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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 46
ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
129
सं॒ज्ञान॑मसि काम॒ध॑रणं॒ मयि॑ ते काम॒धर॑णं भूयात्। अ॒ग्नेर्भस्मा॑स्य॒ग्नेः पुरी॑षमसि॒ चित॑ स्थ परि॒चित॑ऽऊर्ध्व॒चितः॑ श्रयध्वम्॥४६॥
स्वर सहित पद पाठसं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒सि॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। मयि॑। ते॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। भू॒या॒त्। अ॒ग्नेः। भस्म॑। अ॒सि॒। अ॒ग्नेः। पुरी॑षम्। अ॒सि॒। चितः॑। स्थ॒। प॒रि॒चित॒ इति॑ परि॒ऽचितः॑। ऊ॒र्ध्व॒चित॒ इत्यू॑र्ध्व॒ऽचितः॑। श्र॒य॒ध्व॒म् ॥४६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सञ्ज्ञानमसि कामधरणम्मयि ते कामधरणम्भूयात् । अग्नेर्भस्मास्यग्नेः पुरीषमसि चित स्थ परिचितऽऊर्ध्वचितः श्नयध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
संज्ञानमिति सम्ऽज्ञानम्। असि। कामधरणमिति कामऽधरणम्। मयि। ते। कामधरणमिति कामऽधरणम्। भूयात्। अग्नेः। भस्म। असि। अग्नेः। पुरीषम्। असि। चितः। स्थ। परिचित इति परिऽचितः। ऊर्ध्वचित इत्यूर्ध्वऽचितः। श्रयध्वम्॥४६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अध्येत्रध्यापकाः किं कृत्वा सुखिनः स्युरित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! त्वं यत्संज्ञां प्राप्तोऽसि, यत् त्वमग्नेर्भस्मास्याग्नेर्यत्पुरीषमाप्तोऽसि तन्मां प्रापय। यस्य ते तव यत्कामधरणमस्ति तत्कामधरणं मयि भूयाद्, यथा यूयं विद्यादिशुभगुणैश्चितः परिचितः ऊर्ध्वचितः स्थ पुरुषार्थं चाश्रयध्वम्, तथा वयमपि भवेम॥४६॥
पदार्थः
(संज्ञानम्) सम्यग्विज्ञानम् (असि) (कामधरणम्) संकल्पानामाधरणम् (मयि) (ते) तव (कामधरणम्) (भूयात्) (अग्नेः) पावकस्य (भस्म) दग्धदोषः (असि) (अग्नेः) विद्युतः (पुरीषम्) पूर्णं बलम् (असि) (चितः) सञ्चिताः (स्थ) भवत (परिचितः) परितः सर्वतः सञ्चेतारः (ऊर्ध्वचितः) ऊर्ध्वं सञ्चिन्वन्तः (श्रयध्वम्) सेवध्वम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.१.१.८-१४ व्याख्यातः]॥४६॥
भावार्थः
जिज्ञासवः सदा विदुषां सकाशाद्विद्याः प्रार्थ्य पृच्छेयुर्यावद् युष्मासु पदार्थविज्ञानमस्ति, तावत् सर्वमस्मासु धत्त। यावतीर्हस्तक्रिया भवन्तो जानन्ति, तावतीरस्मान् शिक्षत, यथा वयं भवदाश्रिता भवेम, तथैव भवन्तोऽप्यस्माकमाश्रयाः सन्तु॥४६॥
हिन्दी (3)
विषय
पढ़ने-पढ़ाने वाले क्या करके सुखी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! आप जिस (संज्ञानम्) पूरे विज्ञान को प्राप्त (असि) हुए हो, जो आप (अग्नेः) अग्नि से हुई (भस्म) राख के समान दोषों के भस्मकर्त्ता (असि) हो, (अग्नेः) बिजुली के जिस (पुरीषम्) पूर्ण बल को प्राप्त हुए (असि) हो, उस विज्ञान, भस्म और बल को मेरे लिये भी दीजिये। जिस (ते) आप का जो (कामधरणम्) सङ्कल्पों का आधार अन्तःकरण है, वह (कामधरणम्) कामना का आधार (मयि) मुझ में (भूयात्) होवे। जैसे तुम लोग विद्या आदि शुभगुणों से (चितः) इकट्ठे हुए (परिचितः) सब पदार्थों को सब ओर से इकट्ठे करने हारे (ऊर्ध्वचितः) उत्कृष्ट गुणों के संचयकर्त्ता पुरुषार्थ को आप (श्रयध्वम्) सेवन करो, वैसे हम लोग भी करें॥४६॥
