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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 57
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - अदितिर्देवता छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः
    55

    उ॒खां कृ॑णोतु॒ शक्त्या॑ बा॒हुभ्या॒मदि॑तिर्धि॒या। मा॒ता पु॒त्रं यथो॒पस्थे॒ साग्निं बि॑भर्त्तु॒ गर्भ॒ऽआ। म॒खस्य॒ शिरो॑ऽसि॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒खाम्। कृ॒णो॒तु॒। शक्त्या॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। अदि॑तिः। धि॒या। मा॒ता। पु॒त्रम्। यथा॑। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। सा। अ॒ग्निम्। बि॒भ॒र्त्तु॒। गर्भे॑। आ। म॒खस्य॑। शिरः॑। अ॒सि॒ ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उखाङ्कृणोतु शक्त्या बाहुभ्यामदितिर्धिया । माता पुत्रँयथोपस्थे साग्निम्बिभर्तु गर्भ आ । मखस्य शिरो सि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उखाम्। कृणोतु। शक्त्या। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। अदितिः। धिया। माता। पुत्रम्। यथा। उपस्थ इत्युपऽस्थे। सा। अग्निम्। बिभर्त्तु। गर्भे। आ। मखस्य। शिरः। असि॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 57
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे गृहस्थ! यतस्त्वं मखस्य शिरोऽसि, तस्माद्भवान् धिया शक्त्या बाहुभ्यामुखां कृणोतु। याऽदितिस्ते स्त्री वर्त्तते, सा गर्भे यथा मातोपस्थे पुत्रं धरति, तथाऽग्निमाबिभर्त्तु॥५७॥

    पदार्थः

    (उखाम्) पाकस्थालीम् (कृणोतु) (शक्त्या) पाकविद्यासामर्थ्येन (बाहुभ्याम्) (अदितिः) जननी (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (माता) (पुत्रम्) (यथा) (उपस्थे) स्वाङ्के (सा) पत्नी (अग्निम्) अग्निमिव वर्त्तमानं वीर्य्यम् (बिभर्त्तु) (गर्भे) कुक्षौ (आ) (मखस्य) यज्ञस्य (शिरः) उत्तमाङ्गवद्वर्त्तमानः (असि)। [अयं मन्त्रः शत॰६.५.१.११ व्याख्यातः]॥५७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। कुमारौ कन्यावरौ ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षे पूर्णे कृत्वा बलबुद्धिपराक्रमयुक्तसन्तानोत्पादनाय विवाहं कृत्वा वैद्यकशास्त्ररीत्या महौषधिजं पाकं विधाय विधिवद्गर्भाधानं कृत्वोत्तरपथ्यं विदध्याताम्। परस्परं सुहृत्तया वर्त्तित्वाऽपत्यस्य गर्भाधानादिकर्माणि कुर्याताम्॥५७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे गृहस्थ पुरुष! जिस कारण तू (मखस्य) यज्ञ के (शिरः) उत्तमाङ्ग के समान (असि) है इस कारण आप (धिया) बुद्धि वा कर्म से तथा (शक्त्या) पाकविद्या के सामर्थ्य और (बाहुभ्याम्) दोनों बाहुओं से (उखाम्) पकाने की बटलोई को (कृणोतु) सिद्ध कर जो (अदितिः) जननी आपकी स्त्री है (सा) वह (गर्भे) अपनी कोख में (यथा) जैसे (माता) माता (उपस्थे) अपनी गोद में (पुत्रम्) पुत्र को सुखपूर्वक बैठावे, वैसे (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी वीर्य्य को (आबिभर्त्तु) धारण करे॥५७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कुमार स्त्रीपुरुषों को योग्य है कि ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या और अच्छी शिक्षा को पूर्ण कर, बल-बुद्धि और पराक्रमयुक्त सन्तान उत्पन्न होने के लिये वैद्यकशास्त्र की रीति से बड़ी-बड़ी ओषधियों से पाक बना के और विधिपूर्वक गर्भाधान करके पीछे पथ्य से रहें और आपस में मित्रता के साथ वर्त्त के पुत्रों के गर्भाधानादि कर्म्म किया करें॥५७॥

