Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 982
ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
20
त꣢व꣣ श्रि꣡यो꣢ व꣣꣬र्ष्य꣢꣯स्येव वि꣣द्यु꣢तो꣣ग्ने꣡श्चि꣢कित्र उ꣣ष꣡सा꣢मि꣣वे꣡त꣢यः । य꣡दो꣢꣯षधी꣣रभि꣡सृ꣢ष्टो꣣ व꣡ना꣢नि च꣣ प꣡रि꣢ स्व꣣यं꣡ चि꣢नु꣣षे꣡ अन्न꣢꣯मा꣣स꣡नि꣢ ॥९८२॥
स्वर सहित पद पाठत꣡व꣢꣯ । श्रि꣡यः꣢꣯ । व꣣र्ष्य꣢स्य । इ꣣व । विद्यु꣡तः꣢ । वि꣣ । द्यु꣡तः꣢꣯ । अ꣣ग्नेः꣢ । चि꣣कित्रे । उष꣡सा꣢म् । इ꣣व । ए꣡त꣢꣯यः । आ । इ꣣तयः । य꣢त् । ओ꣡ष꣢꣯धीः । ओ꣡ष꣢꣯ । धीः꣣ । अभि꣡सृ꣢ष्टः । अ꣣भि꣢ । सृ꣣ष्टः । व꣡ना꣢꣯नि । च꣣ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣य꣢म् । चि꣣नुषे꣢ । अ꣡न्न꣢꣯म् । आ꣣स꣡नि꣢ ॥९८२॥
स्वर रहित मन्त्र
तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतोग्नेश्चिकित्र उषसामिवेतयः । यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमासनि ॥९८२॥
स्वर रहित पद पाठ
तव । श्रियः । वर्ष्यस्य । इव । विद्युतः । वि । द्युतः । अग्नेः । चिकित्रे । उषसाम् । इव । एतयः । आ । इतयः । यत् । ओषधीः । ओष । धीः । अभिसृष्टः । अभि । सृष्टः । वनानि । च । परि । स्वयम् । चिनुषे । अन्नम् । आसनि ॥९८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 982
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में भौतिक अग्नि के वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा का प्रकाशन है।
पदार्थ
हे (अग्ने) भौतिक अग्नि ! (तव) तेरी (श्रियः) शोभाएँ (वर्ष्यस्य) बरसाऊ मेघ की (विद्युतः इव) बिजलियों के समान और (उषसाम्) उषाओं के (इतयः इव) आगमनों के समान (आ चिकित्रे) ज्ञात होती हैं, (यत्) जब (ओषधीः) ओषधियों को (वनानि च) और जंगलों को (अभि) लक्ष्य करके (सृष्टः) प्रज्वलित हुआ तू (स्वयम्) अपने आप (आसनि) अपने ज्वालारूप मुख में (अन्नम्) खाद्य को (परि चिनुषे) चारों ओर से संगृहीत करता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
जगदीश्वर की ही यह प्रशस्ति है कि उसने भयंकर ज्वालाओं से जटिल उस देदीप्यमान अग्नि को उत्पन्न किया है, जो जंगलों को भस्म करके नवीन वनस्पतियों को अङ्कुरित करने में सहायक होता है ॥१॥
पदार्थ
(तव-अग्नेः श्रियः) तुझ ज्ञानप्रकाशस्वरूप अग्रणायक परमात्मा के धर्म—गुण या ज्ञानरश्मियाँ*42 (वर्ष्यस्य-इव विद्युतः) पर्जन्य—मेघ की*43 विद्युतों के समान (उषसाम्-इव-इतयः) प्रभातकालीन उषाओं की गतिधाराओं जैसी*44 (चिकित्र) जानी जा रही हैं प्रत्यक्ष हो रही हैं (यत्) जब कि तू (ओषधीः) जगती धरती की सब चर अचर वस्तुओं को*45 (च) और (वनानि) अन्तरिक्ष के जलादि*46 को और द्युलोक के रश्मि आदि*47 को (स्वयम्-आसनि-अन्नं परि चिनुषेः स्वकीय मुख में या मुखसमान मृत्यु में*48अन्नरूप में समेट लेता है*49 अनन्तर (अभिसृष्टः) उन्हें अभिसृष्ट करता उत्पन्न करता है तो उस तुझ परमात्मा के धर्म गुण विभूतियाँ प्रलय के अनन्तर ऐसे ही प्रतीत होते हैं जैसे मेघ के अन्धकार में बिजलियाँ रात्रि के अन्धकार में उषा के गतिप्रवाह प्रतीत हो रहे हैं॥१॥
टिप्पणी
[*42. “श्रीर्वै धर्मः” [जै॰ ३.२३१]।] [*43. “पर्जन्यो वर्षाः” [जै॰ २.५१]।] [*44. “इतिश्च मे गतिश्च मे” [तै॰ सं॰ ४.७.५.२]।] [*45. “जगत्य ओषधयः” [श॰ १.२.२.२]।] [*46. “वनम्-उदकनाम” [निघं॰ १.१२]।] [*47. “वनं रश्मिनाम” [निघं॰ १.५]।] [*48. “मुखं मृत्युः” [काठ॰ २१.७]।] [*49. “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्तदर्शन॰ ३.२.९]।]
