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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - श्यावाश्व ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - भुरिगुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
    116

    विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा गा॑य॒त्रं छन्द॒ऽआरो॑ह पृथि॒वीमनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यभिमाति॒हा त्रैष्टु॑भं॒ छन्द॒ऽआरो॑हा॒न्तरि॑क्ष॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यरातीय॒तो ह॒न्ता जाग॑तं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिव॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि शत्रूय॒तो ह॒न्तानु॑ष्टुभं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिशोऽनु॒ विक्र॑मस्व॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। गा॒य॒त्रम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। त्रैष्टु॑भम्। त्रैस्तु॑भ॒मिति॒ त्रैऽस्तु॑भम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒रा॒ती॒य॒तः। अ॒रा॒ति॒य॒त इत्य॑रातिऽय॒तः। ह॒न्ता। जाग॑तम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिव॑म्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। श॒त्रू॒य॒तः। श॒त्रु॒य॒त इति॑ शत्रुऽय॒तः। ह॒न्ता। आनु॑ष्टुभम्। आनु॑स्तुभ॒मित्यानु॑ऽ स्तुभम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिशः॑। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः क्रमो सि सपत्नहा गायत्रञ्छन्दऽआ रोह पृथिवीमनु विक्रमस्व । विष्णोः क्रमो स्यभिमातिहा त्रैष्टुभञ्छन्दऽआरोहान्तरिक्षमनु विक्रमस्व विष्णोः क्रमो स्यरातीयतो हन्ता जागतञ्छन्दऽआ रोह दिवमनु विक्रमस्व विष्णोः क्रमो सि शत्रूयतो हन्तानुष्टुभञ्छन्दऽआ रोह दिशोनु विक्रमस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः। क्रमः। असि। सपत्नहेति सपत्नऽहा। गायत्रम्। छन्दः। आ। रोह। पृथिवीम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। अभिमातिहेत्यभिमातिऽहा। त्रैष्टुभम्। त्रैस्तुभमिति त्रैऽस्तुभम्। छन्दः। आ। रोह। अन्तरिक्षम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। अरातीयतः। अरातियत इत्यरातिऽयतः। हन्ता। जागतम्। छन्दः। आ। रोह। दिवम्। अनु। वि। क्रमस्व। विष्णोः। क्रमः। असि। शत्रूयतः। शत्रुयत इति शत्रुऽयतः। हन्ता। आनुष्टुभम्। आनुस्तुभमित्यानुऽ स्तुभम्। छन्दः। आ। रोह। दिशः। अनु। वि। क्रमस्व॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजधर्ममाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यतस्त्वं विष्णोः क्रमः सपत्नहाऽसि, तस्माद् गायत्रं छन्द आरोह पृथिवीमनुविक्रमस्व। यतस्त्वं विष्णोः क्रमोऽभिमातिहासि, तस्मात् त्वं त्रैष्टुभं छन्द आरोहान्तरिक्षमनुविक्रमस्व। यतस्त्वं विष्णोः क्रमोऽरातीयतो हन्ताऽसि, तस्माज्जागतं छन्द आरोह दिवमनुविक्रमस्व। यस्त्वं विष्णोः क्रमः शत्रूयतो हन्ताऽसि, स त्वमानुष्टुभं छन्द आरोह, दिशोऽनुविक्रमस्व॥५॥

