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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    83

    उदी॑ची॒मारो॑हानु॒ष्टुप् त्वा॑वतु वैरा॒जꣳ सामै॑कवि॒॑ꣳश स्तोमः॑ श॒रदृ॒तुः फलं॒ द्रवि॑णम्॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उदाची॑म्। आ। रो॒ह॒। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। वै॒रा॒जम्। साम॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑। श॒रत्। ऋ॒तुः। फल॑म्। द्रवि॑णम् ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीचीमारोहानुष्टुप्त्वावतु वैराजँ सामैकविँश स्तोमः शरदृतुः पलन्द्रविणम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उदाचीम्। आ। रोह। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। त्वा। अवतु। वैराजम्। साम। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। स्तोमः। शरत्। ऋतुः। फलम्। द्रविणम्॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 13
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजादिनरैः किं लब्धव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे सभापते! त्वमुदीचीं दिशमारोह। यतोऽनुष्टुप् वैराजं सामैकविंशस्तोम ऋतुः शरद् द्रविणं फलं च त्वाऽवतु॥१३॥

    पदार्थः

    (उदीचीम्) उत्तराम् (आ) (रोह) (अनुष्टुप्) यया पठित्वा पुनः सर्वा विद्या अन्येभ्यः स्तुवन्ति सा (त्वा) (अवतु) (वैराजम्) यद्विविधैरर्थै राजते तदेव (साम) (एकविंशः) षोडश कलाश्चत्वारः पुरुषार्थाऽवयवाः कर्त्ता चेति तेषामेकाविंशतेः पूरणः (स्तोमः) स्तुतिविषयः (शरत्) (ऋतुः) (फलम्) सेवाफलदं शूद्रकुलम् (द्रविणम्)॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ४। १। ६) व्याख्यातः॥१३॥

    भावार्थः

    ये जना आलस्यं विहाय सर्वदा पुरुषार्थमेवानुतिष्ठन्ते ते सच्छूद्रान् प्राप्य फलवन्तो जायन्ते॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा आदि पुरुषों को क्या प्राप्त करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे सभापति राजा! आप (उदीचीम्) उत्तर की दिशा में (आरोह) प्रसिद्धि को प्राप्त हूजिये, जिससे (अनुष्टुप्) जिसको पढ़ के सब विद्याओं से दूसरों की स्तुति करें, वह छन्द (वैराजम्) अनेक प्रकार के अर्थों से शोभायमान (साम) सामवेद का भाग (एकविंशः) सोलह कला, चार पुरुषार्थ के अवयव और एक कर्त्ता इन इक्कीस को पूरण करनेहारा (स्तोमः) स्तुति का विषय (शरत्) शरद् (ऋतुः) ऋतु (द्रविणम्) ऐश्वर्य्य और (फलम्) फलरूप सेवाकारक शूद्रकुल (त्वा) आपको (अवतु) प्राप्त होवे॥१३॥

    भावार्थ

    जो पुरुष आलस्य को छोड़ सब समय में पुरुषार्थ का अनुष्ठान करते हैं, वे अच्छे फलों को भोगते हैं॥१३॥

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    विषय

    नातिमानिता

    पदार्थ

    १. हे राजन्! तू राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था कर कि ( दन्दशूकाः ) = औरों को अकारण ही डसनेवाले सर्पवृत्ति के लोग, कुटिल चाल से चलनेवाले औरों को पीड़ित करनेवाले लोग ( अवेष्टाः ) = [ अवयज = नाशि ] नष्ट कर दिये जाएँ, राष्ट्र में ऐसे लोग न पनप पाएँ। इसके लिए तू निम्न प्रयत्न कर— २. ( प्राचीम् आरोह ) = पूर्व दिशा में आरूढ़ हो। यह ‘प्राची’ दिशा [ प्र+अञ्च् ] आगे बढ़ने की दिशा है। तू अग्रगति का अधिपति बन। यदि तू निरन्तर आगे बढ़ने का ध्यान रखेगा तो ( दक्षिणाम् आरोह ) = दक्षिण का आरोहण करनेवाला होगा, अर्थात् तू प्रत्येक कार्य को करने में ( दक्षिण ) = कुशल बन पाएगा। यह कार्य-कुशलता तेरे ऐश्वर्य-वृद्धि का कारण बनेगी। उस समय तूने ( प्रतीचीम् आरोह ) = प्रतीची का आरोहण करना है। प्रतीची अर्थात् प्रति-अञ्च् = वापस होना—विषयों में न फँस जाना, अर्थात् विषय-व्यावृत्त होना—प्रत्याहार का पाठ पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा करने पर तू ( उदीचीम् आरोह ) = उत्तर दिशा का आरोहण करनेवाला होगा, अर्थात् तेरी उन्नति प्रारम्भ होगी और एक दिन ( ऊर्ध्वाम् आरोह ) =  तू सर्वोच्च दिशा पर आरूढ़ हुआ होगा। 