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    विषय

    मखस्य शिरः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र की ( सिनीवाली उखाम् ) = पाकस्थाली को ( शक्त्या ) = शक्ति के दृष्टिकोण से ( कृणोतु ) = करे, अर्थात् जिन भी भोजनों का परिपाक करे उनमें दृष्टिकोण शक्ति का हो। भोजन का मापक स्वाद व सौन्दर्य न हो, अपितु पौष्टिकता हो। ३. ( अदितिः ) = घर में सबके स्वास्थ्य को अखण्डित रखनेवाली यह गृहिणी ( बाहुभ्याम् ) = अपने हाथों से ( धिया ) = बुद्धिपूर्वक ( कृणोतु ) = इस पाक को करे। ‘बुद्धिपूर्वक करे’ का अभिप्राय यह कि समझदारी से ऋतुओं के अनुसार भोजन बनाये। ऋतुओं का विचार न करके बनाया गया भोजन स्वास्थ्य को विकृत ही तो करेगा। ३. ( माता ) = माता ( पुत्रम् ) = पुत्र को ( यथा ) = जैसे ( उपस्थे ) = गोद में धारण करती है, इसी प्रकार ( सा ) = वह गृहिणी ( अग्निम् ) = इस पाकाङ्गिन को ( गर्भे ) = अपने गर्भ में ( आबिभर्तु ) = धारण करे। माता को पुत्र प्रिय होता है, गृहिणी को पाकाङ्गिन प्रिय हो, वह भोजन को प्रेम से बनाती हो, उसे बेगार न समझती हो। ४. हे गृहिणि! वस्तुतः तू ही ( मखस्य ) = इस गृहस्थ-यज्ञ का ( शिरः असि ) = सिर है। इसका निर्भर तुझपर ही है। घर में प्रधान-स्थान पत्नी का ही होता है, वह जैसा चाहे घर को बना सकती है। तामस भोजनों के द्वारा वह सबकी वृत्ति को तामसी, राजसी भोजनों से वृत्तियों को राजसी, सात्त्विक भोजनों से वह सबके अन्तःकरणों को शुद्ध और पवित्र कर देती है। इसप्रकार घर में सर्वोपरि स्थान पत्नी का ही है। इस गृहस्थ-यज्ञ की मूल-सञ्चालिका वही है।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. पत्नी भोजनों को शक्ति के दृष्टिकोण से बनाये। २. अपने हाथों से बुद्धिपूर्वक भोजनों को बनाती हुई यह सबको स्वस्थ रखती है। ३. माता पाकाङ्गिन को अत्यन्त प्रिय वस्तु समझे, भोजन बनाने में उसे आनन्द आता हो। ४. सबके स्वास्थ्य की साधिका होने से पत्नी गृहस्थ-यज्ञ की मूर्धन्य है।

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    विषय

    हांडीके दृष्टान्त से पृथ्वी का वर्णन । मानवों की उत्पत्ति की भूमि और स्त्री का वर्णन |

    भावार्थ

    शिल्पी जिस प्रकार ( बाहुभ्याम् ) अपनी बाहुओं से ( उखां कृणोति ) मट्टी से हांडी बनाता है उसी प्रकार परमेश्वर ( धिया ) धारण आकर्षण करने वाली ( शक्त्या ) शक्ति से ( उखां ) इस पृथ्वी को (कृणोतु ) बनाता है । और ( यथा ) जिस प्रकार ( माता ) माता ( उपस्थे ) अपनी गोद में (पुत्रं आ बिभर्त्ति ) पुत्र का धारण और पालन करती है उसी प्रकार ( सा ) वह ( उखा ) पृथिवी ( गर्भे ) अपने भीतर (अग्निम् ) अग्नि के समान तेजस्वी राजा को ( आ बिभर्त्तु ) धारण करे और उसी प्रकार ( सा ) वह पृथिवी के समान ( उखा ) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ स्त्री भी ( गर्भे ) अपने गर्भ में (अग्निम् ) तेजस्वी वीर्य को ( आ बिभर्त्तु ) प्रेम से धारण करे । हे राजन् ! हे गृहपते ! तू ( मखस्य शिरः असिः ) यज्ञ और ऐश्वर्यमय राष्ट्र का शिर मुख्य है। इसी प्रकार हे गर्भगत वीर्य ! तू ( मखस्य ) शरीर रचना रूप यज्ञ का ( शिरः असि ) आश्रय रूप मुख्य अंश या प्रारम्भरूप है ।। शत० ६ । ५ । १ । ११ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।अदितिर्देवता । भुरिग् बृहती । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. तरुण व तरुणींनी ब्रह्मचर्य पाळून विद्येने युक्त होऊन चांगले शिक्षण पूर्ण करावे. बल, बुद्धी व पराक्रमयुक्त संताने उत्पन्न करावीत. त्यासाठी वैद्यकशास्त्राच्या पद्धतीने चांगली औषधे तयार करून विधिपूर्वक गर्भाधान करावे व पथ्याने राहावे. आपापसात प्रीतिपूर्वक व्यवहार करून पुत्रप्राप्तीसाठी गर्भाधान इत्यादी कार्य करावे.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे गृहस्थ पुरुषा, तू (लक्षात असू दे की तू लहान वा क्षुद्र मनुष्य नाहीस) तर तू (मखस्थ) यज्ञामधे (शिर:) उत्तमांगाप्रमाणे (म्हणजे सर्वश्रेष्ठ (असि) आहेस. तू (धिया) बुद्धिपूर्वक वा कौशल्याने कर्म करून तसेच (शक्त्या) पाकविद्येच्या ज्ञानानुसार (बाहुभ्याम्) आपल्या दोन्ही हातांनी (उखाम्) (औषधी आदी तयार करण्याच्या कामी येणार्‍या) या पातेल्याला (कृणोतु) तयार कर (वा दृढतेने धरून ठेव) तसेच (आदिति:) तुझी ही जी पत्नी आहे (सा) तिने (गर्भे) आपल्या गर्भाशयामध्ये (या औषधीच्या प्रभावामुळे (अग्निम्) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी वीर्य (बिभर्तु) धारण करोव. (या औषधीच्या सेवनामुळे आणि शक्तीशाली पतीच्या वीर्यामुळे तुला गर्भ राहो) (यथा) ज्याप्रमाणे एक माता (उपस्थे) आपल्या मांडीवर (पुत्रम्) पुत्राला सुखपूर्वक बसविते (त्याप्रमाणे तू संतानप्राप्ती साठी गर्भात वीर्य धारण कर.) ॥57॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. कुमारावस्थातील स्त्रीपुरुषांनी ब्रह्मचर्याचे पालन करीत विद्याध्ययन आणि उत्तम शिक्षण पूर्व करावे व बल, बुद्धी आणि पराक्रमाने संपन्न संतान उत्पन्न करण्यासाठी वैद्यकशास्त्रात सांगितलेल्या रीतीने मोठ्या गुणकारी औषधींचे निर्माण करावे, (शिजविण्याच्या/उकळण्याच्या/ तयार कण्याच्या पद्धतीप्रमाणे औषधी तयार कराव्यात) नंतर विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार करावा आणि त्यानंतर पथ्य पाळावे. नंतर एकमेकाशी मित्राप्रमाणे आचरण करीत आपल्या पुत्रांचेदेखील गर्भाधानादी संस्कार (वर सांगितलेल्या आणि स्वत: आपण अंगीकारलेल्या विधीप्रमाणे) करावेत ॥57॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O householder, thou art the head of domestic yajna. Prepare medicines with thy cooking skill, thy arms, and thy intellect. May thy wife bear semen in her womb, as a mother bears her son in her lap.