विशेष
ऋषिः—वैतहव्योऽरुणः (समाप्ताग्निहोत्र विरक्त से सम्बद्ध तेजस्वी उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>
विषय
'अरुण' का जीवन-सूत्र- -सादा खाना, पानी पीना [सौ वर्ष जीना ] "
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'अरुण' [ऋ गतौ + उनन्] गतिशील है तथा 'वीतहव्य' [वीतं स्वादितं हव्यं येन] पवित्र सात्त्विक भोजन करनेवाला है। प्रभु कहते हैं कि — हे अरुण ! (अभिसृष्ट:) = [अभिसृज्=to prepare] मोक्षपथ का आक्रमण करने के लिए उद्यत हुआ-हुआ तू (यत्) = जब (ओषधीः) = रोगनाशक औषधरूप द्रव्यों को (च वनानि) = और जलों को तथा (अन्नम्) = अन्नों को (स्वयम्) = अपने पुरुषार्थ से (आसनि) = मुख में (परि चिनुषे) = चिनता है, तब (तव) = तेरी (श्रियः) = शोभाएँ (वर्ष्यस्य) = बरसनेवाले बादलों की (विद्युतः इव) = बिजलियों की भाँति प्रतीत होती हैं तथा हे (अग्ने) = [अगि गतौ] आगे और आगे चलनेवाले अरुण ! (उषसाम्) = उष:कालों के (ईतयः) = आगमनों के (इव) = समान (चिकित्रे) = जानी जाती हैं । यह 'अरुण वीतहव्य' का मार्ग है । इस अरुण के उन्नति-पथ का निर्देश मन्त्र इस प्रकार कर रहा है -
१. (अभिसृष्टः) = यह उन्नति-पथ पर चलने का सङ्कल्प करके उसपर चलने के लिए तैयार है। २. इसका खानपान अत्यन्त सात्त्विक व सादा है— ओषधियाँ, जल व अन्न – - ये ही इसके भक्ष्य व पेय हैं [ओषधी: वनानि, अन्नम्] । ३. यह स्वयं अन्न कमाता है— अपने भोजन के लिए औरों पर बोझ नहीं डालता [स्वयम्] । ४. यह अन्न का मुख में उसी प्रकार चयन करता है जिस प्रकार वेदी के अग्निकुण्ड में सामग्री व घृत का [चिनुषे आसनि] । शरीर वेदि है, मुख अग्निकुण्ड और उसमें पड़नेवाला भोजन हविर्द्रव्य । एवं, इसका भोजन भी एक यज्ञ ही हो जाता है । यह 'वीतहव्य' है, अतः ऐसा होना ही चाहिए । ५. ऐसा करने पर इस उन्नति-पथ पर बढ़नेवाले [अग्नि] की शोभा वर्ष्य विद्युत् के समान होती है। बरसनेवाला मेघ अत्यन्त काला है, उसमें विद्युत् चमकती है। इसी प्रकार इस वीतहव्य के जीवन मेघ में भी विद्युत् का प्रकाश होता है। चारों ओर अन्धकार होने पर भी इसे बीच-बीच में प्रकाश दिखता है [वर्ष्यस्येव विद्युतः] । ६. और साधना के बढ़ते-बढ़ते इसके जीवन में उष:काल का अरुणोदय हो जाता है। इसे निरन्तर मधुर प्रकाश दिखने लगता है [उषसामिवेतयः] यह सचमुच 'अरुण' बन जाता है ।
भावार्थ
हम जीवन में सङ्कल्पपूर्वक चलें, खानपान सात्त्विक रखें, अपना भोजन स्वयं कमाएँ, भोजन को भी यज्ञ का रूप दे दें, वर्ण्य विद्युत् के समान हमें भी जीवन के काले बादलों में प्रकाश दिखे और साधना की वृद्धि के साथ हमारे जीवन में अरुणोदय ही हो जाए - यही मोक्षमार्ग है।
विषय
missing
भावार्थ
हे परमेश्वर ! (अग्नेः) ज्ञान प्रकाशक (तव) तेरी (श्रियः) विभूतियां (वर्ष्यस्य) मेघ की (विद्युतः इव) विद्युतों के समान (उषसां) प्रभात कालों में निकलती हुई (ईतयः) किरणों के समान (चिकित्रे) सर्वत्र जानी जाती हैं। (यत्) जब कि (ओषधीः) ओषधियों और (वनानि च) वृक्षादि वनस्पतियों में भी (अभिसृष्टः) लग कर उनमें भी व्याप्त होकर, (आसनि) मुख में (अन्नम्) अन्न के समान समस्त पदार्थों को (स्वयं) अपने भीतर लेलेता है। ओषधि अन्नादि और वनस्पतियों को जिस प्रकार अग्नि अपने भीतर जलाकर मानों ग्रास कर जाता है उसी प्रकार परमेश्वर सब पदार्थों को अपने भीतर लीन करता है इसी प्रकार विद्वान भी समस्त ओषधि वृतादि को अन्न के समान जानकर उनका खाद्यरूप से विवेक करे।
