Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 11

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 35
    ऋषिः - देवश्रवदेववातावृषी देवता - होता देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    72

    सीद॑ होतः॒ स्वऽउ॑ लो॒के चि॑कि॒त्वान्त्सा॒दया॑ य॒ज्ञꣳ सु॑कृ॒तस्य॒ योनौ॑। दे॒वा॒वीर्दे॒वान् ह॒विषा॑ यजा॒स्यग्ने॑ बृ॒हद्यज॑माने॒ वयो॑ धाः॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीद॑। हो॒त॒रिति॑ होतः। स्वे। ऊँ॒ इत्यूँ॑। लो॒के। चि॒कि॒त्वान्। सा॒दय॑। य॒ज्ञम्। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। योनौ॑। दे॒वा॒वीरिति॑ देवऽअ॒वीः। दे॒वान्। ह॒विषा॑। य॒जा॒सि॒। अग्ने॑। बृ॒हत्। यज॑माने। वयः॑। धाः॒ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीद होतः स्वऽउ लोके चिकित्वान्सादया यज्ञँ सुकृतस्य योनौ । देवावीर्देवान्हविषा यजास्यग्ने बृहद्यजमाने वयो धाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सीद। होतरिति होतः। स्वे। ऊँ इत्यूँ। लोके। चिकित्वान्। सादय। यज्ञम्। सुकृतस्येति सुऽकृतस्य। योनौ। देवावीरिति देवऽअवीः। देवान्। हविषा। यजासि। अग्ने। बृहत्। यजमाने। वयः। धाः॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विदुषः किं कृत्यमस्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! होतश्चिकित्वाँस्त्वं स्वे लोके सीद। सुकृतस्य योनौ यज्ञं सादय। देवावीः सँस्त्वं हविषा देवान् यजासि यजमाने वयोधाः॥३५॥

    पदार्थः

    (सीद) अवस्थितो भव (होतः) दातर्ग्रहीतः (स्वे) सुखे (उ) (लोके) लोकनीये (चिकित्वान्) विज्ञानयुक्तः (सादय) गमय। अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः। (यज्ञम्) धर्म्यं राजप्रजाव्यवहारम् (सुकृतस्य) सष्ठुकृतस्य धार्मिकस्य (योनौ) कारणे (देवावीः) देवै रक्षितः शिक्षितश्च (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (हविषा) दानग्रहणयोग्येन न्यायेन (यजासि) याजयेः (अग्ने) विद्वन् (बृहत्) महत् (यजमाने) राजादौ जने चिरञ्जीविनम् (वयः) दीर्घं जीवनम् (धाः) धेहि। [अयं मन्त्रः शत॰६.४.२.६ व्याख्यातः]॥३५॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिरस्मिन् जगति द्वे कर्मणी सततं कार्य्ये। आद्यं ब्रह्मचर्य्यजितेन्द्रियत्वादिशिक्षया शरीरारोग्यबलादियुक्तं चिरञ्जीवनमुत्तरं विद्याक्रियाकौशलग्रहणेनात्मबलं च संसाध्यम्, यतः सर्वे मनुष्याः शरीरात्मबलयुक्ताः सन्तः सर्वदानन्देयुः॥३५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् का क्या काम है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! (होतः) दान देने वाले (चिकित्वान्) विज्ञान से युक्त आप (लोके) देखने योग्य (स्वे) सुख में (सीद) स्थित हूजिये (सुकृतस्य) अच्छे करने योग्य कर्म करने हारे धर्म्मात्मा के (योनौ) कारण में (यज्ञम्) धर्मयुक्त राज्य और प्रजा के व्यवहार को (सादय) प्राप्त कराइये (देवावीः) विद्वानों से रक्षित और शिक्षित होते हुए आप (हविषा) देने-लेने योग्य न्याय से (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों को (यजासि) सत्कार सेवा संयोग कीजिये (यजमाने) राजा आदि मनुष्यों में बड़ी (वयः) उमर को (धाः) धारण कीजिये॥३५॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोगों को चाहिये कि इस जगत् में दो कर्म निरन्तर करें। प्रथम ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि की शिक्षा से शरीर को रोगरहित, बल से युक्त और पूर्ण अवस्थावाला करें। दूसरे विद्या और क्रिया की कुशलता के ग्रहण से आत्मा का बल अच्छे प्रकार साधें कि जिस से सब मनुष्य शरीर और आत्मा के बल से युक्त हुए सब काल में आनन्द भोगें॥३५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पाथ = मार्ग