    पदार्थः

    (विष्णोः) व्यापकस्य जगदीश्वरस्य (क्रमः) व्यवहारः (असि) (सपत्नहा) यः सपत्नानरीन् हन्ति सः (गायत्रम्) गायत्रीनिष्पन्नमर्थम् (छन्दः) स्वच्छम् (आ) (रोह) आरूढो भव (पृथिवीम्) पृथिव्यादिकम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) व्यवहर (विष्णोः) व्यापकस्य कारणस्य (क्रमः) अवस्थान्तरम् (असि) (अभिमातिहा) योऽभिमातीनभिमानयुक्तान् हन्ति (त्रैष्टुभम्) त्रिभिः सुखैः सम्बद्धम् (छन्दः) बलप्रदम् (आ) (रोह) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) (विष्णोः) व्याप्तुं शीलस्य विद्युद्रूपाग्नेः (क्रमः) (असि) (अरातीयतः) विद्यादिदानं कर्त्तुमनिच्छतः (हन्ता) नाशकः (जागतम्) जगज्जानाति येन तत् (छन्दः) सृष्टिविद्याबलकरम् (आ) (रोह) (दिवम्) सूर्याद्यग्निम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) (विष्णोः) हिरण्यगर्भस्य वायोः (क्रमः) (असि) (शत्रूयतः) आत्मनः शत्रुमाचरतः (हन्ता) (आनुष्टुभम्) अनुकूलतया स्तोभते सुखं बध्नाति येन तत् (छन्दः) आनन्दकरम् (आ) (रोह) (दिशः) पूर्वादीन् (अनु) (वि) (क्रमस्व) प्रयतस्व। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.२.१३-१६ व्याख्यातः]॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्वेदविद्यया भूगर्भादिविद्या निश्चित्य पराक्रमेणोन्नीय रोगाः शत्रवश्च निहन्तव्याः॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष! जिससे आप (विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर के (क्रमः) व्यवहार से शोधक और (सपत्नहा) शत्रुओं के मारनेहारे (असि) हो, इससे (गायत्रम्) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दः) शुद्ध अर्थ पर (आरोह) आरूढ़ हूजिये (पृथिवीम्) पृथिव्यादि पदार्थों से (अनुविक्रमस्व) अपने अनुकूल व्यवहार साधिये तथा जिस कारण आप (विष्णोः) व्यापक कारण के (क्रमः) कार्य्यरूप (अभिमातिहा) अभिमानियों को मारनेहारे (असि) हैं, इससे आप (त्रैष्टुभम्) तीन प्रकार के सुखों से संयुक्त (छन्दः) बलदायक वेदार्थ को (आरोह) ग्रहण और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अनुविक्रमस्व) अनुकूलव्यवहार में युक्त कीजिये जिससे आप (विष्णोः) व्यापनशील बिजुली रूप अग्नि के (क्रमः) जाननेहारे (अरातीयतः) विद्या आदि दान के विरोधी पुरुष के (हन्ता) नाश करनेहारे (असि) हैं, इससे आप (जागतम्) जगत् को जानने का हेतु (छन्दः) सृष्टिविद्या को बलयुक्त करनेहारे विज्ञान को (आरोह) प्राप्त हूजिये और (दिवम्) सूर्य आदि अग्नि को (अनुविक्रमस्व) अनुक्रम से उपयुक्त कीजिये, जो आप (विष्णोः) हिरण्यगर्भ वायु के (क्रमः) ज्ञापक तथा (शत्रूयतः) अपने को शत्रु का आचरण करने वाले पुरुषों के (हन्ता) मारने वाले (असि) हैं, सो आप (आनुष्टुभम्) अनुकूलता के साथ सुख सम्बन्ध के हेतु (छन्दः) आनन्दकारक वेदभाग को (आरोह) उपयुक्त कीजिये और (दिशः) पूर्व आदि दिशाओं के (अनुविक्रमस्व) अनुकूल प्रयत्न कीजिये॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि वेदविद्या से भूगर्भ विद्याओं का निश्चय तथा पराक्रम से उनकी उन्नति करके रोग और शत्रुओं का नाश करें॥५॥

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    विषय

    सोऽयमात्मा चतुष्पात् [ चार पग ]