भावार्थ
जिज्ञासु मनुष्यों को चाहिये कि सदैव विद्वानों से विद्या की इच्छा कर प्रश्न किया करें कि जितना तुम लोगों में पदार्थों का विज्ञान है, उतना सब तुम लोग हम लोगों में धारण करो और जितना हस्तक्रिया आप जानते हैं, उतनी सब हम लोगों को सिखाइये, जैसे हम लोग आपके आश्रित हैं, वैसे ही आप भी हमारे आश्रय हूजिये॥४६॥
विषय
ज्ञान व सेवा
पदार्थ
१. प्रभु गत मन्त्र के अनुसार वासनाओं को दूर करनेवाले सोमाहुति से कहते हैं कि ( संज्ञानम् असि ) = तू उत्तम ज्ञानवाला है। उस ज्ञानवाला है जिस ज्ञान से देवलोग परस्पर प्रेमपूवर्क मिलकर चलते हैं, जिस ज्ञान से वासना ‘प्रेम’ में परिवर्तित हो जाती है। २. ( कामधरणम् ) = काम का तू धरणकर्त्ता है—काम को तू नियन्त्रणपूर्वक अपने में धारण करनेवाला है। ( मयि ) = मुझ प्रभु में ( ते ) = तेरा ( कामधरणम् ) = काम [ इच्छा ] का धारण ( भूयात् ) = हो, अर्थात् तू मेरी प्राप्ति की कामनावाला बन। जीवन का लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति हो। सब क्रियाएँ इसी उद्देश्य से की जाएँ। ३. ( अग्नेः ) = अग्रेणी प्रभु का तू ( भस्म ) = दीपन करनेवाला ( असि ) = है, अर्थात् तू अपने हृदय-मन्दिर में प्रभु की ज्योति को जगाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। ४. ( अग्नेः पुरीषम् असि ) = तू उस प्रभु के [ पढ पालनपूरणयोः ] पालनात्मक कर्म को करनेवाला है। ५. इस पालनात्मक कर्म को करनेवाले तुम लोग ( चितःस्थ ) = ज्ञानी हो। ज्ञानी पुरुष ही ठीक पालन कर पाता है, अज्ञान में तो वह भला करना चाहता हुआ भी बुरा कर बैठता है। ६. ( परिचितः ) = तुम लोगों के परिचयवाले बनते हो, उनकी मनोवृत्ति को समझते हो। मनोविज्ञान को न समझनेवाले व्यक्ति कल्याण करने के प्रकार में ग़लती कर जाते हैं। ७. ( ऊर्ध्वचितः ) = उत्कृष्ट ज्ञानवाले हो, अथवा ज्ञान के द्वारा लोगों को उत्कृष्ट स्थिति में प्राप्त करानेवाले हो। ८. ( श्रयध्वम् ) = [ श्रिञ् सेवायाम् ] तुम लोगों की सेवा करनेवाले बनो। लोकहित ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य हो।
भावार्थ
भावार्थ — ज्ञानी बनो। प्रभु-प्राप्ति की कामना करो। ज्ञानी बनकर लोकसेवक बनो।
भावार्थ
हे अग्ने ! विद्वन् ! तू ( संज्ञानम् असि ) समस्त प्रजा को ज्ञान देनेहारा है । (ते ) तेरा ( कामधरणं ) अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने का जो सामर्थ्य है वह ( मयि ) मेरे में भी ( कामधरणं भूयात् ) मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला हो । हे विद्वन् ! तू ( अग्नेः) अग्रणी, नेता पुरुष का ( भस्म असि ) भस्म अर्थात् तेजःस्वरूप है ( अग्नेः पुरीषम् असि ) तेजस्वी सूर्य का लक्ष्मीसम्पन्न समृद्ध रूप है हे प्रजाओ ! एवं अधिकारी पुरुषो! आप लोग (चितः स्थ) ज्ञानवान् हो । आप