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में उल्लेख था कि मार्ग पर चलनेवाला प्रभु-दर्शन करता है। प्रस्तुत मन्त्र में उस मार्ग का वर्णन करते हैं। 

    २. हे ( होतः ) = [ हु दानादनयोः ] दानपूर्वक अदन करनेवाले! तू ( सीद ) = अपने इस शरीररूप घर में निषण्ण हो। तू अपने शरीर में ही ठहरनेवाला बन। तू स्वस्थ बन। 

    ३. और ( स्वः ) = अपने ही ( लोके ) = [ लोकृ दर्शने ] देखने में तू स्थित हो। तू अपना ही निरीक्षण करता हुआ, अपने दोषों को जानकर उन्हें दूर करनेवाला बन। तू ‘आत्म-निरीक्षण में स्थित हो’। 

    ४. ( चिकित्वान् ) = [ कित ज्ञाने ] तू ज्ञानी बन, समझदार बन। इस संसार में प्रत्येक कार्य को कुशलता से करनेवाला हो। 

    ५. इस ( सुकृतस्य ) = बहुत पुण्यों के ( योनौ ) = घर में, अर्थात् उस शरीर में जो ‘बहुपुण्यलब्धम्’ न जाने कितने पुण्यों से प्राप्त हुआ है और ‘धर्मैकहेतु’ = केवल धर्म के कार्यों के लिए दिया गया है, उस शरीर में ( यज्ञम् ) = [ यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ] श्रेष्ठतम कर्मों को ( सादय ) = तू बिठा। यह पृथिवी तो ( देवयजनी ) = देवों के यज्ञ करने की भूमि है। यह हमारी छोटी पृथिवी, अर्थात् शरीर भी यज्ञों के लिए ही उद्दिष्ट है— पुरुषो वाव यज्ञः = पुरुष तो है ही यज्ञ। 

    ६. ( देवावीः ) = [ अव, भागदुघे ] तू उत्तम कर्म कर, दिव्य गुणों के अंशों का अपने में दोहन करनेवाला हो। तू अपनी दैवी सम्पत्ति को बढ़ा। 

    ७. तू ( देवान् ) = दिव्य गुणों को ( हविषा ) = दानपूर्वक अदन से, त्यागवृत्ति से ही ( यजासि ) = अपने साथ सङ्गत करनेवाला होता है। त्यागपूर्वक उपभोग शरीर को स्वस्थ व नीरोग बनाता है तो मन को भी दिव्य गुणों से परिपूर्ण करता है। 

    ८. हे ( अग्ने ) = अपने सखा जीव की सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( यजमाने ) = इस यज्ञ के स्वभाववाले व्यक्ति में ( बृहद् वयः ) = इस वृद्धिशील जीवन को ( धाः ) = धारण कीजिए। यज्ञ के स्वभाववाला यह व्यक्ति उन्नति-पथ पर निरन्तर अग्रसर होता जाए। इसका जीवन वृद्धिशील हो। 

    ९. इस प्रकार दिव्य गुणों के कारण यश को प्राप्त करनेवाला यह व्यक्ति ‘देवश्रवस्’ कहलाता है, देवों के कारण यशवाला यह देवों— विद्वानों व सूर्यादि देवों से निरन्तर प्रेरणा प्राप्त करने के कारण ‘देववात’ है।

