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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विश्वावसुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    93

    नि॒वेश॑नः स॒ङ्गम॑नो॒ वसू॑नां॒ विश्वा॑ रू॒पाभिच॑ष्टे॒ शची॑भिः। दे॒वऽइ॑व सवि॒ता स॒त्यध॒र्मेन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे प॑थी॒नाम्॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒वेश॑न॒ इति॑ नि॒ऽवेश॑नः। स॒ङ्गम॑न॒ इति॑ स॒म्ऽगम॑नः। वसू॑नाम्। विश्वा॑। रू॒पा। अ॒भि। च॒ष्टे॒। शची॑भिः। दे॒व इ॒वेति॑ दे॒वःऽइ॑व। स॒वि॒ता। स॒त्यध॒र्मेति॑ स॒त्यऽध॑र्मा। इन्द्रः॑। न। त॒स्थौ॒। स॒म॒र इति॑ सम्ऽअ॒रे। प॒थी॒नाम् ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निवेशनः सङ्गमनो वसुनाँविश्वा रूपाभि चष्टे शचीभिः । देवऽइव सविता सत्यधर्मेन्द्रो न तस्थौ समरे पथीनाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    निवेशन इति निऽवेशनः। सङ्गमन इति सम्ऽगमनः। वसूनाम्। विश्वा। रूपा। अभि। चष्टे। शचीभिः। देव इवेति देवःऽइव। सविता। सत्यधर्मेति सत्यऽधर्मा। इन्द्रः। न। तस्थौ। समर इति सम्ऽअरे। पथीनाम्॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 66
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कीदृशाः स्त्रीपुरुषा गृहाश्रमं कर्तुं योग्याः सन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    यः सत्यधर्मा सविता देव इव निवेशनः सङ्गमनः शचीभिर्वसूनां विश्वा रूपाऽभिचष्टे। इन्द्रो न समरे पथीनां सम्मुखे तस्थौ, स एव गृहाश्रमाय योग्यो जायते॥६६॥

    पदार्थः

    (निवेशनः) यः स्त्रियां निविशते (सङ्गमनः) सम्यग्गन्ता (वसूनाम्) पृथिव्यादीनां पदार्थानाम् (विश्वा) सर्वाणि (रूपा) रूपाणि (अभि) (चष्टे) पश्यति (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्म्मभिर्वा (देव इव) यथेश्वरः (सविता) सकलजगतः प्रसविता (सत्यधर्मा) सत्यो धर्मो यस्य सः (इन्द्रः) सूर्यः (न) इव (तस्थौ) तिष्ठेत् (समरे) संग्रामे। समर इति संग्रामनामसु पठितम्॥ (निघं॰२.१७) (पथीनाम्) गच्छताम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.२.१.२० व्याख्यातः]॥६६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। यथेश्वरेण मनुष्योपकाराय कारणात् कार्य्याख्या अनेके पदार्था रचिता उपयुज्यन्ते, यथा सूर्यो मेघेन सह युद्धाय वर्त्तते, तथा मनुष्यैः सृष्टिक्रमविज्ञानेन सुक्रियया च भूम्यादिपदार्थेभ्योऽनेके व्यवहाराः संसाधनीयाः॥६६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कैसे स्त्री पुरुष गृहाश्रम करने के योग्य होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (सत्यधर्मा) सत्यधर्म से युक्त (सविता) सब जगत् के रचने वाले (देव इव) ईश्वर के समान (निवेशनः) स्त्री का साथी (सङ्गमनः) शीघ्रगति से युक्त (शचीभिः) बुद्धि वा कर्मों से (वसूनाम्) पृथिवी आदि पदार्थों के (विश्वा) सब (रूपा) रूपों को (अभिचष्टे) देखता है, (इन्द्रः) सूर्य्य के (न) समान (समरे) युद्ध में (पथीनाम्) चलते हुए मनुष्यों के सम्मुख (तस्थौ) स्थित होवे, वही गृहाश्रम के योग्य होता है॥६६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे ईश्वर ने सब के उपकार के लिये कारण से कार्यरूप अनेक पदार्थ रच के उपयुक्त करे हैं; जैसे सूर्य मेघ के साथ युद्ध करके जगत् का उपकार करता है, वैसे रचनाक्रम के विज्ञान और सुन्दर क्रिया से पृथिवी आदि पदार्थों से अनेक व्यवहार सिद्ध कर प्रजा को सुख देवें॥६६॥

