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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 14
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - जीवेश्वरौ देवते छन्दः - भुरिग् जगती स्वरः - निषादः
    128

    ह॒ꣳसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒ष॑द् व॑र॒सदृ॑त॒सद् व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत्॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒ꣳसः। शु॒चि॒षत्। शु॒चि॒सदिति॑ शुचि॒ऽसत्। वसुः॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒सदित्य॑न्तरिक्ष॒ऽसत्। होता॑। वे॒दि॒षत्। वे॒दि॒सदिति॑ वेदि॒ऽसत्। अति॑थिः। दु॒रो॒ण॒सदिति॑ दुरोण॒ऽसत्। नृ॒षत्। नृ॒सदिति॑ नृ॒ऽसत्। व॒र॒सदिति॑ वर॒ऽसत्। ऋ॒त॒सदित्यृ॑त॒ऽसत्। व्यो॒म॒सदिति॑ व्योम॒ऽसत्। अ॒ब्जा इत्य॒प्ऽजाः। गो॒जा इति॑ गो॒ऽजाः। ऋ॒त॒जा इत्यृ॑त॒ऽजाः। अ॒द्रि॒जा इत्य॑द्रि॒ऽजाः। ऋ॒तम्। बृ॒हत् ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हँसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दूरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजाऽऋतजा अद्रिजा ऋतम्बृहत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हꣳसः। शुचिषत्। शुचिसदिति शुचिऽसत्। वसुः। अन्तरिक्षसदित्यन्तरिक्षऽसत्। होता। वेदिषत्। वेदिसदिति वेदिऽसत्। अतिथिः। दुरोणसदिति दुरोणऽसत्। नृषत्। नृसदिति नृऽसत्। वरसदिति वरऽसत्। ऋतसदित्यृतऽसत्। व्योमसदिति व्योमऽसत्। अब्जा इत्यप्ऽजाः। गोजा इति गोऽजाः। ऋतजा इत्यृतऽजाः। अद्रिजा इत्यद्रिऽजाः। ऋतम्। बृहत्॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 14
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथात्मलक्षणान्याह॥

    अन्वयः

    हे प्रजाजनाः! यूयं यो हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसन्नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहद् ब्रह्म जीवश्चास्ति, यस्तौ जानीयात् तं सभाधीशं राजानं कृत्वा सततमानन्दत॥१४॥

    पदार्थः

    (हंसः) दुष्टकर्महन्ता (शुचिषत्) शुचिषु पवित्रेषु व्यवहारेषु वर्त्तमानः (वसुः) सज्जनेषु निवस्ता तेषां निवासयिता वा (अन्तरिक्षसत्) यो धर्मावकाशे सीदति (होता) सत्यस्य ग्रहीता ग्राहयिता वा (वेदिषत्) यो वेद्यां जगत्यां यज्ञशालायां वा सीदति (अतिथिः) अविद्यमाना तिथिर्यस्य स राज्यरक्षणाय यथासमयं भ्रमणकर्त्ता (दुरोणसत्) यो दुरोणो सर्वर्त्तुसुखप्रापके गृहे सीदति सः (नृषत्) यो नायकेषु सीदति सः (वरसत्) य उत्तमेषु विद्वत्सु सीदति (ऋतसत्) य ऋते सत्ये संस्थितः (व्योमसत्) यो व्योमवद् व्यापके परमेश्वरे सीदति (अब्जाः) योऽपः प्राणान् जनयति (गोजाः) यो गाव इन्द्रियाणि पशून् वा जनयति (ऋतजाः) य ऋतं सत्यं ज्ञानं जनयति सः (अद्रिजाः) योऽद्रीन् मेघान् जनयति (ऋतम्) सत्यम् (बृहत्) महत्। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.३.१० व्याख्यातः]॥१४॥

    भावार्थः

    य ईश्वरवत्प्रजाः पालयितुं सुखयितुं शक्नुयात् स एव राजा भवितुं योग्यः स्यान्न हीदृशेन राज्ञा विना प्रजाः सुखिन्यो भवितुमर्हन्ति॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में परमात्मा और जीव के लक्षण कहे हैं॥