    भावार्थ

    भावार्थ — मार्ग यह है — हम १. दानपूर्वक अदन [ भक्षण ] करनेवाले बनकर स्वस्थ बनें। २. आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने ही दोषों को देखें। ३. समझदार बनें। ४. इस धर्मार्थ प्राप्त शरीर में निवास करते हुए यज्ञों को करनेवाले बनें। ५. दिव्य गुणों का अपने में दोहन करें। ६. त्यागवृत्ति से दिव्य गुणों को बढ़ाएँ। ७. वृद्धिशील जीवनवाले हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    योग्य पदाधिकारी का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( होतः ) राज्यपद या उसके किसी विभाग के या दानाध्यक्ष के पदाधिकार को स्वीकार करने वाले योग्य विद्वान् पुरुष ! तू ( स्वे उ ) अपने ही या सुखमय या शान्तिप्रद ( लोके ) स्थान, प्राप्तपद या अधिकार में ( सीद ) प्रतिष्ठित हो । और ( यज्ञम् ) धर्मानुकूल परस्पर संगत, राजा प्रजा के व्यवहाररूप राज्यकार्य को ( सुकृतस्य ) उत्तम पुण्याचारवान् धार्मिक ( योनौ ) आश्रय या आधार, मूल पर ( सादय ) स्थापित कर । हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! तू ( देवावी : ) विद्वानों और उत्तम गुणों की रक्षा करने हारा, या उन्हों द्वारा स्वयं सुरक्षित होकर ( हविषा ) अन्न आदि दातव्य वेतनादि पदार्थों द्वारा ( देवान् ) विद्वान् शासक राजाओं को ( यजासि ) प्राप्त कर, राष्ट्र में नियुक्त कर । और ( यजमाने ) समस्त राज्य व्यवस्था को संचालन करने वाले सर्वोपरि राजा में या करादि देने वाले प्रजाजन में ( बृहत् वयः ) बड़ा भारी दीर्घ जीवन और ऐश्वर्य भी ( धाः ) धारण करा ॥ शत० ६ । ४ । २ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा देववातश्च ऋषी । अग्निर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी या जगात दोन प्रकारचे कर्म करावे. एक म्हणजे ब्रह्मचर्य व जितेन्द्रियता यांच्या साह्याने शरीर रोगरहित, बलयुक्त करून पूर्ण आयुष्य भोगावे. दुसरे म्हणजे विद्या व कर्मकौशल्य यांनी आत्म्याचे बल वाढवावे. सर्व माणसांनी या प्रकारे शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवून सर्वकाळी आनंद भोगावा.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यानंतर पुढील मंत्रात विद्वानांचे कर्तव्य-कर्म काय आहे? याविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वान, आपण (होत:) दान देणारे आणि (चिकित्वान्) विज्ञानविद् आहात. या (लोके) दर्शनीय अशा जगात (स्वे) सदा सुखात (सीद) स्थित रहा. (आपणास सदा सुख मिळो, अशी आमची प्रजाजनांची कामना आहे) आपण (सुकृतस्य) उत्तम कर्म करणार्‍या धर्मात्मा व्यक्तीसाठी (योनौ) त्याच्या कार्यासाठी (यज्ञम्) धर्मयुक्त राज्य आणि प्रजेसाठी योग्य सुखमय साधने वा व्यवहार (सादय) प्राप्त होतील, असे करा. तसेच (हविषा) दान आदान, देणे व घेणे या न्यायाप्रमाणे (देवान्) विद्वज्जनांनाचा वा दिव्य गुणांचा (यजासि) सत्कार व स्वीकार करा (त्यांचे दिव्य गुण घ्या आणि आपले (सगुण त्यांना द्या) तसेच (यजमानाने) राजा आदी श्रेष्ठ मनुष्यांना (वय:) दीर्घायू (धा:) धारण करण्यास समर्थ करा ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विद्वज्जनांसाठी उचित आहे की त्यांनी या संसारात दोन कर्में करावीत. प्रथम कर्म म्हणजे त्यांनी ब्रह्मचर्यपालन करून जितेंद्रिय होऊन आपले शरीर नीरोग व बलवान करावे आणि अशाप्रकारे पूर्ण आयुष्य जगावे. दुसरे कर्म म्हणजे क्रिया-नैपुण्य प्राप्त करून उत्तमप्रकारे आत्मिकबल सिद्ध करावे. यामुळे सर्व माणसेंदेखील शरीरात्मबलयुक्त होऊन सदा सर्वकाळी आनंदित राहतील. ॥35॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, fond of charity, full of knowledge, reside in pleasant happiness. On the basis of virtue, establish good relations between the King and the subjects. Taught by the sages, thou shouldst justly respect noble qualities. Give long life to the king and his people.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Hota, expert of the science of yajna, take your seat of bliss on the vedi, light and complete the yajna in the home of the noble yajamana. Agni, presiding power of yajna, developed and protected by the noble sages, feed the devas, powers of nature, with yajna materials and bless the yajamana with the great gift of health and longevity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O priest, may you sit down in your place; you are cognizant of holy acts; may you initiate the ceremony at the chief place of sacred worship. O fire-divine, you are dear to divine powers and carry oblations to them; may you bestow abundant food on the host worshipper. (1)