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    विषय

    सूर्य के समान सादी राजा का कर्तव्य | पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सविता इव ) सूर्य के समान ( सत्यधर्मा ) सत्य धर्मों का पालक ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् (देव) राजा ( वसूनां ) राष्ट्र में बसनेवाले प्रजाओं का ( निवेशनः ) पृथ्वी पर बसानेहारा और ( वसूनां ) वास कारी- जनों का ( सङ्गमनः ) एकत्र होने का आश्रय होकर ( शचीभिः ) अपनी शक्तियों से ( विश्वा रूपा ) समस्त प्राणियों को ( अभिचष्ठे) देखता है । और वह ही ( पथीनाम् ) शत्रुओं के साथ ( समरे ) युद्ध में ( तस्थौ ) स्थिर रहता है। परमात्मा के पक्ष मे- वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ( सविता ) सर्वोत्पादक देव, परमेश्वर ( वसूनां निवेशनः ) जीवों का और योग्य लोकों का संस्थापक और ( संगमनः ) एक मात्र गन्तव्य एवं सर्वव्यापक ( शचीभिः ) अपनी शक्रियों से ( विश्वा रूपा अभिचष्टे ) समस्त पदार्थों को देखता है । सब का साक्षी है । वही युद्ध में इन्द्र, सेनापति के समान ( समरे ) सब के गन्तव्य संसार में ( पथीनां ) समस्त आवागमन करनेवाले जीवों के ऊपर ( तस्थौ ) अधिष्ठाता रूप से विराजमान है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वावसुर्गन्धर्व ऋषिः । अग्निर्देवता । विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    'विश्वावसु' का जीवन

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार प्रभु से दी गई 'निर्ऋति' = कृच्छ्रापत्ति भी जीव की 'भूति' का कारण बन जाती है। जीवन के अन्दर सब उत्तम गुणों को प्राप्त करके यह व्यक्ति 'विश्वावसु' बन जाता है- 'सम्पूर्ण उत्तम ऐश्वर्योंवाला' अथवा 'विश्व को ही अपने में बसानेवाला'। यहीं से प्रस्तुत मन्त्र का प्रारम्भ होता है कि (निवेशन:) [निविशन्ते अस्मिन्] = इसमें सभी प्राणियों का समावेश हो जाता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का माननेवाला तो यह हो ही गया है। २. (सङ्गमन:) = सबके साथ मिलकर चलता है। यह विरोध की भावना को पैदा नहीं करता। इसकी क्रियाएँ वैर को दूर करके मेल करनेवाली होती हैं । ३. (शचीभि:) - अपने प्रज्ञानों व कर्मों से यह (वसूनाम्) = निवास के लिए आवश्यक धनों के (विश्वा रूपा) = 'अन्न-वस्त्र-गृह- पशु' आदि सब रूपों को अभिचष्टे-देखता है, अर्थात् यह अपने जीवन में बुद्धिपूर्वक कर्म करता हुआ निवास के लिए आवश्यक विविध वस्तुओं को जुटानेवाला होता है। यह अन्याय्य उपायों से धनों के संग्रह में नहीं लगता । ४. इस प्रकार यह (देवः इव) = देवता-सा प्रतीत होने लगता है। लोग ऐसा अनुभव करते हैं और कहते हैं कि 'यह मनुष्य थोड़े ही है, यह तो देवता है'। ५. (सविता) = यह सदा ['सु' =s = sow उत्पादन] निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त रहता है-उत्तम गुणों के बीजों को ही सर्वत्र बोने का ध्यान करता है। ६. (सत्यधर्मे) = सदा सत्य-धारणात्मक कर्मों को करनेवाला होता है। ७. (इन्द्रः न) = इन्द्र के समान यह बन जाता है। प्रभु तो परमेश्वर्यशाली हैं ही, यह भी प्रभु का ही एक छोटा रूप प्रतीत होने लगता है, जितेन्द्रिय बनकर इसने त्रिभुवन को ही जीत लिया है। ८. यह (समरे) = आध्यात्मिक संग्राम में (पथीनाम्) = काम-क्रोधादि वैरियों का (तस्थौ) = डटकर मुकाबला करता है, उनसे पराजित नहीं होता । वस्तुत: इसीलिए तो यह 'विश्वावसु' बना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सभी संसार को अपनी 'मैं' में समाविष्ट करनेवाले बनें। काम-क्रोधादि को जीतें और अपने पिता प्रभु के अनुरूप होने का प्रयत्न करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ईश्वराने कारणापासून कार्यरूपाने अनेक उपयोगी पदार्थ निर्माण करून सर्वांवर उपकार केलेले आहेत. जसा सूर्य मेघांबरोबर युद्ध करून जगावर उपकार करतो तसे माणसांनी उत्पत्ती विज्ञान जाणून उत्तम क्रिया करून पृथ्वी इत्यादींद्वारे अनेक व्यवहार सिद्ध करून प्रजेला सुखी करावे.