    पदार्थ

    १. श्यावाश्व के लिए ही कहते हैं कि तू ( विष्णोः ) = [ यज्ञो वै विष्णुः ] यज्ञ के ( क्रमः असि ) = पराक्रमवाला प्रसिद्ध है। तू यज्ञिय पगों को रखनेवाला है। ( सपत्नहा ) = शरीर में अपना ( पतित्व ) = स्वामित्व स्थापित करने की इच्छावाले इन सपत्नभूत रोगों का नाश करनेवाला है। ( गायत्रं छन्दः आरोह ) = प्राणरक्षा की इच्छा पर तू आरोहण कर, अर्थात् तुझमें प्राणशक्ति की रक्षा की प्रबल इच्छा हो। इस इच्छा को लिये हुए तू ( पृथिवीम् अनु ) = इस पार्थिव शरीर का ध्यान करके ( विक्रमस्व ) = विक्रमशील हो। तेरा पार्थिव शरीर पूर्णतया नीरोग हो। यही वस्तुतः तेरा पहला प्रयत्न होना चाहिए। यही पहला पग है। २. ( विष्णोः क्रमः असि ) = तू विष्णु के पराक्रमवाला है, विष्णु के समान पग रखनेवाला है। ( अभिमातिहा ) = तू अभिमान को नष्ट करनेवाला है। ( त्रैष्टुभं छन्दः आरोह ) = ‘काम, क्रोध व लोभ’ इन तीन को रोकने [ त्रि+ष्टुभ् = stop ] की प्रबल कामना पर तू आरूढ़ हो। ( अन्तरिक्षम् अनु ) = हृदयान्तरिक्ष का लक्ष्य करके ( विक्रमस्व ) = तू विशेष उद्योग करनेवाला हो। तूने इस हृदयान्तरिक्ष को काम, क्रोध व लोभ की वासना से शून्य बनाना है। ३. ( विष्णोः क्रमः असि ) = तू यज्ञ के पराक्रमवाला है। ( अरातीयतः ) = [ रातिर्दानं, तस्याभावं आत्मन इच्छति इति—म० ] दानाभाव की इच्छा का—न देने की भावना का ( हन्ता ) = तू नष्ट करनेवाला है। अतिशयेन दान की वृत्ति अपना कर तू ( जागतं छन्दः आरोह ) = जगती के हित की इच्छा पर आरोहण कर। तुझमें लोक-कल्याण की प्रबल भावना हो। ( दिवम् अनु ) = द्युलोक का लक्ष्य करके अथवा मस्तिष्क का ध्यान करके ( विक्रमस्व ) = तू पराक्रम करनेवाला हो, अर्थात् तू ज्ञान को ख़ूब प्राप्त करनेवाला बन। ४. ( विष्णोः क्रमः असि ) = तू यज्ञ के पराक्रमवाला है ( शत्रूयतः ) = [ अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ] शत्रुवत् आचरण करनेवाले मन का यह ( हन्ता ) = नष्ट करनेवाला होता है, अर्थात् यह मन को वश में करनेवाला है। ( अनुष्टुभं छन्दः आरोह ) = अनुक्षण प्रभु-स्तवन की भावना पर तू आरूढ़ हो, अर्थात् सोते-जागते सदा प्रभु का स्मरण कर और ( दिशः अनु विक्रमस्व ) = उस प्रभु के निर्देशों के अनुसार तू विक्रम करनेवाला हो। प्रभु के निर्देशों को अपने जीवन में अनूदित कर।

    भावार्थ

    भावार्थ — जीव के चार पग हैं— १. रोगों को नष्ट करना। २. अभिमान को नष्ट करना। ३. अदान की भावना को नष्ट करना। ४. और शत्रुता में स्थित मन को निरुद्ध करना। शरीर को ठीक करना, मन को ठीक करना, मस्तिष्क को ठीक करना और अन्तःस्थित प्रभु के निर्देशों को सुनना।

