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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 57
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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समि॑त॒ꣳ संक॑ल्पेथा॒ संप्रि॑यौ रोचि॒ष्णू सु॑मन॒स्यमा॑नौ। इष॒मूर्ज॑म॒भि सं॒वसा॑नौ॥५७॥
स्वर सहित पद पाठसम्। इ॒त॒म्। सम्। क॒ल्पे॒था॒म्। संप्रि॑या॒विति॒ सम्ऽप्रि॑यौ। रो॒चि॒ष्णूऽइति॑ रोचि॒ष्णू। सु॒म॒न॒स्यमा॑नाविति॑ सुऽमन॒स्यमा॑नौ। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒भि। सं॒वसा॑ना॒विति॑ स॒म्ऽवसा॑नौ ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समितँ सङ्कल्पेथाँ सम्प्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ । इषमूर्जमभि सँवसानौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। इतम्। सम्। कल्पेथाम्। संप्रियाविति सम्ऽप्रियौ। रोचिष्णूऽइति रोचिष्णू। सुमनस्यमानाविति सुऽमनस्यमानौ। इषम्। ऊर्जम्। अभि। संवसानाविति सम्ऽवसानौ॥५७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विवाहं कृत्वा कथं वर्त्तिव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे विवाहितौ स्त्रीपुरुष! युवां संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ संवसानौ सन्ताविषं समितमूर्जमभि संकल्पेथाम्॥५७॥
पदार्थः
(सम्) एकीभावम् (इतम्) प्राप्नुतम् (सम्) समानाभिप्राये (कल्पेथाम्) समर्थयताम् (संप्रियौ) परस्परं सम्यक् प्रीतियुक्तौ (रोचिष्णू) विषयासक्तिविरहत्वेन देदीप्यमानौ (सुमनस्यमानौ) सुमनसौ सखायौ विद्वांसाविवाचरन्तौ (इषम्) इच्छाम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (अभि) आभिमुख्ये (संवसानौ) सम्यक् सुवस्त्रालंकारैराच्छादितौ। [अयं मन्त्रः शत॰७.१.१.३८ व्याख्यातः]॥५७॥
भावार्थः
यदि स्त्रीपुरुषौ सर्वथा विरोधं विहायान्योन्यस्य प्रियाचरणे रतौ, विद्याविचारयुक्तौ सुवस्त्रालंकृतौ भूत्वा प्रयतेताम्, तदा गृहे कल्याणमारोग्यं वर्धेताम्। यदि च विद्वेषिणौ भवेताम्, तदा दुःखसागरे संमग्नौ भवेताम्॥५७॥
हिन्दी (3)
विषय
पश्चात् विवाह करके कैसे वर्त्तें, इस विषय उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विवाहित स्त्रीपुरुषो! तुम (संप्रियौ) आपस में सम्यक् प्रीति वाले (रोचिष्णू) विषयासक्ति से पृथक् प्रकाशमान (सुमनस्यमानौ) मित्र विद्वान् पुरुषों के समान वर्त्तमान (संवसानौ) सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से युक्त हुए (इषम्) इच्छा से (समितम्) इकट्ठे प्राप्त होओ और (ऊर्जम्) पराक्रम को (अभि) सन्मुख (संकल्पेथाम्) एक अभिप्राय में समर्पित करो॥५७॥
भावार्थ
जो स्त्रीपुरुष सर्वथा विरोध को छोड़ के एक-दूसरे की प्रीति में तत्पर, विद्या के विचार से युक्त तथा अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण धारण करने वाला होके प्रयत्न करें, तो घर में कल्याण और आरोग्य बढ़े, और जो परस्पर विरोधी हों, तो दुःखसागर में अवश्य डूबें॥५७॥
