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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 63
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    105

    नमः॒ सु ते॑ निर्ऋते तिग्मतेजोऽय॒स्मयं॒ विचृ॑ता ब॒न्धमे॒तम्। य॒मेन॒ त्वं य॒म्या सं॑विदा॒नोत्त॒मे नाके॒ऽअधि॑ रोहयैनम्॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः। सु। ते॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। ति॒ग्म॒ते॒ज॒ इति॑ तिग्मऽतेजः। अ॒य॒स्मय॑म्। वि। चृ॒त॒। ब॒न्धम्। ए॒तम्। य॒मेन॑। त्वम्। य॒म्या। सं॒वि॒दा॒नेति॑ सम्ऽविदा॒ना। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मे। नाके॑। अधि॑। रो॒ह॒य॒। ए॒न॒म् ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमः सु ते निरृते तिग्मतेजो यस्मयँ वि चृता बन्धमेतम् । यमेन त्वँयम्या सँविदानोत्तमे नाके अधि रोहयैनम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। सु। ते। निर्ऋत इति निःऽऋते। तिग्मतेज इति तिग्मऽतेजः। अयस्मयम्। वि। चृत। बन्धम्। एतम्। यमेन। त्वम्। यम्या। संविदानेति सम्ऽविदाना। उत्तम इत्युत्ऽतमे। नाके। अधि। रोहय। एनम्॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 63
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेताः कथं भवेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे निर्ऋते! यस्यास्ते तिग्मतेजोऽयस्मयं नमोऽस्ति, सा त्वमेतं बन्धं सुविचृत। यमेन यम्या सह च संविदाना सत्येनं पतिमुत्तमे नाकेऽधिरोहय॥६३॥

    पदार्थः

    (नमः) अन्नादिकम् (सु) (ते) तव (निर्ऋते) नितरामृतं सत्यं यस्यां तत्सम्बुद्धौ (तिग्मतेजः) तीव्राणि तेजांसि यस्मात् तत् (अयस्मयम्) सुवर्णादिप्रकृतम्। अय इति हिरण्यनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.२) (वि) (चृत) विमुञ्च। द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः (बन्धम्) बध्नाति येन तम् (एतम्) (यमेन) न्यायाधीशेन (त्वम्) यम्या न्यायकर्त्र्या (संविदाना) सम्यक्कृतप्रतिज्ञा (उत्तमे) (नाके) आनन्दे भोक्तव्ये सति (अधि) (रोहय) (एनम्)। [अयं मन्त्रः शत॰७.२.१.१० व्याख्यातः]॥६३॥

    भावार्थः

    हे स्त्रियः! यूयं यथेयं पृथिवी तेजः सुवर्णान्नादिसम्बन्धास्ति तथा भवत। यथा युष्माकं पतयो न्यायाधीशा भूत्वा सापराधानपराधिनां सत्यन्यायेन विवेचनं कृत्वा सापराधान् दण्डयन्ति, निरपराधिनः सत्कुर्वन्ति, युष्माननुत्तमानानन्दान् प्रददति, तथा यूयमपि भवत॥६३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर ये स्त्री कैसी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (निर्ऋते) निरन्तर सत्य आचरणों से युक्त स्त्री! जिस (ते) तेरे (तिग्मतेजः) तीव्र तेजों वाले (अयस्मयम्) सुवर्णादि और (नमः) अन्नादि पदार्थ हैं सो (त्वम्) तू (एतम्) इस (बन्धम्) बांधने के हेतु अज्ञान का (सुविचृत) अच्छे प्रकार छेदन कर (यमेन) न्यायाधीश तथा (यम्या) न्याय करने हारी स्त्री के साथ (संविदाना) सम्यक् बुद्धियुक्त होकर (एनम्) इस अपने पति को (उत्तमे) उत्तम (नाके) आनन्द भोगने में (अधिरोहय) आरूढ़ कर॥६३॥

