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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 15
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    174

    सीद॒ त्वं मा॒तुर॒स्याऽउ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैनां॒ तप॑सा॒ मार्चिषा॒ऽभिशों॑चीर॒न्तर॑स्या शु॒क्रज्यो॑ति॒र्विभा॑हि॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीद॑। त्वम्। मा॒तुः। अ॒स्याः। उ॒पस्थे॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। विश्वा॑नि। अ॒ग्ने॒। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। मा। ए॒ना॒म्। तप॑सा। मा। अ॒र्चिषा॑। अ॒भि। शो॒चीः॒। अ॒न्तः। अ॒स्या॒म्। शु॒क्रज्यो॑ति॒रिति॑ शु॒क्रऽज्यो॑तिः। वि। भा॒हि॒ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीद त्वम्मातुरस्या उपस्थे विश्वान्यग्ने वयुनानि विद्वान् । मैनान्तपसा मार्चिषाभिशोचीरन्तरस्याँ शुक्रज्योतिर्वि भाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सीद। त्वम्। मातुः। अस्याः। उपस्थे इत्युपऽस्थे। विश्वानि। अग्ने। वयुनानि। विद्वान्। मा। एनाम्। तपसा। मा। अर्चिषा। अभि। शोचीः। अन्तः। अस्याम्। शुक्रज्योतिरिति शुक्रऽज्योतिः। वि। भाहि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मातृकृत्यमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वमस्यां मातरि सत्यां विभाहि प्रकाशितो भवास्या भूमेरिव शुक्रज्योतिर्विद्वान् मातुरुपस्थे सीद। अस्याः सकाशाद् विश्वानि वयुनानि प्राप्नुहि। एनामन्तर्मा तपसार्चिषा माभिशोचीः किन्त्वेतच्छिक्षां प्राप्य विभाहि॥१५॥

    पदार्थः

    (सीद) तिष्ठ (त्वम्) (मातुः) जनन्याः (अस्याः) प्रत्यक्षाया भूमेरिव (उपस्थे) समीपे (विश्वानि) सर्वाणि (अग्ने) विद्यामभीप्सो (वयुनानि) प्रज्ञानानि (विद्वान्) यो वेत्ति सः (मा) (एनाम्) (तपसा) सन्तापेन (मा) (अर्चिषा) तेजसा (अभि) (शोचीः) शोकयुक्तां कुर्याः (अन्तः) आभ्यन्तरे (अस्याम्) मातरि (शुक्रज्योतिः) शुक्रं शुद्धाचरणं ज्योतिः प्रकाशो यस्य सः (वि) (भाहि) प्रकाशय। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.३.१५ व्याख्यातः]॥१५॥

    भावार्थः

    यो विदुष्या मात्रा विद्यासुशिक्षां प्रापितो मातृसेवको जननीवत् प्रजाः पालयेत्, स राज्यैश्वर्येण प्रकाशेत॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    माता का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्या को चाहने वाले पुरुष! (त्वम्) आप (अस्याम्) इस माता के विद्यमान होने पर (विभाहि) प्रकाशित हो (शुक्रज्योतिः) शुद्ध आचरणों के प्रकाश से युक्त (विद्वान्) विद्यावान् आप (अस्याः) इस प्रत्यक्ष पृथिवी के समान आधार रूप (मातुः) इस माता की (उपस्थे) गोद में (सीद) स्थित हूजिये। इस माता से (विश्वानि) सब प्रकार की (वयुनानि) बुद्धियों को प्राप्त हूजिये। (एनाम्) इस माता को (अन्तः) अन्तःकरण में (मा) मत (तपसा) सन्ताप से तथा (अर्चिषा) तेज से (मा) मत (अभिशोचीः) शोकयुक्त कीजिये, किन्तु इस माता से शिक्षा को प्राप्त होके प्रकाशित हूजिये॥१५॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् माता के द्वारा विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त किया हुआ, माता का सेवक, जैसे माता पुत्रों को पालती है, वैसे प्रजाओं का पालन करे, वह पुरुष राज्य के ऐश्वर्य्य से प्रकाशित होवे॥१५॥