    ३. इस उल्लिखित मार्ग पर चलने से तुझे क्रमशः ( ब्रह्म द्रविणम् ) = ज्ञानरूप धन प्राप्त होगा। निरन्तर आगे बढ़नेवाला व्यक्ति कण-कण करके ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञानी व कार्यकुशल बनकर यह ( क्षत्रं द्रविणम् ) = शक्तिरूप धन प्राप्त करता है। क्रियाशीलता शक्तिवृद्धि का कारण बनती है। ( विट् द्रविणम् ) = ज्ञान और शक्ति प्राप्त करके अब यह [ विट् ] ‘उत्तम प्रजा’ रूप धनवाला होता है। इस उत्तमता को स्थायी बनाने के लिए ( फलं द्रविणम् ) = फलरूप धनवाला होता है। यह राजा राष्ट्र में फलों के उत्पादन का इस रूप में आयोजन करता है कि सब लोगों का मुख्य भोजन ये फल ही हो जाते हैं। इस सात्त्विक भोजन से ही प्रजाओं का जीवन उत्तम बनता है। उनके ज्ञान व शक्ति की वृद्धि होती है। इन फलों से ( वर्चः द्रविणम् ) = वर्चस्—प्राणशक्तिरूप धन प्राप्त होता है। वस्तुतः ( प्राची ) = निरन्तर आगे बढ़ना ( ब्रह्म ) = ज्ञान-प्राप्ति का मुख्य उपाय है। ( दक्षिणा ) =  कार्यकुशलता ( क्षत्र ) = बल का कारण है। ( प्रतीची ) = विषयनिवृत्ति ( विट् ) = उत्तम प्रजा का कारण है। ( उदीची ) = उन्नति के लिए शाकाहारी फल = वनस्पति आदि का भोजन आवश्यक है। सर्वोच्च स्थिति ( ऊर्ध्वा ) = में पहुँचने पर मनुष्य ब्रह्म के समान वर्चस्वी बनता है। इस प्रकार इन मन्त्रों में पहले और अन्तिम वाक्यों का परस्पर सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध आगे चलकर दूसरे व पाँचवें वाक्यों में होगा और तीसरे व चौथे में यह सम्बन्ध दिखेगा। साहित्य में यह शैली ‘चक्रबन्ध काव्य’ के नाम से प्रसिद्ध है। 

    ४. दूसरे स्थान पर स्थित वाक्यों का अर्थ इस प्रकार है कि गायत्री-त्रिष्टुप्-जगती-अनुष्टुप् और पङ्क्तिः = ये सब छन्द ( त्वा ) = तेरी ( अवतु ) = रक्षा करें। परिणामतः तेरे जीवन में पाँचवें-पाँचवें वाक्यों के अनुसार क्रमशः वसन्तः, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् ऋतुः, हेमन्त-शिशिरौ ऋतू = ‘वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा-शरद् व हेमन्त-शिशिर’ ऋतुओं का आगमन होगा। क. ( गायत्री ) = [ गयाः प्राणाः तान् तत्रे ] प्राण-रक्षण से ( वसन्त ) = तेरा उत्तम निवास होगा। जिस प्रकार वसन्त ऋतु पुष्प-फल-वृद्धिवाली होती है, उसी प्रकार तेरे जीवन में सब शक्तियों का विकास होगा। ख. त्रिष्टुप् [ त्रिष्टुप् stop ] काम, क्रोध व लोभ को रोक देने से तेरा जीवन ‘ग्रीष्म’ ऋतुवाला होगा। तेरे जीवन में सचमुच उष्णता व उत्साह होगा। ग. ( जगती ) = निरन्तर गति शक्तिशीलता से तेरे जीवन की ऋतु-चर्या ( वर्षा ) = सब सुखों की वर्षावाली होगी। तू निरन्तर क्रियाशील होगा और सुखी जीवनवाला होगा। घ. ( अनुष्टुप् ) = तू दिन-ब-दिन, अर्थात् सदा प्रभु का स्तवन करनेवाला होगा और तेरे जीवन में शरत् का प्रवेश होगा। जैसे शरत् में सब पत्ते शीर्ण हो जाते हैं उसी प्रकार इस स्तुति से तेरे सारे पाप शीर्ण हो जाएँगे। [ ङ ] ( पङ्क्तिः ) = तू पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्दियों व पाँचों प्राणों के पञ्चकों से सुरक्षित होगा तो तेरे जीवन में हेमन्त व शिशिर ऋतुओं का उदय होगा, अर्थात् हेमन्त [ हन्ति पाप्मानं, हिनोति वर्धयति बलं वा ] = तेरे रोग व पाप नष्ट होंगे और तेरा बल बढे़गा तथा ( शिशिरः ) = [ शश प्लुतगतौ ] तू द्रुतगतिवाला होगा। तेरी चाल मन्द न होगी। तू तीव्र गति से आगे बढ़नेवाला बनेगा। 

