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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 890
    ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    24

    प꣡व꣢मान꣣ र꣢स꣣स्त꣢व꣣ म꣡दो꣢ राजन्नदुच्छु꣣नः꣢ । वि꣢꣫ वार꣣म꣡व्य꣢मर्षति ॥८९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡वमा꣢꣯न । र꣡सः꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । म꣡दः꣢꣯ । रा꣣जन् । अदुच्छुनः꣢ । अ꣣ । दुच्छुनः꣢ । वि । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣡व्य꣢꣯म् । अ꣣र्षति ॥८९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पवमान रसस्तव मदो राजन्नदुच्छुनः । वि वारमव्यमर्षति ॥८९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पवमान । रसः । तव । मदः । राजन् । अदुच्छुनः । अ । दुच्छुनः । वि । वारम् । अव्यम् । अर्षति ॥८९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 890
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और आचार्य के विषय का कथन है।

    पदार्थ

    हे (पवमान) जीवन को पवित्र करनेवाले (राजन्) तेजस्वी परमात्मन् वा आचार्य ! जो (तव) आपका (अदुच्छुनः) दुर्गति तथा दुःख न उत्पन्न करनेवाला, (मदः) उत्साहकारी (रसः) आनन्दरस वा ज्ञानरस है, वह (अव्यम्) अविनश्वर, (वारम्) दोषनिवारक आत्मा को (वि अर्षति) विविध रूप में प्राप्त होता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर वा आचार्य से प्रस्रुत आनन्दरस वा विज्ञानरस को प्राप्त करके मनुष्य का आत्मा कृतार्थ हो जाता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (पवमान राजन्) हे धारारूप में प्राप्त होनेवाले प्रकाशमान परमात्मन्! (तव-अदुच्छुनः-मदः-रसः) तेरा विघ्नक्षय पापरहित*20 हर्षकर रस या रसीला हर्ष (अव्यं वारं वि-अर्षति) पार्थिव शरीर*21 आवरक को लांघ कर अन्तरात्मा को प्राप्त होता है, सांसारिकरस विघ्न से क्षय से पाप से रहित नहीं। परमात्मन् तेरा रस विघ्न—बाधा से क्षय से पाप से रहित तथा आनन्दप्रद है, उसे तू उपासक को प्रदान कर—करता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*20. “यो वा अभिचरति योऽभिदासति यः पापं कामयते स वै दुच्छुनः” [जै॰ १.९३]।] [*21. “इयं पृथिवी वाऽविः” [श॰ ३.१.२.३३]।]

    विशेष

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    विषय

    रस-प्रवाह

    पदार्थ

    ‘अमही – यु' = पार्थिव भोगों की अत्यधिक कामना न करनेवाला ‘आङ्गिरस' शक्तिशाली पुरुष प्रभु की ओर झुकाववाला होता है और प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि – १. हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले प्रभो ! (तव रसः) = तेरी प्राप्ति का आनन्द (मदः) = जीवन में एक विशेष उल्लास पैदा करनेवाला है, २. हे (राजन्) = देदीप्यमान् प्रभो ! सारे संसार को व्यवस्थित करनेवाले प्रभो ! [राज दीप्तौ to regulate] तेरी प्राप्ति का रस (अदुच्छुन:) = सब प्रकार के उपद्रवों व दुःखों से रहित है । यह दुःखों के संयोग के वियोगवाला है। इसमें किसी प्रकार का दुःख नहीं है । ३. तेरी प्राप्ति का रस (वारम्) = वासनाओं का निवारण करनेवाले अथवा प्रभु से वरे जानेवाले (अव्यम्) = अपनी रक्षा करनेवालों में उत्तम पुरुष को (वि-अर्षति) = विशेषरूप से प्राप्त होता है । इस ‘अव्य वार' के प्रति ही यह रस प्रवाहित होता है ।

    भावार्थ

    प्रभु-प्राप्ति का रस १. उल्लासजनक है, २. सब प्रकार के दुःख के संयोगों से रहित है और ३. वासनाओं से अपनी रक्षा करनेवाले 'अमहीयु' को प्राप्त होता है ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (पवमान) सर्व व्यापक ! परमपावन परमेश्वर ! (तव) तेरा (रसः) रस, आनन्दमय (मदः) हर्ष कारक (अदुच्छुनः) दुष्ट कुत्ते के समान भोग तृष्णावाली इन्द्रियों के स्पर्श से दूर, अथवा पागल कुत्ते के समान दुःखदायी काम, क्रोध आदि भीतरी शत्रुओं से रहित होकर (अव्यं) आत्मा के (वारं) वरण करने योग्य स्वरूप को (वि अर्षति) व्याप लेता है।

    टिप्पणी

    ‘पवमानस्य रसो’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्माचार्ययोर्विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (पवमान) पवित्रताप्रद (राजन्) तेजस्विन् परमात्मन् आचार्य वा ! यः (तव) त्वदीयः (अदुच्छुनः) न विद्यते दुच्छुना दुर्गतिः दुखं वा येन तादृशः (मदः) उत्साहकरः (रसः) आनन्दरसो ज्ञानरसो वा विद्यते, सः (अव्यम्) अव्ययम् अविनश्वरम् (वारम्) दोषनिवारकम् आत्मानम् (वि अर्षति) विविधं प्राप्नोति ॥२॥

    भावार्थः

    परमेश्वरादाचार्याच्च प्रस्रुतमानन्दरसं विज्ञानरसं च प्राप्य मानवानामात्मा कृतार्थो जायते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६१।१७, ‘पव॑मानस्य ते॒ रसो॒’ इति प्रथमः पादः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Refulgent, Holy God, Thy gladdening, auspicious, felicity flows on to the pure soul free from lust and anger !

    Translator Comment

    $ अदुच्छुनः literary means free from the internal moral demons of lust and anger.

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    Meaning

    O vibrant bliss of the world, the purity, pleasure and ecstasy of yours, versatile and refulgent, radiates over space and time as universal light of divinity for humanity to have a vision of the heaven of bliss. (Rg. 9-61-18)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पवमान राजन्) હે ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પ્રકાશમાન પરમાત્મન્ ! (तव अदुच्छुनः मदः रसः) તારો વિઘ્નનાશક, પાપરહિત, હર્ષકરરસ અર્થાત્ રસવાન હર્ષ-આનંદ (अव्यं वारं वि अर्षति) પાર્થિવ શરીર આવરકને લાંધીને-ટપીને અન્તરાત્માને પ્રાપ્ત થાય છે, સાંસારિક રસ વિઘ્નથી, ક્ષયથી અને પાપથી રહિત હોતો નથી, પરમાત્મન્ તારો રસ વિઘ્ન-બાધાથી, ક્ષયથી, પ્રાપ્તથી રહિત અને આનંદપ્રદ છે, તેને તું ઉપાસકને પ્રદાન કર-કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर किंवा आचार्याकडून प्रस्रुत (क्षरित) झालेला आनंदरस किंवा विज्ञानरस प्राप्त करून माणसाचा आत्मा कृतार्थ होतो. ॥२॥

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