    भावार्थ

    हे स्त्रियो! तुम को चाहिये कि जैसे यह पृथिवी अग्नि तथा सुवर्ण अन्नादि पदार्थों से सम्बन्ध रखती है, वैसे तुम भी होओ। जैसे तुम्हारे पति न्यायधीश होकर अपराधी और अपराधरहित मनुष्यों का सत्य-न्याय से विचार करके अपराधियों को दण्ड देते और अपराधरहितों का सत्कार करते हैं, तुम लोगों के लिये अत्यन्त आनन्द देते हैं, वैसे तुम लोग भी होओ॥६३॥

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    भावार्थ

    हे निर्ऋते ! व्यापक दण्डशक्ते ! ( तिग्मतेज: ) दुःसह तेज से युक्त ( ते नमः ) तेरा नमनकारी बल, बज्र है। और तू ( एतम् ) इस ( अयस्मसं बन्धम् विचृत ) लोहे से बने बन्धन को दूर कर । (वं ) लू ( यमेन ) नियन्ता राजा और ( यम्या ) नियमकारिणी राजसभा से ( संविदाना ) अच्छी प्रकार सम्मति करती हुई ( एनम् ) इस अपने राजा को ( उत्तमे ) उत्तम ( नाके ) सुखमय लोक में ( अधि. राहेय ) स्थापित कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निर्ऋतिर्देवता । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    दुःख

    शब्दार्थ

    (निर्ऋते) हे कृच्छ्रापत्ते ! भीषण दुःख ! (ते) तुझे (सु) स्वागतपूर्वक (नम:) नमस्कार है (तिग्मतेजः) तीक्ष्ण तेज से युक्त तू (एतम्) इस (अयस्मयम्) लोहमय दृढ़ (बन्धम्) बन्धन को (विचृत) काट डाल, दूर कर दे (यमेन यम्या) मन और बुद्धि के द्वारा (संविदाना) सद्विवेक प्राप्त कराती हुई (त्वम्) तू (एनम्) इस मनुष्य को (उत्तमे नाके) उत्तम सुखमय लोक मे, आनन्द की उच्चतम अवस्था में (अधरोहय) स्थापित कर ।

    भावार्थ

    संसार में दुख और सुख सबके ही ऊपर आते हैं । दुःख प्राप्त होने पर मूर्ख रोते हैं, परन्तु ज्ञानी उसका स्वागत करते है । किसी ने कहा है देह धरे का दण्ड है, सब काहू को होय।। ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूर्ख भुगते रोय ।। १. दुःख आने पर ज्ञानी और धीर वीर कहता है - दुःखो और आपत्तियों का स्वागत है आपको नमस्कार हो । २. निर्ऋते ! तेरी धार बहुत तेज़ है, तू अपनी तीक्ष्ण धार से मेरे समस्त बन्धनों को काट दे । ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।’ कर्मों को भोगकर ही उनसे छुटकारा मिल सकता है । कष्टों को सहकर ही हम बन्धनों से मुक्त हो सकते हैं । ३. कृच्छ्रापत्ते ! आओ ! दुःखरूपी भट्टी में पड़कर हमारा मन और हमारी बुद्धि निर्मल एवं पवित्र बनेगी । निर्मल मन और बुद्धि द्वारा हमें सद्ज्ञान तथा सद्विवेक की प्राप्ति होगी। इस सद्विवेक के द्वारा तू हमें उच्चतम आनन्द की स्थिति में पहुँचाएगी, अतः तू आ, हम तेरा स्वागत करते हैं ।

