च हूतश्च भवति। निरु० ८।८।] (ऋतस्य मातरः२) सत्यज्ञानस्य निर्मात्र्यः, (दिवः शिशुम्) द्योतमानस्य परमात्मनः पुत्रभूतं मानवम् (मर्जयन्तीः) मर्जयन्त्यः शोधयन्त्यः (ब्रह्मीः) ब्रह्म्यः, ब्रह्मणा प्रोक्ताः वेदवाचः (अभि अनूषत) गुणवर्णनेन सर्वान् पदार्थान् अभिष्टुवन्ति ॥ द्वितीयः—चन्द्रविषयकः। (यह्वीः) महत्यः, (ऋतस्य मातरः) वृष्टिजलस्य निर्मात्र्यः। [ऋतमिति उदकनाम। निघं० १।१२।] (मर्जयन्तीः) प्रकाशेन सर्वान् शोधयन्त्यः अलङ्कुर्वत्यो वा (ब्रह्मीः) ब्रह्मणः महतः सूर्यस्य इमाः, सूर्यसम्बन्धिन्यः दीधितयः (दिवः शिशुम्) आकाशस्य शिशुमिव विद्यमानं चन्द्रम् (अभि) अभिलक्ष्य, तं प्रकाशयितुम् (अनूषत) गच्छन्ति। [नवते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। द्वितीये व्याख्याने ‘दिवः शिशुम्’ इत्यत्र लुप्तोपमम् ॥२॥
भावार्थः
यथा मातरः शिशुमुपगच्छन्ति तथैव वेदवाचः गुणवर्णनद्वारा सर्वान् पदार्थानुपगच्छन्ति, सूर्यरश्मयश्च चन्द्रं प्रकाशयितुं तमुपगच्छन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।३३।५, ‘म॒र्मृ॒ज्यन्ते॑ दि॒वः शिशु॑म्’ इति तृतीयः पादः। २. ऋतस्य यज्ञस्य मातरः निर्मात्र्यः स्तुतयः—इति सा०। मातरः धेनवः आदित्यरश्मयो वा आपो वा—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
Vedic verses, the sacred mothers of great Truth, praise God, Who pervades the atmosphere.
Translator Comment
$दिविशिशुम् has been translated by Griffith a. Soma, the child of heaven. It mean, God, Who pervades the heaven and atmosphere.
Meaning
Holy voices, creators and sustainers of the rule of truth and rectitude, ceaselessly flow around strong, refining and doing honour to the teacher, scholar and learner as they enlighten and sanctify the child of heaven, the rising generation. (Rg. 9-33-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यह्वीः) મહત્ત્વપૂર્ણ (ब्राह्मीः) બ્રહ્મ-વેદ સંબંધી (ऋतस्य मातरः) સત્યનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરનારી (दिवः शिशुं मर्जयन्तीः) અમૃતધામમાં શયન કરનાર પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરવા માટે (अभि अनूषत) અભિમુખતાથી સ્તુતિ કરે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : વેદમાં સર્વ સત્યનું સ્વરૂપ દર્શાવનારી મહત્ત્વપૂર્ણ વાણીઓ અમૃતધામમાં રહેલ પરમાત્માને પ્રાપ્ત કરવા માટે તેની પૂર્ણ સ્તુતિ કરે છે, તેનું સેવન કરવું જોઈએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जशा माता शिशूना प्राप्त करतात, तसेच वेदवाणी गुणवर्णनाद्वारे सर्व पदार्थांचे ज्ञान करविते व सूर्यकिरणे चंद्राला प्रकाशित करण्यासाठी त्याला प्राप्त होतात. ॥२॥
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