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    विषय

    राजा को जाना अधिकार प्रदान और नाना कर्त्तव्यों का उपदेश । मेले के दृष्टान्त से राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे यज्ञमय प्रजापति, प्रजापालक के प्रथम क्रम अर्थात् प्रथम व्यवहार ! तू (विष्णो ) राष्ट्र में व्यापक सत्तावाले राजा का ( सपत्नहा ) शत्रु को नाश करनेवाला ( क्रमः असि ) क्रम, अर्थात् प्रथम चरण कार्य का प्रथम भाग है। तू ( गायत्रं छन्दः आरोह ) गायत्र छन्द अर्थात् विद्वान् वेदज़ पुरुषों के त्राण करनेवाले पवित्र कार्य पर आरूढ हो । तू ( पृथिवीम् अनु ) पृथिवी और पृथिवी वासी प्रजा के अनुकूल रहकर (विक्रमस्व ) विविध प्रकार के कार्य कर । इसी प्रकार तू ( विष्णोः क्रमः असि ) व्यापक शक्ति का दूसरा स्वरूप ( अभिभातिहा असि )अभिमानी बैरी लोगों का नाश करनेहारा है। तू ( त्रैष्टुभं छन्दः ) तीन प्रकार के बलशाली छात्रबल पर ( आरोह) आरूढ़ हो । और ( अन्तरिक्षम् अनु विक्रमस्व ) अन्तरिक्ष के समान सर्वाच्छादक एवं सर्व प्राणप्रद वायु के समान विक्रम कर । तू ( विष्णोः क्रमः ) विष्णु, सूर्य के समान समुद्रादि से जलादि ग्रहण करनेवाले व्यापक शक्ति का स्वरूप है। तू ( अरा- तीथत: ) कर-दान न करनेवाले शत्रुओं का ( हन्ता ) विनाशक है | तू ( जागतं छन्द: आरोह ) आदित्यों के कार्य व्यवहार पर और वैश्यवर्ग पर ( आरोह) बल प्राप्त कर तू ( दिवम् अनु विक्रमस्व ) सूर्य या मेघ के समान पृथ्वी पर से जल लेकर उसी पर वर्षा कर जगत् के उपकारने का व्रत धार कर अपना ( विक्रमस्व ) पराक्रम कर । ( विष्णोः क्रम असि )व्यापक वायु के समान कार्य करने में कुशल उसका प्रतिरूप है। तू ( शत्रूयताम् हन्ता ) शत्रु के समान आचरण करनेवाले द्रोहियों को नाश करनेहारा है। तू ( अनुष्टुभं छन्दः आरोह ) समस्त प्रजा के अनुकूल सुख वृद्धि के कार्य व्यवहार को प्राप्त कर । ( दिश: अनु ) तू दिशाओं को विजय कर अर्थात् दिशाओं के समान सब प्रजाओं को आश्रय देने में समर्थ हो ॥ शत० ६ । ७ । २ । १३-१६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विष्णवादयो लिंगोक्ताः देवताः । भुरिगुत्कृतिः । षड्जः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी वेदविद्येने भूगर्भविद्यांचे निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करावे व पराक्रमाने त्यांची वाढ करावी आणि रोगांचा व शत्रूंचा नाश करावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात राजधर्माविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान (वेदज्ञ) पुरुष, (सभापती) आपण (विष्णो:) व्यापक जगदीश्‍वराच्या (क्रम:) नियमांप्रमाणे आचरण करणारे वा शोधक, तसेच (सपत्नहा) शत्रूंचा वध करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (गायत्रम्‌) गायत्री मंत्राद्वारे व्यक्त होणाऱ्या (छन्द:) शुद्ध अर्थावर (आरोह) आरुढ व्हा (गायत्रीच्या गुढ सत्य अर्थाचे ज्ञान मिळवा) तसेच (पृथिवीम्‌) पृथ्वीवरील पदार्थांपासून (अनुविक्रमस्व) आपल्याकरिता अनुकूल व उपयुक्त व्यवहार (लाभ) प्राप्त करून घ्या. आपण (विष्णो) व्यापक कारणे रुप परमेश्‍वराच्या कार्यरुप सृष्टीमध्ये जे (अभिमातिहा) अभिमानी मनुष्य आहेत (परमेश्‍वर सृष्टीचे कारण असताना जे घमेंडी लोक स्वत:लाच परमेश्‍वर मानतात) त्यांचा (-------) तुम्ही नाश करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (त्रैष्टुमम्‌) तीन प्रकारच्या सुखांनी परिपूर्ण अशा (छन्द:) प्रेरणादायक वेदार्थाचे (ओराह) ग्रहण करा (वेदातील अर्थ शोधून काढा) आणि (अन्तरिक्षम्‌) आकाशाला (अनुविक्रमस्त) आपल्या व्यवहाराकरिता (उपयोगासाठी) अनुकूल करून घ्या. आपण (विष्णो:) व्यापक विद्युतेचे (क्रम:) जाणणारे आहात आणि) (------) जे लोक विद्यादान आदी शुभ कार्यांचा विरोध करणारे आहेत, त्यांचा (---) वध करणारे (असि) आहात. यामुळे आपण (जागतम्‌) सृष्टीचे ज्ञान मिळविण्याचे साधन आणि (छन्द:) सृष्टी-विद्येला जाणण्याचे कारण म्हणजे विज्ञानाद्वारे (दिवम्‌) सूर्य आदी अग्नींचे (अनुविक्रमस्व) क्रमाक्रमाने उपयोग जाणून घ्या. आपण (विष्णो:) हिरण्यगर्भ वायू विषयाचे (क्रम:) ज्ञान सांगणारे असून (राजूयत:) शत्रूप्रमाणे वागणाऱ्या लोकांचा (इन्ता) वध करणारे (असि) आहात, यामुळे आपण (आनुष्टुदायक वेदभागाचे (आरोह) अध्ययन व मनन-चिंतन करून त्यापासून लाभ घ्या आणि (दिश:) पूर्व आदी दिशांना (अनुविक्रमस्व) आपल्या अनुकूल करून घ्या. (वेदज्ञानाद्वारे दूरवरच्या प्रदेशांना प्रभावित करून कीर्ती मिळवा.)