    ५. अब तीसरे-व-चौथे-वाक्यों का अर्थ यह है कि [ क ] ( रथन्तरम् ) = रथन्तर तेरी ( साम ) = उपासना है और त्रिवृत् तेरी ( स्तोमः ) = स्तुति है। प्रभु की सच्ची उपासना यही है कि मनुष्य ( रथन्तर ) = इस शरीररूप रथ से भवसागर को तैरने का यत्न करे और सच्ची स्तुति यही है कि मनुष्य ( त्रिवृत् ) = शरीर, मन व बुद्धि की त्रिगुण उन्नति करनेवाला हो। [ ख ] ( बृहत् ) = बृहत् तेरी ( साम ) = उपासना है और ( पञ्चदशः ) = पञ्चदश तेरी ( स्तोम ) = स्तुति है। ( बृहत् ) [ बृहि वृद्धौ ] = निरन्तर वृद्धि—बढ़ना—उन्नति करना ही तेरी उपासना है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों को उन्नत करना—इनका अधिपति बनता ही स्तवन है। [ ग ] ( वैरूपम् ) = विशिष्ट रूपवाला बनना ही ( साम ) = उपासना है सप्तदशः पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि को ठीक रखना ही ( स्तोमः ) = स्तुति है। [ घ ] ( वैराजम् ) = विशिष्ट रूप से चमकना ही ( साम ) = तेरी उपासना है और ( एकविंशः स्तोमः ) = शरीर का धारण करनेवाली २१ शक्तियोंवाला होना ही तेरी स्तुति है। [ ङ ] ( शाक्वररैवते ) = शक्तिशाली बनना व ज्ञान-धनवाला होना। ( सामनी ) = तेरी उपासनाएँ हैं और ( त्रिणवत्रयस्त्रिंशः ) = [ इमे वै लोकास्त्रिणवः—ता० ६।२।३ ] [ देवता एव त्रयस्त्रिंशस्या- यतनम्ता० १०।१।१६ ] [ वर्ष्म वै त्रयस्त्रिंशः—ता० १९।१०।१० ] तीन लोक व ३३ देवता ही ( स्तोमौ ) = तेरी स्तुति हैं, अर्थात् यदि तू शरीररूप पृथिवीलोक को, हृदयरूप अन्तरिक्षलोक को तथा मस्तिष्करूप द्युलोक को ठीक रखता है और इन्हें अपने-अपने देवताओं से अलंकृत करता है तो तू सच्चा स्तवन कर रहा होता है। 

    ६. इस प्रकार सारे देवताओं का अधिष्ठान बनकर भी तूने इस बात का पूरा ध्यान रखना है कि ( नमुचेः ) = [ न मुचिः, last infirmity of the noble minds ] नमुचि को बड़े-बड़े शक्तिशाली भी जीत नहीं पाते, उस अहंकार का ( शिरः प्रत्यस्तम् ) = सिर कुचल दिया जाए। सम्पूर्ण दैवी सम्पत्तिवाला बनकर भी तुझमें नतिमानिता = अभिमान का न होना आवश्यक है। यह अभिमान सारे किये-कराये पर पानी फेर देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा सब दिशाओं में उन्नति करके निरभिमानिता से प्रजाओं का कल्याण करने में प्रवृत्त हो।

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    विषय

    दुष्टों का नाश । राजा की रक्षा।

    भावार्थ

    ( उदीचीम् आरोह ) उदीची दिशा पर चढ़। वहां ( अनुष्टुप् वैराजं साम, एकविंश: स्तोमः, शरद् ऋतुः फलं द्रविणम् त्वा अवतु ) अनुष्टुप् छन्द, वैराज साम, एकविंश स्तोम, शरद् ऋतु और फल अर्थात् श्रम द्वारा प्राप्त अन्न आदि कृषि तेरी रक्षा करे ॥ शत० ५ । ४ । १ । ४-६ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे पुरुष आळस सोडून सर्व काळी पुरुषार्थ कारतात त्यांना उत्तम फळ प्राप्त होते.