विषय
एकत्व का संकल्प
पदार्थ
१. ‘प्रभु का स्तवन करते हुए ये पति-पत्नी क्या करें?’ प्रभु कहते हैं कि ( समितम् ) = सं इतम् = मिलकर चलने का ( संकल्पेथाम् ) = संकल्प करें। इनके कर्म कभी विरोधी न हों। २. ( संप्रियौ ) = ये परस्पर उत्तम प्रेमवाले हों। ३. ( रोचिष्णू ) = संसार में शोभावाले हों। परस्पर प्रेम होने पर ही इनकी शोभा होती है। ४. ( सुमनस्यमानौ ) = सदा उत्तम मनवालों की भाँति आचरण करनेवाले, शुभ चिन्तन करनेवाले तुम होओ। ५. इस मन की उत्तमता के लिए [ क ] ( इषम् ) = अन्न को तथा ( ऊर्जम् ) = रस को ( अभिसंवसानौ ) = [ अभ्यवहरन्तौ—उ० ] सेवन करनेवाले बनो। अन्न-रस का सेवन ही हमें धर्म में स्थिर गति प्राप्त कराता है। आहारशुद्धि सत्त्वशुद्धि का कारण है। अथवा [ ख ] ( इषम् ) = उस प्रभु की प्रेरणा को तथा ( ऊर्जम् ) = बल व प्राणशक्ति को ( अभिसंवसानौ ) = सम्यक्तया धारण करनेवाले बनो। उस प्रभु की प्रेरणा को सुनो। उसके अनुसार चलने से तुम्हें बल व प्राणशक्ति प्राप्त हो।
भावार्थ
भावार्थ — ‘मधुच्छन्दा’ = उत्तम इच्छाओंवाले पति-पत्नी १. मिलकर चलते हैं २. परस्पर प्रेमवाले होते हैं ३. शोभा देनेवाले कार्यों को ही करते हैं ४. उत्तम मनवाले होते हैं ५. अन्न-रस का सेवन करते हैं अथवा प्रभु की प्रेरणा को सुनकर बल व प्राणशक्ति को धारण करते हैं।
विषय
दम्पती और राजा प्रजा और पशान्तर में मित्रों को प्रेम पूर्वक रहने का उपदेश ।
भावार्थ
हे पति-पत्नी भाव से बद्ध स्त्री पुरुषो ! या राजा प्रजाओ तुम दोनों ! ( संप्रियौ) एक दूसरे के प्रति अति प्रेमयुक्त ( रोचिष्णु) एक दूसरे के प्रति रुचिकर, एक दूसरे को प्रसन्न करनेहारे एवं ( सु-मनस्यमानौ ) एक दूसरे के प्रति शुभ चिन्तना करते हुए, (संवसानौ) एकत्र निवास करते हुए या एक दूसरे की रक्षा करते हुए ( इषम् ) अन्नादि अभिलषित पदार्थ और(ऊर्ध्जम् ) परम अन्नरस या बल पराक्रम को ( अभि ) लक्ष्य करके ( सम् इतम् ) एक साथ चलो, ( सं-कल्पेथाम् ) एक साथ समानरूप से उद्योग करो या समानरूप से संकल्प करो । इसी प्रकार दो विद्वान्, या दो राजा, या राजा और प्रजा दोनों भी परस्पर मित्र रहकर एक दूसरे की शुभ चिन्तना करके एक दूसरे की रक्षा करते हुए, अन्न और बल के लिये एक साथ यत्न करें ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्वयग्नी देवते । भुरिग् उष्णिक छन्दः । ऋषभः स्वरः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जे स्त्री-पुरुष सर्वस्वी विरोध सोडून एकमेकांवर प्रीती करतात व विद्यायुक्त बनतात, चांगली वस्त्रे व आभूषणांनी अलंकृत होऊन प्रेमाने राहतात तेव्हा त्यांच्या कुटुंबाचे कल्याण होते व आरोग्य वाढते. जर ते परस्परविरोधी असतील तर निश्चितपणे दुःखसागरात बुडतात.