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    विषय

    'यम-यमी' व निर्ऋति

    पदार्थ

    १. हे (तिग्मतेजः) = तीव्र तेजवाली (निर्ऋते) = आपत्ते ! हम (ते) = तेरे लिए (सु) = उत्तमता से (नमः) = नतमस्तक होते हैं। तू (एतम्) = इस (अयस्मयं बन्धनम्) = लोहमय बन्धन को (विचृत) = छिन्न कर दे। आपत्ति व कष्ट का दर्शन यह है कि यह आपत्ति मनुष्य को पाप के बन्धन से मुक्त करने के लिए आती है। 'साम, दाम, भेद, दण्ड' ये चार ही उपाय हैं। जब इनमें से प्रथम तीन उपायों से कार्य नहीं चलता तब प्रभु 'दण्ड' रूप चौथे उपाय का प्रयोग करते हैं। इन्हीं दण्डों को हम कष्ट व आपत्ति कहते हैं। इस आपत्ति का तेज अत्यन्त तीव्र है। यह हमारे लोहे के समान दृढ़ विषय बन्धनों को भी काट देता है। २. यह निर्ऋति कृच्छ्रापत्ति उन्हीं को पीड़ित नहीं करती जिनका जीवन संयमी होता है। उनके साथ तो मानो आपत्ति का समझौता - सा हुआ हो। हे निर्ऋते ! (त्वम्) = तू (यमेन) = संयमी जीवनवाले पुरुष से तथा (यम्या) = संयमी जीवनवाली स्त्री से (संविदाना) = संज्ञान व समझौते को प्राप्त हुई (एनम्) = इसे उत्तमे (नाके) = सर्वोत्कृष्ट स्वर्ग में (अधिरोह) = स्थापित कर । वस्तुतः संयम ही वह गुण है जो हमें कष्टों से बचाकर सुखमय स्थिति में रखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के दण्ड भी आदरणीय हैं। वे हमें विषयों के लोह- समान दृढ़ बन्धनों से भी मुक्त करते हैं। विषयों से मुक्त होकर संयमी जीवनवाले बनकर ही हम स्वर्ग के अधिकारी होते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे स्त्रियांनो ! जशी ही पृथ्वी, अग्नी, सुवर्ण आणि अन्न इत्यादी पदार्थांनी युक्त असते तसे तुम्हीही व्हा. जसे तुमचे पती न्यायाधीश बनून अपराधी व निरपराधी व्यक्तींचा सत्य न्यायाने विचार करतात आणि गुन्हेगारांना शिक्षा व गुन्हेगार नसणाऱ्या व्यक्तींचा खरा न्याय करतात व तुम्हाला अत्यंत आनंदी करतात तसे तुम्हीही बना.

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    विषय

    यानंतर मंत्रात, स्त्रियांनी कसे असावे (स्त्रिया अशा असाव्यात) याविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे ( निर्ऋते) सदा सत्याचरण करणाऱ्या स्त्रिये, (तिग्मतेज:) तीव्र तेजवान (चमचमणारे व प्रभावशाली) असे (ते तुझे ने (अयस्मयम्‌) स्वर्ण आणि (नम:) अन्न आदी पदार्थ आहेत, त्यांचा (त्वम्‌) तू (एतम्‌) (बन्धम्‌) बंधनाचे कारण जे अज्ञान, त्या अज्ञानापासून तू (सुविचृत) चांगल्याप्रकारे मुक्त हो (स्वर्ण आदी धातू व भोज्य व पदार्थ यांच्याविषयीचे अज्ञान दूर सारून त्यांचे सद्पयोग जाणून घे) तसेच (यमेय) न्यायाधीश आणि असलेल्या तुझ्या पतीसह तुझी (यम्मा) न्याय करणारी त्याची पत्नी हो अशारीतीने तू (संविदाना) सम्यक्‌प्रकारे बुद्धिमती होऊन (एनम्‌) आपल्या या पतीला उत्तमे) (नाके) श्रेष्ठ आनंद भोगण्याच्या कमी (अधिरोह्य) सहायक हो ॥63॥