    पदार्थ

    हे प्रजा के पुरुषो! तुम लोग जो (हंसः) दुष्ट कर्मों का नाशक (शुचिषत्) पवित्र व्यवहारों में वर्त्तमान (वसुः) सज्जनों में बसने वा उनको बसाने वाला (अन्तरिक्षसत्) धर्म के अवकाश में स्थित (होता) सत्य का ग्रहण करने और कराने वाला (वेदिषत्) सब पृथिवी वा यज्ञ के स्थान में स्थित (अतिथिः) पूजनीय वा राज्य की रक्षा के लिये यथोचित समय में भ्रमण करने वाला (दुरोणसत्) ऋतुओं में सुखदायक आकाश में व्याप्त वा घर में रहने वाला (नृषत्) सेना आदि के नायकों का अधिष्ठाता (वरसत्) उत्तम विद्वानों की आज्ञा में स्थित (ऋतसत्) सत्याचरणों में आरुढ़ (व्योमसत्) आकाश के समान सर्वव्यापक ईश्वर में स्थित (अब्जाः) प्राणों को प्रकट करनेहारा (गोजाः) इन्द्रिय वा पशुओं को प्रसिद्ध करनेहारा (ऋतजाः) सत्य विज्ञान को उत्पन्न करने हारा (अद्रिजाः) मेघों को वर्षाने वाला विद्वान् (ऋतम्) सत्यस्वरूप (बृहत्) अनन्त ब्रह्म और जीव को जाने, उस पुरुष को सभा का स्वामी राजा बना के निरन्तर आनन्द में रहो॥१४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष ईश्वर के समान प्रजाओं को पालने और सुख देने में समर्थ हो, वही राजा होने के योग्य होता है, और ऐसे राजा के बिना प्रजाओं को सुख भी नहीं हो सकता॥१४॥

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    विषय

    प्रभु व जीव

    पदार्थ

    १. वे प्रभु ( हंसः ) = [ हन्ति पाप्मानं ] पाप को नष्ट करते हैं। ( शुचिषत् ) = पवित्र हृदय में निवास करनेवाले हैं। २. ( वसुः ) = सबको बसानेवाले हैं ( अन्तरिक्षसत् ) = मध्यममार्ग में चलनेवाले में प्रभु का निवास होता है। ३. ( होता ) = वे प्रभु सब-कुछ देनेवाले हैं। ( वेदिषत् ) = यज्ञमय जीवनवाले जीव में उस प्रभु की स्थिति है। ४. ( अतिथिः ) = वे प्रभु निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं, वे प्रभु ( दुरोणसत् ) = [ दुर्+ओण = अपनयन ] बुराइयों को दूर करनेवालों में आसीन होते हैं। ५. ( नृषत् ) = नरों में, आगे बढ़नेवालों में आसीन होते है। ६. ( वरसत् ) = वे प्रभु श्रेष्ठ व्यक्तियों में निवासवाले होते हैं। ७. ( ऋतसत् ) = जिनका जीवन नियमित [ regular ] है उनमें प्रभु का वास होता है। ८. ( व्योमसत् ) = [ वी ओम् ] गतिशीलता के कारण अपना रक्षण करनेवालों में वे प्रभु रहते हैं। ९. ( अब्जाः ) = जलों में उस प्रभु की महिमा प्रकट होती है। १०. ( गोजा ) = इस पृथिवी में वे प्रभु प्रकट होते हैं। मीलों फैले हुए रेगिस्तानों में उस प्रभु की महिमा दिखती ही है। ११. ( ऋतजा ) = वे प्रभु ऋत में, सूर्य-चन्द्रादि सभी पिण्डों की नियमित गति में दिखते हैं। १२. ( अद्रिजा ) = प्रभु की महिमा पर्वतों में प्रकट होती है— हिमाच्छादित पर्वत उसकी महिमा का गायन करते हैं। १३. ( ऋतम् ) = वे प्रभु स्वयं ऋत हैं, सत्यस्वरूप हैं। १४. ( बृहत् ) = सदा वर्धमान हैं अथवा ( ऋतं बृहत् ) = वे प्रभु पूर्ण सत्य हैं [ Absolute truth ]।