विषय
विवाहानंतर कसे वागावे, याविषयी पुढील मंत्रात पति-पत्नीला उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे पति-पत्नी, तुम्ही दोघे (संप्रियौ) एकमेकास प्रेम करणारे व्हा. (रोचिषण) विषयासक्तीपासून दूर, असल्यामुळे प्रशंसित व्हा. (सुमनस्यमानौ) एकमनाने कार्य करणाऱ्या विवेकी माणसांसारखे रहा. (सेवसानौ) सुंदर सुंदर वस्त्र आणि आभूषण धारण करा. (इषम्) आपल्या इच्छित वस्तूंसाठी (समितम्) मिळून प्रयत्न करा आणि (ऊर्जाम्) आपल्या कार्यशक्तीचा (अभि) समोर असलेल्या उद्दिष्टांसाठी (संकल्पेयाम्) उपरोण करा (शक्ति विभाजित होऊ देऊ नका. दोघांचे लक्ष्य एक असावे) ॥57॥
भावार्थ
भावार्थ - पति-पत्नीने आपसातील विरोध भावनेचा सर्वथा त्याग करून एकमेकाविषयी प्रीतीभाव वाढत राहण्यासाठी यत्न करावा. तसेच श्रेष्ठ विचार करीत चांगले सुंदर वस्त्र-आभूषणादी धारण करावेत. अशाप्रकारे प्रयत्न केल्यास घराचे कल्याण होईल आणि आरोग्य होईल आणि आरोग्य वाढीस लागेल. जे गृहस्थजन याहून विपरीत वागत असतील, ते अवश्यमेव दु:खसागरात बुडून जातील ॥57॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O husband and wife, be dear to each other, shun sensuality, be one-minded, dress nicely. Attain together to your goal, and use your vigour for a common cause.
Meaning
Wedded couple, two-in-one joined in love, brilliant in health and lustre, of equal and enlightened mind, decent and graceful in clothes and ornaments, both of you together plan, act and realise your goal in food, energy, prosperity, honour and glory.
Translation
May both of you unite with each other; be of one thinking; be dear to each other and pleasing to each other and friendly, residing together with abundance of food and vigour. (1)
Notes
According to the ritualists, two fires, citya agni and ukhya agni, are addressed to here. But Dayananda thinks that the verse is addressed to married couples, which seems to be more appropriate. Samitam, from यिण् गतौ, to move; सं + इतं= संगच्छतम्, move about together, or unite with euch other. Sain kalpethim, एक संकल्पौ भवतम्, both of you be of one resolve, of one thinking. Samvasanau, both of you residing together.
बंगाली (1)
विषय
অথ বিবাহং কৃত্বা কথং বর্ত্তিব্যমিত্যাহ ॥
পশ্চাৎ বিবাহ করিয়া কীরূপ ব্যবহার করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিবাহিত স্ত্রীপুরুষগণ ! তোমরা (সংপ্রিয়ৌ) পারস্পরিক সম্যক্ প্রীতি যুক্ত (রোচিষ্ণু) বিষয়াসক্তি হইতে পৃথক প্রকাশমান (সুমনস্যমানৌ) মিত্র বিদ্বান্ পুরুষদিগের সমান বর্ত্তমান (সংবসানৌ) সুন্দর বস্ত্র ও আভূষণ দ্বারা যুক্ত (ইষম্) ইচ্ছাকে (সমিতম্) একত্রে প্রাপ্ত হও এবং (ঊর্জম্) পরাক্রমকে (অভি) সম্মুখ (সংকল্পেথাম্) এক অভিপ্রায়ে সমর্পিত কর ॥ ৫৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- স্ত্রীপুরুষ সর্বথা বিরোধ ত্যাগ করিয়া একে অন্যের প্রীতিতে তৎপর বিদ্যা-বিচার যুক্ত তথা ভাল ভাল বস্ত্র ও আভূষণ ধারণকারী হইয়া প্রচেষ্টা করিবে যাহাতে গৃহে কল্যাণ ও আরোগ্য বৃদ্ধি পায় এবং যাহারা পরস্পর বিরোধী হইবে তাহারা দুঃখসাগরে অবশ্যই ডুবিবে ॥ ৫৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সমি॑ত॒ꣳ সংক॑ল্পেথা॒ᳬं সংপ্রি॑য়ৌ রোচি॒ষ্ণূ সু॑মন॒স্যমা॑নৌ ।
ইষ॒মূর্জ॑ম॒ভি সং॒বসা॑নৌ ॥ ৫৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমিতমিত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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