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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 39
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
63
पुन॑रा॒सद्य॒ सद॑नम॒पश्च॑ पृथि॒वीम॑ग्ने। शेषे॑ मा॒तुर्यथो॒पस्थे॒ऽन्तर॑स्या शि॒वत॑मः॥३९॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑। आ॒सद्येत्या॒ऽसद्य॑। सद॑नम्। अ॒पः। च॒। पृ॒थि॒वीम्। अ॒ग्ने॒। शेषे॑। मा॒तुः। यथा॑। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अ॒न्तः। अ॒स्या॒म्। शि॒वत॑म॒ इति॑ शि॒वऽत॑मः ॥३९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरासद्य सदनमपश्च पृथिवीमग्ने । शेषे मातुर्यथोपस्थे न्तरस्याँ शिवतमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पुनः। आसद्येत्याऽसद्य। सदनम्। अपः। च। पृथिवीम्। अग्ने। शेषे। मातुः। यथा। उपस्थ इत्युपऽस्थे। अन्तः। अस्याम्। शिवतम इति शिवऽतमः॥३९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मातापित्रपत्यानि परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने! यतस्त्वमपः पृथिवीं च सदनं पुनरासद्यास्यामन्तः शिवतमः सन् यथा बालो मातुरुपस्थे शेषे तस्मादस्यां शिवतमो भव॥३९॥
पदार्थः
(पुनः) (आसद्य) आगत्य (सदनम्) गर्भस्थानम् (अपः) (च) भोजनादिकम् (पृथिवीम्) भूमितलम् (अग्ने) इच्छादिगुणप्रकाशित (शेषे) स्वपिषि (मातुः) जनन्याः (यथा) (उपस्थे) उत्सङ्गे (अन्तः) आभ्यन्तरे (अस्याम्) मातरि (शिवतमः) अतिशयेन मङ्गलकारी। [अयं मन्त्रः शत॰६.८.२.६ व्याख्यातः]॥३९॥
भावार्थः
पुत्रैर्यथा मातरः स्वापत्यानि सुखयन्ति, तथैवानुकूलया सेवया स्वमातरः सततमानन्दयितव्याः। न कदाचिन्मातापितृभ्यां विरोधः समाचरणीयः, न च मातापितृभ्यामेतेऽधर्मकुशिक्षायुक्ताः कदाचित् कार्य्याः॥३९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब माता-पिता और पुत्र आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अग्ने)! इच्छा आदि गुणों से प्रकाशित जन! जिस कारण तू (अपः) जलों (च) और (पृथिवीम्) भूमितल के (सदनम्) स्थान को (पुनः) फिर-फिर (आसद्य) प्राप्त होके (अस्याम्) इस माता के (अन्तः) गर्भाशय में (शिवतमः) मङ्गलकारी होके (यथा) जैसे (मातुः) माता की (उपस्थे) गोद में (शेषे) सोता है, वैसे ही माता की सेवा में मङ्गलकारी हो॥३९॥
भावार्थ
पुत्रों को चाहिये कि जैसे माता अपने पुत्रों को सुख देती है, वैसे ही अनुकूल सेवा से अपनी माताओं को निरन्तर आनन्दित करें और माता-पिता के साथ विरोध कभी न करें और माता-पिता को भी चाहिये कि अपने पुत्रों को अधर्म और कुशिक्षा से युक्त कभी न करें॥३९॥
विषय
माता की गोद में
पदार्थ
गत मन्त्र की भावना का ही विस्तार करते हुए प्रभु ‘विरूप’ से कहते हैं कि [ १ ] ज्ञान-प्राप्ति के बाद ( पुनः ) = फिर ( सदनम् ) = सम्पूर्ण संसार के कारण उस ब्रह्म में ( अपः ) = प्रजाओं व कर्मों में ( पृथिवी च ) = और विशाल हृदयान्तरिक्ष में ( आसद्य ) = स्थित होकर हे ( अग्ने ) = प्रकाश के प्रसारक विद्वन्! तू ( अस्यां अन्तः ) = इस प्रजा में ( शेषे ) = इस प्रकार निवास करता है ( यथा ) = जैसे कोई बालक ( मातुः उपस्थे ) = माता की गोद में शयन करता हो। तू प्रजाओं से दूर नहीं भागता। प्रजाओं में निवास करता हुआ तू अशान्ति अनुभव नहीं करता। २. तू इन प्रजाओं में ही स्थित हुआ ( शिवतमः ) = उनका अधिक-से-अधिक कल्याण करता है। अज्ञानवश गालियाँ देनेवालों को भी तू आशीर्वाद ही देता है।
भावार्थ
भावार्थ — विद्वान् संन्यासी प्रजाओं में ज्ञान फैलाते हुए उनका अधिक-से-अधिक कल्याण करता है।
विषय
माता की गोद में बालक के समान पृथ्वी पर राजा की सिंहासन पर स्थिति ।
भावार्थ
( यथा ) जिस प्रकार ( मातुः उपस्थे ) माता की गोद मैं बालक सोता है, उसी प्रकार हे ( अग्ने ) राजन् ! तेजस्विन् ! तू भी ( पुनः ) फिर अपने ( सदनम् )सिंहासन पर ( आसद्य ) बैठकर पृथिवों को (आसद्य ) प्राप्त ( अपः पृथिवीम् ) समस्त प्रजाओं और कर उसपर अधिष्ठित होकर (अस्याम् ) इस पृथिवी के भीतर (शिवतमः) सबसे अधिक कल्याणकारी होकर ( शेषे ) व्याप्त, प्रसुप्त, गम्भीर होकर रह ॥ शत० ६ । ८ । २ । ६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्ऋषिः । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ज्याप्रमाणे माता आपल्या पुत्रांना सुख देते त्याप्रमाणेच पुत्रांनी त्यांच्या अनुकूल सेवा करून आपल्या मातांना सदैव आनंदित करावे. माता व पिता यांना कधी विरोध करू नये, तसेच माता आणि पिता यांनीही आपल्या पुत्रांना अधर्माचे वाईट शिक्षण कधीही देऊ नये.