    भावार्थ

    भावार्थ — ‘त्रित’ हंस—पापनाशक प्रभु का स्मरण करता है और अपने जीवन को पवित्र बनाता हुआ अन्ततः पूर्ण सत्य बनने का प्रयत्न करता है।

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    विषय

    उसके नाना एवं और आदर।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू (हंसः) शत्रुओं का नाशक है। तू ( शुचिषत् ) शुद्ध आचरण और व्यवहार में वर्तमान, निश्छल, निर्लोभ, निष्काम स्वरूप, परायण है। तू (वसुः ) प्रजाओं को बसानेहारा है। तू (अन्तरिक्ष- सत् ) अन्तरिक्ष के समान प्रजा के ऊपर रहकर उसका पालन करता है । ( होता ) राष्ट्र से कर ग्रहण करने और अपने आपको उसके लिये युद्ध- यज्ञ में आहुति देनेवाला है। तू ( वेदिषत् ) भूमिरूप वेदि में प्रतिष्ठित है, ( अतिथि : ) राष्ट्र में राष्ट्रकार्य से बराबर भ्रमण करनेवाला, एवं अतिथि के समान सर्वत्र पूजनीय है । ( दुरोणसत ) बङे २ कष्ट सहन करके पालन योग्य राष्ट्ररूप गृह में विराजमान (नृषत् ) समस्त नेता पुरुषों में प्रतिष्ठित, ( ऋतसत्) ऋतु =सत्य पर आश्रित, ( व्योमसत्) विशेष रक्षाकारी राज- पद पर स्थित, ( अब्जाः) अप्= कर्म और प्रजा द्वारा प्रजाओं में विशेषरूप से प्रादुर्भूत, ( गोजाः ) पृथ्वी पर विशेष सामर्थ्यवान्, ( ऋतजाः ) सत्य और ज्ञान से विशेष सामर्थ्यवान्, ( अद्रिजा: ) न विदीर्ण होनेवाले अभेद्य बल से सम्पन्न या उसका उत्पादक और साक्षात् (बृहत् ) स्वयं बड़ाभारी ( ऋतम् ) सत्यरूप बल वीर्य है । शत० ५ । ४ ।३ । २२ ।। परमात्मा पक्ष में- ( हंसः ) सर्व पदार्थों को संघात करनेवाले, ( शुचिषत् ) शुद्ध पवित्र पदार्थों और योगियों के हृदयों में और पवित्र गुणों में विराजमान ! अन्तरिक्षसत् ) अन्तरिक्ष में व्यापक, ( होता ) सबका दाता, सबका गृहीता, ( अतिथिः ) पूज्य ( दुरोणसत् ) ब्रह्माण्ड में व्यापक, (नृसत् वरसत्) मनुष्यों में और वरणीय श्रेष्ठ पुरुषों के हृदयों में विराजमान, ( व्योमसत् ) आकाश में व्यापक, ( ऋतसत् ) सत्य में व्यापक ज्ञानमय, ( अब्जा ) जलों का उत्पादक, ( गोजाः ) गौ, पृथिव्यादि लोकों और इन्द्रियों का उत्पादक, ( ऋतजाः ) सत्यज्ञान वेद का उत्पादक ( अद्रिजाः ) मेव पर्वतादि का जनक, स्वयं ( बृहत् ऋतम् ) महान् सत्य- स्वरूप है । अध्यात्म में और सूर्य पक्ष में भी यह लगता है ।।शत० ६ । ७ । ३ । ११-१२॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्जीवेश्वरौ देवते । स्वराड् जगती । निषादः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो मनुष्य ईश्वराप्रमाणे प्रजेचे पालन करण्यास व सुख देण्यास समर्थ असेल तोच राजा होण्यायोग्य असतो व अशा राजाशिवाय प्रजेला कधी सुख मिळू शकत नाही.

