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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 980
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    30

    सो꣢ अ꣣र्षे꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ यो꣢नि꣣मा꣢ ॥९८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः꣢ । अ꣣र्ष । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ । ति꣣रः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । सी꣡द꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥९८०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो अर्षेन्द्राय पीतये तिरो वाराण्यव्यया । सीदन्नृतस्य योनिमा ॥९८०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । अर्ष । इन्द्राय । पीतये । तिरः । वाराणि । अव्यया । सीदन् । ऋतस्य । योनिम् । आ ॥९८०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 980
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में आनन्दरस के प्रवाह की आकाङ्क्षा की गयी है।

    पदार्थ

    हे पवमान सोम अर्थात् प्रवाहशील ब्रह्मानन्दरस ! (ऋतस्य योनिम्) सत्य के आश्रय परमात्मा के (आसीदन्) पास स्थित हुआ (सः) वह प्रशंसनीय तू (अव्यया) कठिनाई से अतिक्रमण किये जाने योग्य तथा (वाराणि) योगमार्ग से रोकनेवाले व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि विघ्नों को (तिरः) तिरस्कृत करके (इन्द्राय पीतये) जीवात्मा के पान के लिए (अर्ष) प्रवाहित हो ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा के पास से बहा हुआ परमानन्द का प्रवाह स्तोता की आत्मभूमि को सींचता हुआ उसे सद्गुणरूप शस्यों से श्यामल कर देता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (सः) वह तू हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (इन्द्राय) उपासक आत्मा के लिए (पीतये) पान करने के लिए (अव्यया वाराणि तिरः) पार्थिव देह के आवरकस्थानों—अङ्गों को लांघकर (अर्ष) प्राप्त हो (ऋतस्य योनिम्-आसीदन्) अध्यात्मयज्ञ को*38 विराजमान होने के हेतु॥२॥

    टिप्पणी

    [*38. “यज्ञो वा ऋतस्य योनिः” [श॰ १.३.४.१६]।]

    विशेष

    <br>

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    विषय

    ऋत के मूलस्थान में

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘जमदग्नि भार्गव' है, जिसने आचार्यकुल में रहकर वेदवाणी का अध्ययन करते हुए नियमित आहार-विहार से जाठराग्नि को ठीक रख 'जमदग्नि' बनकर स्वास्थ्य को स्थिर रक्खा है और ज्ञान द्वारा अपना ठीक परिपाक कर' भार्गव' नाम को चरितार्थ किया है । इस जमदग्नि से प्रभु कहते हैं कि — १. (सः) = वह तू (इन्द्राय अर्ष) = इन्द्र बनने के लिए गतिशील हो, तेरा प्रयत्न जितेन्द्रिय बनने के लिए हो । २. (पीतये) = अपनी रक्षा के लिए शरीर में उत्पन्न किये गये सोम का पान करनेवाला बन [पा पाने, पा रक्षणे] । ३. (अव्यया) = रक्षण में उत्तम इस वेदवाणी के द्वारा तू वाराणि - ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को [वाराणि = वृत्राणि] (तिरः) = पार कर जा । ४. (ऋतस्य) = ऋत के, सत्य वेदज्ञान के (योनिम्) = मूलस्थान प्रभु में (आसीदन्) = बैठने के हेतु से (अर्ष) = गतिमय हो । तेरी सारी क्रियाएँ इसलिए हों कि तू अन्ततः ऋत के स्रोत तक पहुँच सके - ऋत के मूलस्थान प्रभु में स्थित हो सके। 

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय बनें, सोमपान करें, वासनाओं को तरें और अन्त में ऋत के मूलस्थान प्रभु में पहुँच जाएँ। 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (सः) वह तू (इन्द्राय) इस अन्तरात्मा के (पीतये) पान के लिये, तृप्ति के लिये, (अव्यया) अवि अर्थात् चित्-प्रकृति के (वारा) आवरण करनेहारे आवरणों को (तिरः) दूर (अर्ष) कर और (ऋतस्य) प्रकाशस्वरूप सत्य के (योनिम्) आश्रय स्थान ब्रह्म को (सदिन्) प्राप्त होकर (आ) प्रकट हो।

    टिप्पणी

    ‘तिरो रोमाण्यष्यया सदिन्योता वनेषां’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथानन्दरसप्रवाहमाकाङ्क्षते।

    पदार्थः

    हे पवमान सोम प्रवहणशील ब्रह्मानन्दरस ! (ऋतस्य योनिम्) सत्यस्य गृहं परमात्मानम् (आसीदन्) उपतिष्ठमानः (सः) प्रशंसनीयः त्वम् (अव्यया) अव्ययानि दुरतिक्रमणीयानि (वाराणि) योगमार्गाद् निवारकाणि व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादीनि विघ्नजालानि (तिरः) तिरस्कृत्य (इन्द्राय पीतये) जीवात्मनः पानाय (अर्ष) प्रस्रव ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मनः प्रस्रुतः परमानन्दप्रवाहः स्तोतुरात्मभूमिं सिञ्चंस्तां सद्गुणसस्यैः श्यामलां करोति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।८, ‘रोमा॑ण्य॒व्यया॑ सीद॒न् योना॒ वने॒ष्वा’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned man, cast aside the coverings of the mind, for the satisfaction of the soul. Manifest thyself, realizing God, the Refuge of Truth !

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    Meaning

    O Soma, spirit of holy action and lifes sanctity, settle in your seat of yajnic action in the nations heart for the honour and excellence of human values and flow free down the permanent annals of human history and tradition. (Rg. 9-62-8)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः) તે તું હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (इन्द्राय) ઉપાસક આત્માને માટે (पीतये) પાન કરવા માટે (अव्यया वाराणि तिरः) પાર્થિવ દેહનાં આવરક સ્થાનો-અંગોને પાર કરીને (अर्ष) પ્રાપ્ત થા. (ऋतस्य योनिम् आसीदन्) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં વિરાજમાન થવા માટે-પ્રાપ્ત થા. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याकडून प्रवाहित होणारा परमानन्द स्तोत्याच्या आत्मभूमीला सिंचित करत त्याला सद्गुणरूपी धान्याने समृद्ध करतो. ॥२॥

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