    भावार्थ

    भावार्थ - स्त्रियांनो, तुम्हास उचित आहे की ज्याप्रमाणे ही पृथ्वी अग्नी, सुवर्ण आणि अन्न आदी पदार्थांनी समृद्ध आहे, तसेच तुम्ही देखील व्हा. ज्याप्रमाणे तुमचा न्यायाधीश असलेला पती अपराधी लोकांना दंडित करतो आणि सत्य व न्याय्य रीतीने विचार करून निरपराधी जनांना मुक्त करतो वा त्यांचा सत्कार करतो आणि (अशा आपल्या निष्पक्षवृत्तीने) तुम्हाला आनंदित करतो, तसे तुम्हीदेखील त्याला (आपल्या सदाचरण, सत्यभाषणादी गुणांनी आनंदित करा. ॥63॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, the embodiment of true conduct, thine are the foodstuffs, and substances brilliant like gold ; cut asunder ignorance, the source of bondage. In unanimity with yama and yami, uplift thy husband to the sublimest vault of happiness.

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    Meaning

    Power of eternal law, eternal felicity and adversity, your splendour is awful. You go with the law and are one with the law. Salutations to you. Undo the iron-chains of slavery and take this yajamana to the heights of heavenly bliss.

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    Translation

    O distress of severe intensity, our utmost reverence be to you. May you cut off our this iron bond. Accordnat with the fire divine and earth, may you lift the sacrificer to the highest bliss. (1)

    Notes

    Tigmatejah,तिग्मं तीक्ष्णं यस्या: सा , तस्या सम्बोधने, one whose fiery energy or vital power is unbearable (vocative case). Ayasmayam, made of iron or copper; strong, firm or fast. Vicrta, विचृत has become विचृता in the Veda. (संहितायां दीर्घ:). From चृती ग्रंथे, to bind. विचृत, unbound or cut off. Yamena, अग्निना, with the fire divine.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরেতাঃ কথং ভবেয়ুরিত্যাহ ॥
    পুনরায় এই সব স্ত্রীগণ কেমন হইবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (নিরৃতে) নিরন্তর সত্য আচরণে যুক্ত নারী ! যে (তে) তোমার (তিগ্মতেজঃ) তীব্র তেজ যুক্ত (অয়স্ময়ম্) সুবর্ণাদি এবং (নমঃ) অন্নাদি পদার্থ আছে উহা (ত্বম্) তুমি (এতম্) এই (বন্ধম্) বন্ধনের হেতু অজ্ঞানের (সুবিচৃত) সম্যক্ প্রকার ছেদন কর (য়মেন) ন্যায়াধীশ তথা (য়ম্যা) ন্যায়কারিণী নারী সহ (সংবিদানা) সম্যক্ বুদ্ধিযুক্ত হইয়া (এনম্) এই স্বীয় পতিকে (উত্তমে) উত্তম (নাকে) আনন্দ ভোগ করিতে (অধিরোহয়) আরূঢ় কর ॥ ৬৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে নারিগণ ! তোমাদিগের উচিত যে, যেমন এই পৃথিবী, অগ্নি তথা সুবর্ণ অন্নাদি পদার্থের সঙ্গে সম্পর্ক রাখে সেইরূপ তুমিও হও । যেমন তোমাদের পতিগণ ন্যায়াধীশ হইয়া অপরাধীও অপরাধ রহিত মনুষ্যদিগের সত্য, ন্যায়পূর্বক বিচার করিয়া অপরাধীদিগকে দন্ড দান করেন এবং অনপরাধীদিগকে সৎকার করেন, তোমাদিগের জন্য অত্যন্ত আনন্দ প্রদান করেন সেইরূপ তোমরাও হও ॥ ৬৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    নমঃ॒ সু তে॑ নির্ঋতে তিগ্মতেজোऽয়॒স্ময়ং॒ বি চৃ॑তা ব॒ন্ধমে॒তম্ ।
    য়॒মেন॒ ত্বং য়॒ম্যা সং॑বিদা॒নোত্ত॒মে নাকে॒ऽঅধি॑ রোহয়ৈনম্ ॥ ৬৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নমঃ সু ত ইত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । নির্ঋতির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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