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    विषय

    पुढील मंत्रात परमात्मा आणि जीवात्मा या विषयी वर्णन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे प्रजाजन हो, तुम्ही (अशा सद्गुणयुक्त पुरुषास सभापती राजा करा की जो) (हंस:) दुष्कर्मनाशक आहे (सुचिसत्‌) पवित्त आचरण करणारा वा सदाचारी आहे आणि (वसु:) सज्जनांच्या सत्संगात राहणारा अथवा त्यांना वसविण्यास (त्यांच्याकरिता योग्य निवासस्थानाची व्यवस्था करणारा) आहे. जो (अन्तरिक्षसत्‌) धर्माच्या मर्यादेत वागणारा असून (होता) सत्याचे ग्रहण करणारा व करविणारा आहे, जो (वेदिषत्‌) सर्व भूमीवर लक्ष ठेवणारा अथवा यज्ञवेदीवर यज्ञिक म्हणून उपस्थित असतो, जो (अतिथि:) अतिथिसम पूजनीय आहे अथवा जो राज्यरक्षण व पालनासाठी राज्यात सर्वत्र भ्रमण करणारा आहे, (दुरोणसत्‌) सर्व ऋतूंमध्ये प्रजेसाठी सुखदायक प्रबन्ध करतो अथवा जो अशा सुखद भवनात निवास करतो, जो (नृषत्‌) सैनिकांमध्ये रमणारा अथवा सेनानायकांचा अधिष्ठाता आहे (वरसत्‌) विद्वानांच्या आज्ञेप्रमाणे वागणारा असून (ऋतसत्‌) सत्याचरणासाठी कृतप्रतिज्ञ आहे, जो (व्योमसत्‌) व्यापक ईश्‍वराच्या वा जीवात्माविषयी जागरूक असून आकाशाप्रमाणे विशालहृदय आहे, जो (अब्जा:) प्राणांना प्रेरणा देणारा आणि (गोजा:) इंद्रियांचे दमन व पशूंची वृद्धी करणारा आहे, जो (ऋतजा:) सत्य विज्ञानाचा शोध करणारा व (अद्रिजा:) वृष्टी करविणाऱ्या शास्त्रांचा ज्ञाता विद्वान आहे आणि जो (ऋतम्‌) सत्य तसेच (बृहत्‌) अनंत ईश्‍वर आणि जिवात्माचे ज्ञान मिळविण्यास उद्युक्त आहे, अशा पुरुषालाच हे प्रजाजनहो, तुम्ही सभाध्यक्ष राजा करा (राज्यासाठी योग्य राजाची निवड करताना वरील कसोट्या लावा) ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वर जसा सर्वांचे कल्याण करणारा व सुखदायक आहे, तद्वत जो मनुष्य प्रजेचे पालन करीत सर्व प्रजेस सुखी ठेवतो, वा सुखी करण्यास समर्थ आहे, तोच राजा होण्यास योग्य आहे. असा राजा असेल, तरच प्रजा सुखी राहू शकते ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God is the Destroyer of evil deeds, the Embodiment of purity, the Supporter of the virtuous, Steadfast in the laws of religion, the Imbiber of Truth, Omnipresent. Adorable, Present in the minds of the people and sages, Wedded to Truth, Ubiquitous, Creator of vital breaths, animals, and the Vedas, the Bringer of clouds, True and Mighty.