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी वेदविद्याद्वारा भूगर्भविद्येविषयी, शोध, अविष्करण प्रयोग आदी करून सिद्धांत निश्‍चित करावेत आणि त्यांचा व्यवहारात उपयोग करून रोग व शत्रू यांचा नाश करावा ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, purified by the instruction of God, thou art the rival-slayer. Follow the teachings of Gayatri verses ; and utilise all earthly objects for thy benefit. Thou knowest the law of cause and effect, and art the destroyer of the proud. Know the significance of verses in Trishtup metre ; and control the mid-air. Thou knowest the pervading electricity, are the chastiser of the opponents of the spread of learning. Master the knowledge derived from the verses in Jagati metre, and utilise the heat of the sun. Thou knowest the pervading air, and art the foeman-slayer, understand the instructions given in verses revealed in Anushtap metre, and master all directions.

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    Meaning

    Brilliant man of expansive knowledge, you are an instrument of Vishnu, omnipresent lord of the world, born to eliminate the jealous rivals. Study the gayatri verses, use the power revealed in there, go and expand over the earth, cooperate with the earth, work on its resources, and develop the wealth and prosperity of the land. Noble scientist, you are a co-worker with omnipresent nature, born to defeat the proud and jealous forces inimical to growth. Study the trishtubh verses for knowledge and power for threefold comfort of body, mind and soul and, flying on the wings of that knowledge, cover the skies to explore and exploit the resources of the sky. Tempestuous scientist and astronaut, you are a friend of agni, universal electric energy, born to eliminate the failures and adversities of the internal and external life. Study the jagati verses for the knowledge of light and space and, on the wings of that knowledge, reach the heavens. Cooperate with space and light energy, cooperate with universal energy and conquer the inner darkness with the light, and external failures with knowledge. Steady man of technology, you are an instrument of eternal energy meant to serve as well as exploit the natural resources of the environment and eliminate the enemies who stem your growth. Go forward in and over all the directions on the earth and around on the wings of anushtubh verses, work with and on the currents of wind and energy and dominate over the directions to create one world on the earth in a healthy environment.

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    Translation

    You are the (first) step of the sun, destroyer of rivalries. Ride on the gayatri metre and spread all over the earth. (1) You are the (second) step of the sun, the killer of arrogance. Ride оп the tristubh metre and spread all over the mid-space. (2) You are the (third) step of the sun, slayer of enmity. Ride on the jagati metre and spread all over the sky. (3) You are the (final) step of the sun, the slayer of malice. Ride on the anustup metre (4) and spread all over the regions. (5)