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    Meaning

    Young householder, you are the head of yajna. With her power, skill and intelligence, and, with her own hands, may Aditi make a tray of yajna materials for you. Just as a mother holds her baby in her lap, so may your wife hold agni, a bright and vibrating foetus, in her womb in grihastha yajna.

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    Translation

    May the Eternity shape the cauldron with her hands, with her strength and with her wisdom and bear the fire in her womb just as a mother bears her son in her lap. (1) O fire, you are the apex of the sacrifice. (2)

    Notes

    Ukha, cauldron; a sort of sauce pan; cooking pot; a boiler, Makhasya Sirah, apex of the sacrifice. Makha is a certain mythical being also. Aditi, Eternity. In legend Aditi is the mother of Adityas who are prominent gods.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে গৃহস্থ পুরুষ ! যে কারণে তুমি (মখস্য) যজ্ঞের (শিরঃ) উত্তমাঙ্গের সমান (অসি) হও, এই কারণে তুমি বুদ্ধি অথবা কর্ম দ্বারা তথা (শক্ত্যা) পাকবিদ্যার সামর্থ্য এবং (বাহুভ্যাম্) উভয় বাহু দ্বারা (উখাম্) রন্ধন করিবার পাত্রকে (কৃণোতু) প্রতিপন্ন কর । যে (অদিতিঃ) জননী তোমার স্ত্রী (সা) সে (গর্ভে) নিজ গর্ভাশয়ে, (য়থা) যথা (মাতা) মাতা (উপস্থে) নিজ ক্রোড়ে (পুতম্) পুত্রকে সুখপূর্বক বসাইবে সেইরূপ (অগ্নিম্) অগ্নিসমান তেজস্বী বীর্য্যকে (আবিভর্তু) ধারণ করিবে ॥ ৫৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । কুমারাবস্থায় স্ত্রীপুরুষের কর্ত্তব্য যে, ব্রহ্মচর্য্য সহ বিদ্যা এবং সুশিক্ষা পূর্ণ করিয়া, বল, বুদ্ধি এবং পরাক্রমযুক্ত সন্তান উৎপন্ন করিবার জন্য বৈদ্যক শাস্ত্রের পদ্ধতি দ্বারা মহৌষধির পাক করিয়া এবং বিধিপূর্বক গর্ভাধান করিয়া পশ্চাৎ পথ্য যথাবৎ করিবে এবং পরস্পর মিত্রতা সহ ব্যবহার করিয়া পুত্রদিগের গর্ভাধানাদি কর্ম্ম করিতে থাকিবে ॥ ৫৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒খাং কৃ॑ণোতু॒ শক্ত্যা॑ বা॒হুভ্যা॒মদি॑তির্ধি॒য়া ।
    মা॒তা পু॒ত্রং য়থো॒পস্থে॒ সাগ্নিং বি॑ভর্ত্তু॒ গর্ভ॒ऽআ ।
    ম॒খস্য॒ শিরো॑ऽসি ॥ ৫৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উখামিত্যস্য সিন্ধুদ্বীপ ঋষিঃ । অদিতির্দেবতা । ভুরিগ্বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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