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    Meaning

    Hansa is the great soul that destroys evil. It exists in purity. It lives in all and all live in it. It fills the skies and expresses in holy work. It is the giver and receiver of oblations in yajna. It sits in the vedi and in the earth. It is rambling around as a venerable visitor. It stays in the home and in the sky and all through the seasons. It rules over people and commands the commanders. It is with and above the best of people. It lives in truth and in virtuous conduct. It is in space and in the heart. It is in the waters and in the vitality of prana, and it creates the waters and the vitality. It activates the senses, moves the animals and magnetizes the earth. It creates the universal law and abides in it. It forms the mountains and the clouds and it showers with the rain. It is the truth and dynamic reality of existence, and it is great over all. (It is the man of such an individual soul, inspired by the attributes of the great supreme soul, who deserves to be the ruler. )

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    Translation

    He, the Lord, is the swan seated in cleanliness, the wind (vasu) seated in mid-space, the priest seated on the sacrificial altar, the guest accommodated in the house; He is seated in men, seated in righteousness, seated in the sky, creator of waters, creator of earth, creator of truth and creator of mountains; He is the great eternal law. (1)

    Notes

    Same ав Yv, X. 24. Sucisat, seated in cleanliness. Duronasat, seated in the house. Nrsat, seated in men. Rtasat, seated in righteousness. Abja, creator of waters; also born from waters.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথাত্মলক্ষণান্যাহ ॥
    এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে পরমাত্মা ও জীবের লক্ষণ বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে প্রজাপুরুষগণ ! তোমরা (হংসঃ) দুষ্ট কর্মের নাশক (শুচিষৎ) পবিত্র ব্যবহারে বর্ত্তমান (বসুঃ) সজ্জনদিগের মধ্যে বসবাসকারী অথবা তাহাদেরকে বসবাস করাইতে (অন্তিরক্ষসৎ) ধর্মের অবকাশে স্থিত (হোতা) সত্যের গ্রহণকারী এবং গ্রহণ করাইয়া থাকে যে (বেদিষৎ) সব পৃথিবী অথবা যজ্ঞের স্থানে স্থিত (অতিথিঃ) পূজনীয় বা রাজ্যের রক্ষা হেতু যথোচিত সময়ে ভ্রমণকারী (দুরোণসৎ) ঋতুসকলের মধ্যে সুখদায়ক আকাশে ব্যাপ্ত অথবা গৃহে নিবাসকারী (নৃষৎ) সেনাদি নায়কের অধিষ্ঠাতা (বরসৎ) উত্তম বিদ্বান্দিগের আজ্ঞায় স্থিত (ঋৃতসৎ) সত্যাচরণে আরূঢ়, (ব্যোমসৎ) আকাশের ন্যায় সর্বব্যাপক ঈশ্বর অথবা জীবস্থিত (অৱজাঃ) প্রাণ-প্রকাশক (গোজাঃ) ইন্দ্রিয় বা পশুদিগের উৎপত্তিকর্ত্তা (ঋতজাঃ) সত্যবিজ্ঞানের উৎপাদক (অদ্রিজাঃ) মেঘ বর্ষণকারী বিদ্বান্ (ঋতম্) সত্যস্বরূপ (বৃহৎ) অনন্ত ব্রহ্ম ও জীবকে জানিয়া সেই পুরুষকে সভাপতি রাজা করিয়া নিরন্তর আনন্দে থাকুন ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে পুরুষ ঈশ্বরের সমান প্রজাপালন এবং সুখ প্রদানে সমর্থ হয় সেই রাজা হওয়ার যোগ্য এবং এমন রাজা ব্যতীত প্রজাদিগের সুখও হইতে পারে না ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হ॒ꣳসঃ শু॑চি॒ষদ্ বসু॑রন্তরিক্ষ॒সদ্ধোতা॑ বেদি॒ষদতি॑থির্দুরোণ॒সৎ । নৃ॒ষ॑দ্ ব॑র॒সদৃ॑ত॒সদ্ ব্যো॑ম॒সদ॒ব্জা গো॒জাऽঋ॑ত॒জাऽঅ॑দ্রি॒জাऽঋ॒তং বৃ॒হৎ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হংস ইত্যস্য ত্রিত ঋষিঃ । জীবেশ্বরৌ দেবতে । ভুরিগ্ জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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