    Notes

    Visnoh kramah, stride of Visnu, representing the course of the sun. First stride is sapatnahá, second abhimatiha, third arátiyato hantà, and fourth Satriyato hantá. According to Mahidhara ukhya agni is Visnu. यज्ञो वै विष्णु:. the sacrifice is also called Visnu. Thus these four strides may be explained as four phases of the sacrifice.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনা রাজধর্মমাহ ॥
    পরবর্ত্তী মন্ত্রে রাজধর্মের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ পুরুষ ! যদ্দ্বারা আপনি (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক জগদীশ্বরের (ক্রমঃ) ব্যবহার হইতে সংস্কারক (সপত্নহা) এবং শত্রুদিগের বধকারী (অসি) হউন । ইহার দ্বারা (গায়ত্রম্) গায়ত্রী মন্ত্র হইতে উদ্ভূত (ছন্দঃ) শুদ্ধ অর্থের উপর (আরোহ) আরূঢ় হউন (পৃথিবীম্) পৃথিব্যাদি পদার্থ হইতে (অনুবিক্রমস্ব) স্বীয় অনুকূল ব্যবহার সিদ্ধ করুন এবং যে কারণে আপনি (বিষ্ণোঃ) ব্যাপক কারণের (ক্রমঃ) কার্য্যরূপ (অভিমাতিহা) অহংকারীদের ধ্বংসকারী (অসি) হন । এইজন্য আপনি (ত্রৈষ্টুভ্যম্) তিন প্রকার সুখ-সংযুক্ত (ছন্দঃ) বলদায়ক বেদার্থকে (আরোহ) গ্রহণ এবং (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে (অনুবিক্রমস্ব) অনুকূল ব্যবহারে যুক্ত করুন যদ্দ্বারা আপনি (বিষ্ণোঃ) ব্যাপনশীল বিদ্যুৎরূপ অগ্নির (ক্রমঃ) জ্ঞাতা (অরাতীয়তঃ) বিদ্যাদি দানের বিরুদ্ধ পুরুষের (হন্তা) নাশক (অসি) হন । ইহা দ্বারা আপনি (জাগতম্) জগতকে জানিবার হেতু (ছন্দঃ) সৃষ্টি বিদ্যার বলযুক্তকারক বিজ্ঞানকে (আরোহ) প্রাপ্ত হউন এবং (দিবম্) সূর্য্যাদি অগ্নিকে (অনুবিক্রমস্ব) অনুক্রম দ্বারা উপযুক্ত করুন যেহেতু আপনি (বিষ্ণোঃ) হিরণ্যগর্ভ বায়ুর (ক্রমঃ) জ্ঞাপক তথা (শত্রূয়তঃ) শত্রুর আচরণকারী পুরুষকে (হন্তা) মারিয়া থাকেন (অসি) । সুতরাং আপনি (আনুষ্টুভম্) অনুকূলতার সহিত সুখ সম্বন্ধ হেতু (ছন্দঃ) আনন্দকারক বেদভাগকে (আরোহ) উপযুক্ত করুন এবং (দিশঃ) পূর্বাদি দিকের (অনুবিক্রমস্ব) অনুকূল প্রযত্ন করুন ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, বেদবিদ্যা দ্বারা ভূগর্ভ বিদ্যার নিশ্চয় তথা পরাক্রম দ্বারা তাহার উন্নতি করিয়া রোগ ও শত্রুদিগের নাশ করিবে ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিষ্ণোঃ॒ ক্রমো॑ऽসি সপত্ন॒হা গা॑য়॒ত্রং ছন্দ॒ऽআ রো॑হ পৃথি॒বীমনু॒ বি ত্র॑ôমস্ব॒ বিষ্ণোঃ॒ ক্রমো॑ऽস্যভিমাতি॒হা ত্রৈষ্টু॑ভং॒ ছন্দ॒ऽআ রো॑হা॒ন্তরি॑ক্ষ॒মনু॒ বি ত্র॑ôমস্ব॒ বিষ্ণোঃ॒ ক্রমো॑ऽস্যরাতীয়॒তো হ॒ন্তা জাগ॑তং॒ ছন্দ॒ऽআ রো॑হ॒ দিব॒মনু॒ বি ত্র॑ôমস্ব॒ বিষ্ণোঃ॒ ক্রমো॑ऽসি শত্রূয়॒তো হ॒ন্তাऽऽনু॑ষ্টুভং॒ ছন্দ॒ऽআ রো॑হ॒ দিশোऽনু॒ বি ত্র॑ôমস্ব ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিষ্ণোঃ ক্রম ইত্যস্য শ্যাবাশ্ব ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । ভুরিগুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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