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    विषय

    माता की गोद में

    पदार्थ

    १. प्रभु त्रित से कहते हैं— ( त्वम् ) = तू ( अस्याः ) = इस ( मातुः ) = वेदमाता—मुझसे तेरे लिए प्रस्तुत की गई वेदवाणी की ( उपस्थे ) = गोद में ( सीद ) = बैठ। वेदवाणी की गोद में बैठना, अर्थात् तदनुसार अपना आचरण बनाना तेरा ध्येय हो। २. इसकी गोद में बैठकर हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील जीव! तू ( विश्वानि वयुनानि ) = सब प्रज्ञानों को ( विद्वान् ) = जाननेवाला हो। यह वेदवाणी सब सत्य विद्याओं का भण्डार है, अतः इसकी उपासना तुझे सब ज्ञानों को प्राप्त कराएगी ही। ३. ( एनाम् ) = इसे ( तपसा ) = तपस्वी जीवन से तथा ( अर्चिषा ) = ज्ञान की ज्योतियों से ( मा अभिशोची ) = मत सन्तप्त कर, अर्थात् तू इतना तपस्वी व ज्ञानी बन कि यह वेदमाता सदा तुझसे प्रसन्न रहे। ‘बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति’ = अल्पश्रुत व्यक्ति से वेद भयभीत होता है कि यह मेरा ग़लत अर्थ न कर दे, अतः तू बहुश्रुत व तपस्वी बनना, जिससे तू वेदमाता के ठीक स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाला हो सके। ४. ( अस्याम् अन्तः ) = इस वेदवाणी के अन्दर रहता हुआ ( शुक्रज्योतिः ) = [ शुक् गतौ ] गतिमय ज्ञानवाला तू ( विभाहि ) = विशेषरूप से दीप्त हो। तू वेदज्ञान प्राप्त कर और उसके अनुसार क्रियाशील हो। तू मस्तिष्क में इस वेदवाणी का विचार कर—तेरी वाणी से इसी का उच्चारण हो और क्रिया में इसी का आचरण हो। ऐसा होने पर ही तेरी विशिष्ट शोभा होगी। तू वेदमाता का सच्चा पुत्र होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — मेरा जीवन वेदमय हो। वेदमाता का मैं सुपुत्र बनूँ। उसी के गोद में मेरा पालन व पोषण हो। मैं अपनी तपस्या व ज्ञान से इसे प्रसन्न करनेवाला होऊँ।

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    विषय

    पुत्र के समान पृथ्वी माता के प्रति राजा की स्थिति और कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( मातुः ) माता के ( उपस्थे ) समीप जिस प्रकार विद्वान् पुत्र विराजता है और उसके सुख का कारण होता है, इसी प्रकार, हे (अग्ने) ! सूर्य के समान तेजस्विन् ! हे राजन् ! ( त्वम् ) तू ( मातुः ) अपने बनाने वाले, उत्पादक ज्ञानवान् गुरु, अथवा भूमि के, या प्रजा के ( उपस्थे ) समीप, उसके पृष्ठ पर ( विश्वानि वयुनानि ) समस्त उत्कृष्ट ज्ञानों को जानता हुआ ( सीद ) विराजमान हो । ( एनाम् ) उसको (तपसा ) तप से, तापजनक ( अर्चिषा ) उबाला के समान शस्त्र बल से ( मा अभि- शोची :) संतप्त मत कर। तू (अस्यां अन्तः ) उसके भीतर ( शुक्र ज्योतिः ) शुद्ध, प्रकाशवान्, तेजस्वी, बलवान् एक निष्पाप रीति से ऐश्वर्यवान् होकर ( विभाहि) विविध रूपों से प्रकाशित हो । शत० ६ । ७ । ३ । १५ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्याला विदुषी मातेने विद्या व चांगले शिक्षण यांनी युक्त केलेले असेल व जो मातेची सेवा करीत असेल किंवा माता जसे पुत्राचे पालन करते तसे प्रजेचे पालन करणारा असेल अशा पुरुषाने राजा व्हावे व ऐश्वर्य भोगावे.