विषय
यानंतर, माता, पिता आणि पुत्र, या सर्वांना एकमेकाशी कसे वागावे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने) इच्छा आदी गुणांनी युक्त हे विद्वान मनुष्य तू (अप:ऽ) जलात (पृथिवीम्) पृथ्वी- वरील पदार्थात (च) आणि (सदनं) गर्भाला (पुन:) पुन्हा-पुन्हावा वारंवार (आसद्य) प्राप्त होऊन (अस्थाम्) या मातेच्या (अन्त:) गर्भाशयात (शिमतम:) मंगलकारी होऊन (वा होण्यासाठी पुन:पुन: येशील, हे जाणून घे) आणि (यथा) ज्याप्रमाणे एक बालक (मातृ:) आर्सच्या (उपस्थे) मांडीवर (शेषे) झोपतो. त्याप्रमाणे तू मातेची सेवा करण्यासाठी मंगलकारी होऊन (पुन्हा गर्भात येशील, हे जाणून घे) ॥39॥
भावार्थ
भावार्थ - पुत्रांचे कर्तव्य आहे की ज्याप्रमाणे माता आपल्या मुलाला सुखी व आनंदी करते, तसे पुत्रांनी आपल्या प्रेमपूर्ण सेवेद्वारे मातेलाही सुखी व प्रसन्न ठेवावे. आणि कदापि आई-वडिलांचा विरोध करूं नये. तसेच माता-पित्यांनाही आवश्यक आहे की त्यांनी आपल्या मुलांना अधर्म आणि कुशिक्षा कदापि शिकवूं नये ॥39॥
टिप्पणी
(टीप : या मंत्राच्या हिंदी भाष्यात ‘ताप:’ ‘पृथिवीम्’ ‘चे’ ‘सदन’ चार शब्दांना अधोरेखीत केला आहे)
इंग्लिश (3)
Meaning
O soul, having reached the womb, again and again, thou auspiciously liest in thy mother, as a child sleeps in her mothers lap.
Meaning
Agni, soul with the desire and will to live in the forms of existence, again and again you come to find a place in the celestial waters of space. Again and again you descend to the earth to attain herbal forms of life. Then again you enter the mother’s womb and rest there to grow as a part of her life within. When you are born, you sleep in her lap in peace and joy. Noble soul, be good to the mother, be the darling of her love, joy and fulfilment.
Translation
O fire divine, having reached your abode, the waters and the earth, the most propitious, sleep as if in the lap of the mother. (1)
बंगाली (1)
विषय
অথ মাতাপিত্রপত্যানি পরস্পরং কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
এখন মাতা-পিতা ও পুত্র পরস্পর কীভাবে ব্যবহার করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) ইচ্ছাদি গুণ দ্বারা প্রকাশিত ব্যক্তিগণ ! যে কারণে তোমরা (অপঃ) জল (চ) এবং (পৃথিবীম্) ভূমিতলের (সদনম্) স্থানকে (পুনঃ) পুনঃ পুনঃ (আসদ্য) প্রাপ্ত হইয়া (অস্যাম্) এই মাতার (অন্তঃ) গর্ভাশয়ে (শিবতমঃ) মঙ্গলকারী হইয়া (য়থা) যেমন বালক (মাতুঃ) মাতার (উপস্থে) কোলে (শেষে) শয়ন করে সেইরূপ মাতার সেবায় মঙ্গলকারী হও ॥ ৩ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- পুত্রদিগের উচিত যে, যেমন মাতা স্বীয় পুত্রদের সুখ প্রদান করে সেইরূপ অনুকূল সেবা দ্বারা নিজ নিজ মাতাদেরকে নিরন্তর আনন্দিত করিবে এবং মাতা-পিতা সহ কখনও বিরোধ করিবে না এবং মাতা-পিতারও উচিত যে, স্বীয় পুত্রদেরকে অধর্ম ও কুশিক্ষা সহ যুক্ত কখনও করিবে না ॥ ৩ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পুন॑রা॒সদ্য॒ সদ॑নম॒পশ্চ॑ পৃথি॒বীম॑গ্নে ।
শেষে॑ মা॒তুর্য়থো॒পস্থে॒ऽন্তর॑স্যাᳬं শি॒বত॑মঃ ॥ ৩ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পুনরাসদ্যেত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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