टिप्पणी
‘चित्राश्चिकित्र’, ‘उषसां न केतव’ ‘अन्नमास्ये’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ भौतिकाग्निवर्णनमुखेन परमात्मनो महिमानं प्रकाशयति।
पदार्थः
हे (अग्ने) वह्ने ! (तव) त्वदीयाः (श्रियः) शोभाः (वर्ष्यस्य) वर्षोन्मुखस्य मेघस्य (विद्युतः इव) सौदामन्यः इव, किञ्च (उषसाम्) प्रभातकान्तीनाम् (इतयः इव) प्रादुर्भावाः इव (आ चिकित्रे) प्रज्ञायन्ते, (यत्) यदा (ओषधीः) वनस्पतीन् (वनानि च) अरण्यानि च अभिलक्ष्य (सृष्टः) प्रज्वलितः त्वम् (स्वयम्) आत्मनैव (आसनि) स्वकीये ज्वालारूपे मुखे (अन्नम्) खाद्यम् (परि चिनुषे) परितः चिनोषि ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
जगदीश्वरस्यैवेयं प्रशस्तिः यत्तेन करालज्वालाजालजटिलो वनानि भस्मसात् कृत्वा नूतनवनस्पत्यङ्कुरणे सहायको दीप्तिमानग्निरुत्पादितः ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।९१।५, ‘वि॒द्युत॑श्चि॒त्राश्चि॑कित्र उ॒षसां॒न के॒त॑व’, ‘अन्न॑मा॒॑स्ये’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thy glories are visible, like lightnings from the rainy cloud, like the coming rays at Dawn, When Thou pervades plant and forest trees , Thou crammest by Thyself all objects like food into Thy month !
Translator Comment
Just as fire consumes all plants and forest trees, and takes them in its grip, so does God keep all objects under His control, as a man takes food in his mouth.
Meaning
Your wonderful lustre and beauties shine like lightning flashes of the clouds of rain, like lights of the rising dawns, specially, when, radiating warm and free, you reach and shine upon the herbs and trees and fields of grain and receive them into the shining warmth of your maturing and ripening radiations. (Rg. 10-91-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तव अग्ने श्रियः) તારા જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ અગ્રણી પરમાત્માના ધર્મ-ગુણ વા જ્ઞાનરશ્મિઓ (वर्ष्यस्य इव विद्युतः) પર્જન્ય-મેઘની વીજળીની સમાન (उषसाम् इव इतयः) પ્રાતઃકાળની ઊષાઓની ગતિધારાઓ જેવી કે (चिकित्र) જાણવામાં આવે છે-પ્રત્યક્ષ થઈ રહી છે. (यत्) જ્યારે તું (ओषधीः) જગતી ધરતીની સમસ્ત ચર-અચર વસ્તુઓને (च) અને (वनानि) અન્તરિક્ષનાં જળ આદિને તથા દ્યુલોકની રશ્મિ આદિને (स्वयम् आसनि अन्नं परि चिनुषेः) પોતાનાં મુખમાં અથવા મુખસમાન મૃત્યુમાં અન્નરૂપમાં સમેટી લે છે. અનન્તર (अभिसृष्टः) તેને અભિસૃષ્ટ કરતાં ઉત્પન્ન કરે છે, ત્યારે તે તારા પરમાત્માના ધર્મ ગુણ વિભૂતિઓ પ્રલય પછી એવા જ પ્રતીત થાય છે, જેમ વાદળાંઓના અંધકારમાં વીજળીઓ અને રાતના અંધકારમાં ઊષાનો ગતિ પ્રવાહ પ્રતીત થઈ રહે છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वर प्रशंसनीय आहे. त्याने भयंकर ज्वालायुक्त जटिल, देदीप्यमान अग्नी उत्पन्न केलेला आहे. जो जंगलांना भस्म करून नवीन वनस्पतींना अंकुरित करण्यात सहायक ठरतो. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal