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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 47
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    158

    अ॒यꣳसोऽअ॒ग्निर्यस्मि॒न्त्सोम॒मिन्द्रः॑ सु॒तं द॒धे ज॒ठरे॑ वावशा॒नः। स॒ह॒स्रियं॒ वाज॒मत्यं॒ न सप्ति॑ꣳ सस॒वान्त्सन्त्स्तू॑यसे जातवेदः॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। सः। अ॒ग्निः। यस्मि॑न्। सोम॑म्। इन्द्रः॑। सु॒तम्। द॒धे॒। ज॒ठरे॑। वा॒व॒शा॒नः। स॒ह॒स्रिय॑म्। वाज॑म्। अत्य॑म्। न। सप्ति॑म्। स॒स॒वानिति॑ सस॒ऽवान्। सन्। स्तू॒य॒से॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयँ सोऽअग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतन्दधे जठरे वावशानः । सहस्रियँवाजमत्यन्न सप्तिँ ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। सः। अग्निः। यस्मिन्। सोमम्। इन्द्रः। सुतम्। दधे। जठरे। वावशानः। सहस्रियम्। वाजम्। अत्यम्। न। सप्तिम्। ससवानिति ससऽवान्। सन्। स्तूयसे। जातवेद इति जातऽवेदः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 47
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैरुत्तमाचरणानुकरणं कार्य्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे जातवेदः! यथा ससवान्सँस्त्वं स्तूयसेऽयमग्निरिन्द्रश्च यस्मिन् सोमं दधाति, यं सुतं जठरेऽहं दधे, सोऽहं वावशानः सन् सहस्त्रियं दधे। त्वया सह वाजमत्यं न सप्तिं दधे, तादृशस्त्वं भव॥४७॥

    पदार्थः

    (अयम्) (सः) (अग्निः) (यस्मिन्) (सोमम्) सर्वौषध्यादिरसम् (इन्द्रः) सूर्य्यः (सुतम्) निष्पन्नम् (दधे) धरे (जठरे) उदरे। जठरमुदरं भवति जग्धमस्मिन् ध्रियते धीयते वा॥ (निरु॰४.७) (वावशानः) भृशं कामयमानः (सहस्रियम्) सहप्राप्ताम् भार्य्याम् (वाजम्) अन्नादिकम् (अत्यम्) अतितुं व्याप्तुं योग्यम् (न) इव (सप्तिम्) अश्वम् (ससवान्) ददत् (सन्) (स्तूयसे) प्रशस्यसे (जातवेदः) उत्पन्नविज्ञान। [अयं मन्त्रः शत॰७.१.१.२२ व्याख्यातः]॥४७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सूर्यौ सर्वान् रसान् गृहीत्वा जगद्रसयतो यथा पत्या सह स्त्री स्त्रिया सह पतिश्चानन्दं भुङ्क्ते, तथाऽहमेतद्दधे। यथा सद्गुणैर्युक्तस्त्वं स्तूयसे, तथाऽहमपि प्रशंसितो भवेयम्॥४७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को उत्तम आचरणों के अनुसार वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त हुए विद्वन्! जैसे (ससवान्) दान देते (सन्) हुए आप (स्तूयसे) प्रशंसा के योग्य हो, (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि और (इन्द्रः) सूर्य्य (यस्मिन्) जिसमें (सोमम्) सब ओषधियों के रस को धारण करता है, जिस (सुतम्) सिद्ध हुए पदार्थ को (जठरे) पेट में मैं (दधे) धारण करता हूं, (सः) वह मैं (वावशानः) शीघ्र कामना करता हुआ (सहस्रियम्) साथ वर्त्तमान अपनी स्त्री को धारण करता हूं, आप के साथ (वाजम्) अन्न आदि पदार्थों को (अत्यम्) व्याप्त होने योग्य के (न) समान (सप्तिम्) घोड़े को (दधे) धारण करता हूं, वैसा ही तू भी हो॥४७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य, सब रसों का ग्रहण कर जगत् को रसयुक्त करते हैं वा जैसे पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति आनन्द भोगते हैं, वैसे मैं इस सब को धारण करता हूं। जैसे श्रेष्ठ गुणों से युक्त आप प्रशंसा के योग्य हो, वैसें मैं भी प्रशंसा के योग्य होऊं॥४७॥

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    विषय

    विश्वामित्र

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के ‘श्रयध्वम्’—‘सेवा करो’—इस उपदेश को क्रिया में लानेवाला सोमाहुति प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र’ बन जाता है। यह सभी के साथ स्नेह करता है। २. ( अयम् ) = यह ( सः अग्निः ) = वह नेता होता है, ( यस्मिन् ) = जिसमें ( इन्द्रः ) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु ( जठरे सुतम् ) = जठर में उत्पन्न हुए ( सोमम् ) = सोम को ( दधे ) = धारण करता है। सोम की उत्पत्ति तो सभी में होती है, परन्तु उसका धारण सभी में नहीं होता। इसका धारण तो प्रभु-कृपा से ही होता है। प्रभु का स्मरण हमें वासनाओं से ऊपर उठाता है और हम सोम को सुरक्षित कर पाते हैं। इस सोमरक्षा से यह व्यक्ति भी ( इन्द्र ) = शक्तिशाली होता है। ३. ( वावशानः ) = सोम-रक्षा से शक्तिशाली बना हुआ यह सबका भला चाहनेवाला होता है [ वश् कान्तौ ] ४. यह अपने अन्दर ( सहस्रियम् ) = [ स हस् ] सदा उल्लासमय ( वाजम् ) = शक्ति को ( दधे ) = धारण करता है। सोम-रक्षा का यह परिणाम क्योंकर न होगा! ५. इस ( अत्यं न सप्तिम् ) = सतत गतिशील घोड़े के समान व्यक्ति को प्रभु ( दधे ) = धारण करते हैं। यह प्रभु की प्रजा का धारण करता है और प्रभु इसका धारण करते हैं। धारण के काम में लगा हुआ यह व्यक्ति सतत गतिशील होता है। ६. ( ससवान् ) = [ ससं-अन्न—नि० २।६ ] यह सदा सस्य का सेवन करनेवाला होता है। ‘विश्वामित्र’ होता हुआ यह मांसाहार कर ही कैसे सकता है ? ७. ( जातवेदः ) = उत्पन्न हुआ है ज्ञान जिसमें, ऐसा यह व्यक्ति ( स्तूयसे ) = सदा स्तुत होता है, लोग इसकी प्रशंसा ही करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु-स्मरण से हम सोम को सुरक्षित करनेवाले बनें, आनन्दमय शक्ति को धारण करें। अन्नसेवी बनकर ज्ञानी बनें और स्तुत्य जीवनवाले बनें।

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    विषय

    विद्वानों, राजा के आश्रितों के प्रति कर्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( अयं सः अग्निः ) यह वह अग्नि, ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुष है ( यस्मिन् ) जिसके आश्रय पर ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( वावशानः ) अति अधिक सन्तुष्ट एवं अभिलाषावान् होकर ( सहस्रियं ) सहस्रों ऐश्वर्यों से समृद्ध ( वाजम् ) आन्नदिक ( अत्यं न सप्तिम् ) अति वेगवान अश्व के समान आरोहण योग्य ( सुतम् ) व्यवस्थित, शासित ( सोमम् ) समृद्ध राष्ट्र को ( जठरे ) अपने वश करनेवाले अधिकार में ( दधे ) धारण करता है | है ( जातवेदः ) ऐश्वर्यवान् एवं प्रजावान् पुरुष ! तू भी ( ससवान् सन् ) दान करता हुआ ही ( स्तूयसे ) स्तुति किया जाता है । शत० ७ । १ । १ । २९ ॥ यहां 'सहस्त्रियं वाजम्' यह पाठ महर्षि दयानन्दसंगत विचारणीय है ।

    टिप्पणी

    सहस्त्रियं वाजमितिपाठो दयानन्दसम्मतश्चिन्त्यः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । विश्वामित्र ऋषिः । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. जसे विद्युत व सूर्य सर्व रसांचे ग्रहण करून जगाला रसयुक्त बनवितात किंवा जसे पती-पत्नी एकमेकांसोबत आनंद उपभोगतात तसे मी या सर्व गोष्टींचा अंगीकार करतो. जसे श्रेष्ठ गुणांनी युक्त विद्वान प्रशंसा करण्यायोग्य असतात तसे मीही (जिज्ञासू माणसाने) प्रशंसायोग्य बनावे.

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    विषय

    सर्व मनुष्यांनी उत्तम आचरण करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (जातवेद:) पदार्थ विज्ञान जाणणाऱ्या विद्वान, ज्याप्रमाणे आपण (ससवान्‌) (सन्‌) दान देतेवेळी (अपन्‌) हे (अग्नि:) अग्नी आणि (इंन्द्र:) सूर्य (यस्मिन्‌) ज्या (सोमम्‌) औषधींमध्ये रस भरतात, त्या औषधींपासून रस (सुतम्‌) काढून तयार केलेल्या पदार्थांना मी एक गृहस्थाश्रमी आपल्या (जठरे) पोटात (दधे) धारण करतो (त्या वस्तूंचे पोषक औषध म्हणून सेवन करतो) (स:) तो मी (वावशाम:) शीघ्र (स्वास्थ्य वा संततीची) कामना करीत (सहस्त्रियम्‌) आपल्या पत्नी धारण करतो. तसेच हे विद्वान, आपल्यासह (वाजम्‌) अन्न आदी पदार्थांचे (सेवन करतो) (अत्यम) (सप्तिम्‌) शीघ्रगामी घोड्याप्रमाणे अन्नादीद्वारे शक्ती धारण करतो. तुम्ही देखील माझ्याप्रमाणे व्हा (उत्तम पौष्टिक अन्न खा) ॥47॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आणि उपमा अलंकार आहेत. ज्याप्रमाणे विद्युत आणि सूर्य सर्व रसांचे कर्षण करून जगाला रसमय करतात, अथवा जसे पतीबरोबर पत्नी आणि पत्नी सह पती आनंद उपभोगतात, तद्वत मी या सर्व निष्कृत रसांचे सेवन करून आनंदित होत असतो. आपण विद्वज्जन ज्याप्रमाणे प्रशंसनीय आहात, मी देखील तसे व्हावे, (अशी कामना करतो) ॥47॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O highly cultured person, thou art worthy of praise, being charitable in nature. Lightning and sun, ripen the juices of plants for thee. I take in my belly the juice thus ripened. I full of intense desire receive my wife, as my companion. Along with thee, I preserve the foodstuffs, like a fast horse.

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    Meaning

    This is that agni, vital heat of life, in which Indra, the sun, as if in love with life, places the nectar of life, Soma, like the distilled and delicious food for a thousand people. Life of life, Jataveda, generous giver as you are, you are worshipped by the devotees in your own right. It is for the love of life that I absorb the same nectar of life into my body system. It is for the same love of life that I hold on to my darling wife and I enjoy my food and drink.

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    Translation

    his is the fire divine, from which that bliss was extracted, which the resplendent Lord, with a longing desire, placed deep in Himself. O omniscient, winner of thousands of spoils like a courser, you are praised by the sacrificers in prayers. (1)

    Notes

    Sutain somam, the pressed out Soma juice; bliss extracted from the fire divine. Atyam na saptim, like a fast running courser. Sahasriyam, सहस्रसंख्याकेन धनेन सम्मितम्, worth the thousands. Sasavin, from षणु दाने दत्तवान्, has given.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈরুত্তমাচরণানুকরণং কার্য়্যমিত্যাহ ॥
    মনুষ্যকে উত্তম আচরণ অনুযায়ী ব্যবহার করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (জাতবেদঃ) বিজ্ঞান প্রাপ্ত বিদ্বান্ ! যেমন (সসবান্) দান দিতে (সন্) থাকিয়া আপনি (স্তূয়সে) প্রশংসার যোগ্য হয়েন (অয়ম্) এই (অগ্নিঃ) অগ্নিও (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য (য়স্মিন্) যাহাতে (সোমম্) সকল ওষধির রসকে ধারণ করে যে (সুতম্) নিষ্পন্ন পদার্থকে (জঠরে) পেটে আমি (দধে) ধারণ করি (সঃ) সেই আমি (বাবশানঃ) শীঘ্র কামনা করিয়া (সহস্রিয়ম্) সঙ্গে বর্ত্তমান স্বীয় স্ত্রীকে ধারণ করি । আপনার সহ (বাজম্) অন্নাদি পদার্থকে (অত্যম্) ব্যাপ্ত হওয়ার যোগ্য (ন) সম (সপ্তিম্) অশ্বকে (দধে) ধারণ করি, সেইরূপ তুমিও হও ॥ ৪৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার এবং উপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্যুৎ ও সূর্য্য, সকল রস গ্রহণ করিয়া জগৎ কে রসযুক্ত করে অথবা যেমন পতি সহ স্ত্রী এবং স্ত্রীসহ পতি আনন্দ ভোগ করে সেই রূপ আমি এই সব ধারণ করি । যেমন শ্রেষ্ঠ গুণযুক্ত আপনি প্রশংসার যোগ্য হয়েন সেইরূপ আমিও প্রসংসার যোগ্য হই ॥ ৪৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ꣳসোऽঅ॒গ্নির্য়স্মি॒ন্ৎসোম॒মিন্দ্রঃ॑ সু॒তং দ॒ধে জ॒ঠরে॑ বাবশা॒নঃ । স॒হ॒স্রিয়ং॒ বাজ॒মত্যং॒ ন সপ্তি॑ꣳ সস॒বান্ৎসন্ৎস্তূ॑য়সে জাতবেদঃ ॥ ৪৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং স ইত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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