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    विषय

    पुनश्च राजा आदी पुरुषांनी (राजपुरुष, अधिकारी, कर्मचारी यांनी) काय प्राप्त केले पाहिजे, याविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे सभापती राजा, आपणास (उदीचीम्) उत्तर दिशेत (आरोह) कीर्ती मिळो. याशिवाय आपणास (अनुष्टुप्) अनुष्टुप् छंद मिळो की ज्याच्या पठनाने सर्व विद्या आणि अन्य गुणांची स्तुती केली जाते. आपणास (वैराजम्) अनेक अर्थांनी समृद्ध वशोभित असा (साम) सामवेदाचा भाग आणि (एकविंश:) सोळा कला, पुरुषार्थाचं चार अवयव (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) आणि एक कर्ता या सर्व एकूण एक्केवीस वस्तूंची पूर्ती करून देणारा (स्तोम:) स्तुतियोग्य (शरत ऋतु:) शरदऋतु (द्रविणम्) ऐश्वर्य आणि (फलम्) सेवाद्वारे फल प्राप्त करून देणारे शुद्रकुल हे सर्व (त्वा) आपणास (अवतु) मिळो. (अशी आम्हा प्रजाजनांची कामना आहे. ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक आळस झटकून सर्वकाळी पुरुषार्थ करतात, त्यानांच चांगले फळ वा सुपरिणाम मिळतात ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O’ King advance towards the North. May thou obtain the knowledge conveyed in the Anushtap verse, the manifold knowledge of Sama Veda, the twenty one fold praise-song, the Autumn season, the rich treasurer, and Shudras (servants for service).

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    Meaning

    Go forward north and rise high, and the art of communication of knowledge contained in Anushtup verses would reveal to you; the twenty-one-fold various brilliance of the Samans (sixteen potentials, faculties of the soul, four-fold effort for fulfilment in life and the freedom of action) would enlighten you; and the length of winter years and wealth of the fruits of service would bless you.

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    Translation

    Ascend the north. May the metre anustup protect you; also the vairaj saman verses, twenty-one praise verses the autumn season and the wealth of the fruit of labour. (1)

    Notes

    Phalam dravinam, the wealth of the fruit of labour.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনা রাজাদিনরৈঃ কিং লব্ধব্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ রাজাদি পুরুষদিগকে কী প্রাপ্ত করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে সভাপতি রাজা ! আপনি (উদীচীম্) উত্তর দিকে (আরোহ) প্রসিদ্ধি প্রাপ্ত করুন যাহাতে (অনুষ্টুপ্) যাহা পাঠ করিয়া সকল বিদ্যা দ্বারা অন্যের স্তুতি করিবেন, সেই ছন্দ (বৈরাজম্) বহু প্রকার অর্থ দ্বারা শোভায়মান (সাম) সামবেদের অংশ (একবিংশঃ) ষোড়শ কলা, চারি পুরুষার্থের অবয়ব এবং এক কর্ত্তা এই একুশের পূরক (স্তোমঃ) স্তুতির বিষয় (শরৎ) শরদ্ (ঋতুঃ) ঋতু (দ্রবিণম্) ঐশ্বর্য্য ও (ফলম্) ফলরূপ সেবাকারক শূদ্রকূল (ত্বা) আপনাকে (আবতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব পুরুষ আলস্য ত্যাগ করিয়া সকল সময়ে পুরুষার্থের অনুষ্ঠান করে তাহারা সুফল ভোগ করিয়া থাকে ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উদী॑চী॒মা রো॑হানু॒ষ্টুপ্ ত্বা॑বতু বৈরা॒জꣳ সামৈ॑কবি॒॑ꣳশ স্তোমঃ॑ শ॒রদৃ॒তুঃ ফলং॒ দ্রবি॑ণম্ ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উদীচীমিত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । আর্চী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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