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    विषय

    यानंतर मातेच्या कर्तव्यांविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्याभ्यासी पुरुष (त्वम्‌) आपण (अस्याम्‌) या मातेच्या आश्रयात वा तिच्या उपस्थितीमुळे (विभाहि) प्रकाशित व्हा (आईच्या आशीर्वादामुळे कीर्तिमंत व्हा) (शुक्रज्योति:) आपण शुद्धाचरणी असल्यामुळे यशवंत (विद्वान) विद्वान आहात, म्हणून आपण (मातु:) या मातेच्या (उपस्थे) जवळ वा कुशीत (सीद) बसा या मातेकडून (विश्‍वानि) सर्वप्रकारचे उत्कृष्ट विचार प्राप्त करा. या मातेच्या (अन्त:) अंत: करणाला (तपसा) अधिक संतापाद्वारे आणि (अर्चिषा तेजाद्वारे (मा) अभिशोची:) कधीही संतप्त वा दु:खी करूं नका. उलट या मातेकडून चांगले शिक्षण व संस्कार घेऊन अधिकाधिक यशवंत व्हा.

    भावार्थ

    भावार्थ - विदुषी मातेद्वारा उत्तम विद्या आणि सुशिक्षा देऊन व सुसंस्कारित झालेला एक सेवक प्रजेचे पालन कशा प्रकारे करतो? जशी एक माता आल्या पुत्रांचे लालन पालन करते. असा राजाच ऐश्‍वर्यशाली होतो ॥15॥

    टिप्पणी

    (टीप: - याठिकाणी माता या शब्दाचा लाक्षणिक अर्थ भूमी घेऊन राजा वा राष्ट्राध्यक्षाला उपदेश केला आहे, असाही अर्थ व्यक्त होत आहे) ॥15

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O aspirant after knowledge, shine thou in the presence of thy mother. Filled with the lustre of pure character and knowledge, sit in the lap of this thy mother, thy support like earth. Learn from her all holy ordinances. Never think of putting her to grief with distress and violence.

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    Meaning

    Agni/Ruler/individual soul, you know all the ways of the world. Sit in the lap of this mother earth/ mother-land/mother. Don’t hurt her with the heat of your power and passion. Don’t dazzle her with the beams of your knowledge. Light of knowledge and power of vitality, be in the heart of the mother and shine there with the light of life.

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    Translation

    O fire divine, knowing all worth knowing, be seated in the lap of this mother. Do not scorch her with your intense heat. Within her, may you shine with your pure and bright light. (1)

    Notes

    Visvani vayunani, सर्वाणि प्रज्ञानानि, all that is worth knowing. Arcisa, ज्वालय, with your flame. Tapasa, with heat. Sukrajyotih, one having bright light.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মাতৃকৃত্যমাহ ॥
    মাতার কর্ম্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্যা কামনাকারী পুরুষ । (ত্বম্) আপনি (অস্যাম্) এই মাতার বিদ্যমানতায় (বিভাহি) প্রকাশিত হউন (শুক্রজ্যোতিঃ) শুদ্ধ আচরণের প্রকাশ দ্বারা যুক্ত (বিদ্বান্) বিদ্যাবান্ আপনি (অস্যাঃ) এই প্রত্যক্ষ পৃথিবী সম আধার (মাতুঃ) এই মাতার (উপস্থে) ক্রোড়ে (সীদ) স্থিত হউন । এই মাতা হইতে (বিশ্বানি) সর্বপ্রকার (বয়ুনানি) বুদ্ধি প্রাপ্ত হউন । (এনাম্) এই মাতাকে (অন্তঃ) অন্তঃকরণে (মা) না (তপসা) সন্তাপ দ্বারা তথা (অর্চিষা) তেজ দ্বারা (মা) না (অভিশোচীঃ) শোকযুক্ত করুন । কিন্তু এই মাতা হইতে শিক্ষা প্রাপ্ত হইয়া প্রকাশিত হউন ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিদুষী মাতা বিদ্যা সুশিক্ষাযুক্ত মাতৃসেবককে যেরূপ জননীবৎ পালন করে সেইরূপ প্রজাদিগকে পালন করিবে । সেই পুরুষ রাজার ঐশ্বর্য্য দ্বারা প্রকাশিত হইবে ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সীদ॒ ত্বং মা॒তুর॒স্যাऽউ॒পস্থে॒ বিশ্বা॑ন্যগ্নে ব॒য়ুনা॑নি বি॒দ্বান্ । মৈনাং॒ তপ॑সা॒ মার্চিষা॒ऽভি শো॑চীর॒ন্তর॑স্যাᳬं শু॒ক্রজ্যো॑তি॒র্বি ভা॑হি ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সীদ ত্বমিত্যস্য ত্রিত ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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