    Notes

    Cikitvan, विज्ञानयुक्त: (Dауа), proficient in science. स्वाधिकारं जानन्, knowing his authority v ell.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্বিদুষঃ কিং কৃত্যমস্তীত্যাহ ॥
    পুনঃ বিদ্বান্দিগের কী কর্ম এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) তেজস্বী বিদ্বান্ ! (হোতঃ) দানদাতা (চিকিত্বান্) বিজ্ঞানের সঙ্গে যুক্ত আপনি (লোকে) দর্শনের যোগ্য (স্বে) সুখে (সীদ) স্থিত হউন । (সুকতস্য) সুষ্ঠুকৃত কর্মের ধার্মিক ব্যক্তিদের (য়োনৌ) কারণে (য়জ্ঞম্) ধর্মযুক্ত রাজ্য ও প্রজার ব্যবহারকে (সাদয়) প্রাপ্ত করান । (দেবাবীঃ) বিদ্বান্দিগের দ্বারা রক্ষিত এবং শিক্ষিত হইয়া আপনি (হবিষা) আদান-প্রদান যোগ্য ন্যায় দ্বারা (দেবান্) বিদ্বান্দিগের অথবা দিব্য গুণাদিকে (য়জাসি) সৎকার সেবা সংযোগ করুন (য়জমানে) রাজাদি মনুষ্য মধ্যে (বয়ঃ) দীর্ঘ আয়ু (ধাঃ) ধারণ করুন ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিদ্বান্দিগের উচিত যে, এই জগতে দুইটি কর্ম সর্বদা করিবেন । প্রথম ব্রহ্মচর্য্য পালন ও জিতেন্দ্রিয় হওয়ার শিক্ষা দ্বারা শরীরকে রোগরহিত, বলযুক্ত এবং পূর্ণ আয়ুযুক্ত করিবেন । দ্বিতীয় বিদ্যা ও ক্রিয়ার কুশলতা গ্রহণ করিয়া আত্মার বল সম্যক্ প্রকারে সাধিত করিবেন যাহাতে সকল মনুষ্য শরীর ও আত্মবলে যুক্ত হইয়া সর্ব কালে আনন্দ ভোগ করে ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সীদ॑ হোতঃ॒ স্বऽউ॑ লো॒কে চি॑কি॒ত্বান্ৎসা॒দয়া॑ য়॒জ্ঞꣳ সু॑কৃ॒তস্য॒ য়োনৌ॑ ।
    দে॒বা॒বীর্দে॒বান্ হ॒বিষা॑ য়জা॒স্যগ্নে॑ বৃ॒হদ্যজ॑মানে॒ বয়ো॑ ধাঃ ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সীদেত্যস্য দেবশ্রবো দেববাতাবৃষী । হোতা দেবতা । নিচৃিৎত্রষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top