लोग ( परिचित ) सब ओर से ज्ञान संग्रह करनेहारे और ( ऊर्ध्व- चितः स्थ) उच्च पद मोक्ष का प्रवचन या ज्ञान करनेहारे भी हो। आप लोग (श्रयध्वम् ) इप राष्ट्र में सुख से आश्रय पाइये। अथवा - हे (परिश्रितः) राजा के आश्रित एवं उसके रक्षक प्रजा के सभासद् पुरुषो ! आप लोग ( चितः स्थ) विज्ञानवान् एवं धन सञ्चय करने में कुशल हैं। ( परिचितः स्थ ) सब ओर से उत्तम पदार्थों के संग्रहशील एवं ( ऊर्ध्वचितः ) उत्कृष्ट पदार्थों के संग्रहशील हो । आप लोग सन्चित ईंटों के समान राष्ट्र की भित्ति में (श्रयध्वम्) एक दूसरे के आश्रय बनकर रहो । या राजा का आश्रय करके रहो, उसकी सेवा करो ॥ शत० ७।१ ।१।८ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जिज्ञासू लोकांनी विद्वानांकडून विद्या शिकण्याची इच्छा बाळगावी व त्यांना प्रश्न विचारावेत आणि विनंती करावी, की तुम्हाला पदार्थांचे जेवढे ज्ञान आहे तेवढे आम्हाला द्या व जेवढी कला तुम्ही जाणता तेवढी आम्हाला शिकवा.
विषय
अध्ययन - अध्यापन करणाऱ्यांनी सुखी होण्यासाठी काम करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (जिज्ञासूजन विद्वानास म्हणतात) हे विद्वन् आपण जे (संज्ञानम्) संपूर्ण ज्ञान प्राप्त केले (असि) आहे त्या ज्ञानाने आपण (अग्ने:) अग्नीने जाळून (भस्म) केलेल्या (पदार्थांच्या) राखेप्रमाणे दोषांना भस्म करणारे (असि) आहात. आपण ज्या (अग्ने:) विद्युतेच्या (पुरीषम्) पूर्ण शक्तीचे ज्ञान प्राप्त केलेले (असि) आहात, ते विज्ञान आणि ती शक्ती मला (जिज्ञासू विद्यार्थी वा अभ्यासकाला) द्या. (ते) आपला (कामधरणम्) सर्व संकल्पांचा आधार जे आपले अंत:करण (दृढता व चिकाटी) आहे, त्या स्वरूपाचे अंत:करण (दृढ निश्चय) (मयि) माझ्यातही (भूयात्) व्हावे. ज्याप्रमाणे तुम्ही विज्ञान-ज्ञानशील लोक विद्या आदी शुभगुणांमुळे (सद्गुणांचे समानत्व असल्यामुळे) (चित:) एकत्र आला आहात. आणि (परिचित:) सर्व शतव्य पदार्थ एकत्र करून (उर्ध्वचित:) (त्या पदार्थांतील) उत्कृष्ट गुणांच्या शोध व संचय करणाऱ्या पुरुषार्थी जनाच्या (पदार्थातील गुण व लाभ जाणून घेण्यासाठी) (श्रमध्वम्) जवळ जाता, त्याप्रमाणे आम्ही जिज्ञासूजनांनी देखील जायला हवे. ॥46॥
भावार्थ
भावार्थ - जिज्ञासू लोकांनी विद्येविषयी अधिक जाणण्याची इच्छा करून सदैव विद्वानांजवळ जाऊन प्रश्न विचारावेत. (त्यांना म्हणावे की) तुम्हाला पदार्थांविषयी जे जेवढे ज्ञान आहे, ते तुम्ही आम्हाला द्या आणि जी जी हस्तविद्या, शिल्प आदी तुम्हाला येते, ती ती आम्हाला दाखवा (आणि शिकवून शिल्पी बनवा) ॥46॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned teacher, thou art the embodiment of knowledge. May I obtain thy strength for the accomplishment of wishes. Thou removest my evils as the fire reduces the fuel to ashes. Thou art full of strength like the lightning. Give me that strength. O pupils, ye are the achievers of knowledge, ye are the observers of the real spirit of religion, hence always follow religion.
