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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 963
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    15

    प्र꣡ प꣢वमान धन्वसि꣣ सो꣡मेन्द्रा꣢꣯य꣣ मा꣡द꣢नः । नृ꣡भि꣢र्य꣣तो꣡ वि नी꣢꣯यसे ॥९६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । प꣣वमान । धन्वसि । सो꣡म꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । मा꣡द꣢꣯नः । नृ꣡भिः꣢꣯ । य꣣तः꣢ । वि । नी꣣यसे ॥९६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र पवमान धन्वसि सोमेन्द्राय मादनः । नृभिर्यतो वि नीयसे ॥९६३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । पवमान । धन्वसि । सोम । इन्द्राय । मादनः । नृभिः । यतः । वि । नीयसे ॥९६३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 963
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा को सम्बोधन है।

    पदार्थ

    हे (पवमान) पवित्रता करनेवाले (सोम) आनन्दरस के भण्डार परमात्मन् ! (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (मादनः) आनन्ददायक आप (प्र धन्वसि) उसे प्राप्त होते हो। (नृभिः) उपासक नरों से (यतः) ध्यान किये हुए आप (वि नीयसे) विशेष रूप से हृदयप्रदेश में ले जाये जाते हो ॥३॥

    भावार्थ

    अरणियों में व्याप्त भी अग्नि प्रकट होने के लिए मन्थन की अपेक्षा रखता है, वैसे ही हृदय और जीवात्मा में पहले से ही विद्यमान भी परमेश्वर प्रकट होने के लिए ध्यान की अपेक्षा करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (पवमान सोम) धारारूप में प्राप्त होने वाले शान्तस्वरूप परमात्मन्! (मादनः) हर्षित करता हुआ (इन्द्राय प्रधन्वसि) उपासक आत्मा के लिए प्रकृष्ट रूप से प्राप्त होता है (नृभिः-यतः) मुमुक्षुजनों*10 से संयत—योगसाधन द्वारा अभ्यस्त किया हुआ (विनीयसे) अपनी ओर प्राप्त किया जाता है—साक्षात् धारण किया जाता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*10. “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९]।]

    विशेष

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    विषय

    प्रभु की ओर

    पदार्थ

    (पवमान) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले ! २. (सोम) = सौम्य स्वभाववाले ! तू ३. (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की (प्रधन्वसि) = ओर जाता है। प्रभु-प्राप्ति के लिए 'पवित्रता व सौम्यता' का मिश्रण आवश्यक है । ४. (मादन:)= [हर्षण:] ऐसा व्यक्ति सदा स्वयं प्रसन्न होता है तथा औरों को प्रसन्न करता है ।

    'यह ऐसा बन कैसे पाया ?' इसका उत्तर है कि (यतः) = क्योंकि यह (नृभिः) = [नृ नये] उन्नतिपथ पर आगे और आगे ले-चलनेवाले माता-पिता-आचार्य व अतिथियों से (विनीयते) = विनीत बनाया जाता है। जिस भी व्यक्ति को उत्तम माता-पिता व आचार्य प्राप्त होते हैं, वही ज्ञानी बनता है ।

    भावार्थ

    माता-पिता व आचार्यों से विनीत बनाये जाकर हम प्रभु को प्राप्त करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (पवमान) गतिशील ! हे (सोम) विद्वन शिष्य ! तू (इन्द्राय) आचार्यरूप इन्द्र के लिये (मादनः) अति प्रसन्नता का कारण होता हुआ (प्र धन्वसि) उत्तम दशा को, उत्तम ज्ञान को प्राप्त हो और (नृभिः) सन्मार्ग के नेता गुरुओं द्वारा (यतः) नियमों में व्यवस्थित होकर (वि नीयसे) विनयपूर्वक शिक्षित किया जावे।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं सम्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (पवमान) पवित्रतां कुर्वाण (सोम)आनन्दरसागार परमात्मन् ! (इन्द्राय) जीवात्मने (मादनः) आनन्दकरः त्वम् (प्र धन्वसि) तं प्राप्नोषि। (नृभिः) उपासकैः नरैः (यतः२) गृहीतः, ध्यातः त्वम् (वि नीयसे) विशेषेण हृदयदेशं प्राप्यसे ॥३॥

    भावार्थः

    अरण्योर्व्याप्तोऽप्यग्निर्यथाऽऽविर्भावाय मन्थनमपेक्षते तथैव हृदये जीवात्मनि च पूर्वत एव विद्यमानोऽपि परमेश्वर आविर्भावाय ध्यानमपेक्षते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।२४।३, ‘मादनः’ इत्यत्र ‘पात॑वे’ इति पाठः। २. यतः गृहीतः इति सा०। यतः नियतः संयत इति यावत्। अथवा यमु बन्धने, ऋत्विग्भिर्बद्धः सोमवहनेन—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O active, learned pupil, derive knowledge, contributing to the happiness of thy preceptor. May thou humbly receive education under the strict discipline of thy instructors !

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    Meaning

    O Soma, universal power and joy of existence, pure and purifying, you vibrate in the universe like an ocean of nectar. Celebrated by men of vision and wisdom, you arise and manifest in your glory in the devotees experience and inspire him to rise to divinity. (Rg. 9-24-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पवमान सोम) ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મનું! (मादनः) હર્ષિત-આનંદિત કરતાં (इन्द्राय प्रधन्वसि) ઉપાસક આત્માને માટે પ્રકૃષ્ટ રૂપથી પ્રાપ્ત થાય છે. (नृभिः यतः) મુમુક્ષુજનોથી સંયત-યોગસાધનો દ્વારા અભ્યાસ પામેલ (विनीयसे) પોતાની તરફ પ્રાપ્ત કરી શકાય છે-સાક્ષાત્ ધારણ કરી શકાય છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अरणीमध्ये असलेला अग्नीही प्रकट होण्यासाठी मंथन करावे लागते, तसेच हृदय व जीवात्म्यात प्रथमपासूनच विद्यमान परमेश्वर प्रकट होण्यासाठी ध्यान करण्याची आवश्यकता असते. ॥३॥

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