Meaning
Agni, man of knowledge, having passed through the crucibles of fire like ash, you are knowledge itself, full and complete like the orb of the sun and powerful like the force of electricity. May your plans, intentions and aspirations pass on to me as mine. Be wide-awake, collect knowledge from all round, go forward and take it to the heights. Be cooperative, mutually dependent, collectively self-dependent. Take to knowledge and to the teachers.
Translation
You аге the comprehensive knowledge, fulfiller of one's wishes. May your wishes be fulfilled in me. (1) You are the glow of fire; you are the mould of fire. (2) You put in order; you put in order all around; you put in order right upward; may it be a shelter for you. (3)
Notes
Bhasma, from भस भर्त्सनदीप्त्यो:, to rebuke; to shine; to glow. Purisam, mould.
बंगाली (1)
विषय
অধ্যেত্রধ্যাপকাঃ কিং কৃত্বা সুখিনঃ স্যুরিত্যাহ ॥
পঠন-পাঠনকারী কী করিয়া সুখী হইবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! আপনি যে (সংজ্ঞানম্) পূর্ণ বিজ্ঞানকে প্রাপ্ত (অসি) হইয়াছেন আপনি (অগ্নেঃ) অগ্নি হইতে জাত (ভস্ম) ভস্ম সমান দোষগুলিকে নষ্ট করেন, (অগ্নেঃ) বিদ্যুতের যে (পুরীষম্) পূর্ণ বল প্রাপ্ত (অসি) হইয়াছেন সেই বিজ্ঞান, ভস্ম ও বলকে আমার জন্যও প্রদান করুন যাহাতে (তে) আপনার যে (কামধরণম্) সংকল্পের আধার অন্তঃকরণ সেই (কামধরণম্) কামনার আধার (ময়ি) আমাতে (ভূয়াৎ) হউক । যেমন তোমরা বিদ্যাদি শুভগুণ দ্বারা (চিতঃ) একত্রিত (পরিচিতঃ) সকল পদার্থকে সব দিক দিয়া সংগ্রহকারী (ঊর্ধ্বচিতঃ) উৎকৃষ্ট গুণের সঞ্চয়কর্ত্তা পুরুষার্থকে (শ্রয়ধ্বম্) সেবন কর সেইরূপ আমরাও করি ॥ ৪৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- জিজ্ঞাসু মনুষ্যদিগের উচিত যে, সর্বদা বিদ্বান্দিগের হইতে বিদ্যার ইচ্ছা করিয়া প্রশ্ন করিবে যে, যত আপনাদিগের মধ্যে পদার্থের বিজ্ঞান তত সব আপনারা আমাদিগের মধ্যে ধারণ করুন এবং যত হস্তক্রিয়া আপনারা জানেন তত আমাদিগকে শেখান, যেমন আমরা আপনার আশ্রিত সেইরূপ আপনারাও আমাদের আশ্রয় লউন ॥ ৪৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সং॒জ্ঞান॑মসি কাম॒ধর॑ণং॒ ময়ি॑ তে কাম॒ধর॑ণং ভূয়াৎ । অ॒গ্নের্ভস্মা॑স্য॒গ্নেঃ পুরী॑ষমসি॒ চিত॑ স্থ পরি॒চিত॑ऽঊর্ধ্ব॒চিতঃ॑ শ্রয়ধ্বম্ ॥ ৪৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সংজ্ঞানমিত্যস্য সোমাহুতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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