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    विषय

    गृहस्थाश्रमासाठी स्त्री-पुरुष कसे असावेत (कोणत्या योग्यतेचे असावेत), पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - तोच पुरुष वा तीच स्त्री गृहाश्रमासाठी पात्र आहे की जे (सत्यधर्मा) सत्य धर्म नियमांप्रमाणे वागणारे आहेत. (देव इन) सत्यधर्मा परमेश्‍वर जसा सर्वांचा साधी आहे, त्याप्रमाणे जो (निवेशन:) स्त्रीचा खरा व प्रामाणिक साथी आहे, जो (सड्नमन:) तिच्यासह गती-प्रगती करतो, तोच पुरुष गृहस्थी होण्यास पात्र आहे. तसेच जो आपल्या (शचीभि:) बुद्धीने व कर्माने (वसूनाम्‌) पृथ्वीवरील पदार्थांच्या (विश्‍वा) सर्व (रूपा) रुपांना, गुण-अवगुणांना (अभिचष्टे) पाहतो आणि जाणतो, तसेच जो पुरुष (इन्द्र:) (न) सूर्याप्रमाणे (समरे) युद्धात (पथीनाम्‌) सोबत चालणाऱ्या साथी माणसांच्यासमोर (तस्थौ) धीटपणे उभा राहतो (सोबतीचे वा सैनिकांचे नेतृत्व करतो), तोच पुरुष गृहाश्रमी होण्यास पात्र मानावा. ॥66॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात दोन उपमा अलंकार आहेत. मनुष्यांकरिता उचित आवश्‍यक आहे की ज्याप्रमाणे ईश्‍वर. सर्वांच्या कल्याणासाठी कारणरुप प्रकृतीपासून कार्यरूप अनेक पदार्थांची रचना करतो, (त्याप्रमाणे मनुष्यांनी इतरांच्या कल्याणासाठी झटावे) सूर्य. जसा ढगांशी युद्ध करून जगावर उपकार करतो, तद्वत मनुष्यांनी रचना, क्रम, क्रिया, विज्ञान आदीद्वारे सर्वांच्या सोयीचे अनेक कार्य सिद्ध करावेत. आणि सर्व लोकांना सुखी करावे ॥66॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He alone is fit to lead a married life, who, like God, the Creator of the universe, and master of eternal laws, keeps constant company with his wife and behaves properly, who, like the sun, opposes the warriors on the battle-field.

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    Meaning

    Who is a noble yajamana? A successful house¬ holder (grihasthi)? The man of vitality who takes a wife, makes a home, creates wealth and contributes to life like Savita, the creator; who watches and illuminates all forms of life on earth with his eyes like the sun, and manages various developments with his acts like Indra, the leader; who is firm in true Dharma and stands inviolable in the battles of the path makers of the world — such a man is the right yajamana and a noble house-holder.

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    Translation

    Establisher of the sacrificer in his house, and gatherer of treasures for him, the fire divine oversees all the creatures as well as their actions. He is true to law as the Creator God. As the resplendent Lord He stands fast apainst the adversaries in the struggle. (1)

    Notes

    Nivesanah, निवेशति स्थापयति यजमानं य: स:, one that establishes the sacrificer (in his house or in his kingdom). निवेशंते अस्विन् इति निवेशन: in whom the riches reside or enter (Uvata). Dayünanda interprets this verse as pertaining to man and woman, and translates : निवेशन: ‘one who enters in à woman. ’ Saügamanah, संगमयति प्रापयतीति संगम:, one who Notes XII. 67 935 fetches wealth for the sacrificer. सम्यग् गंता, one who approaches a woman properly (Dayi. ). Satyadharma, true to law. धर्म duty, or law of universe. Pathinain, परिपंथिनां, enemies or advarsaries. पथिकानां, travellers (Daya. ). Pathways (Griffith).

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    बंगाली (1)

    विषय

    কীদৃশাঃ স্ত্রীপুরুষা গৃহাশ্রমং কর্তুং য়োগ্যাঃ সন্তীত্যাহ ॥
    কেমন স্ত্রী পুরুষ গৃহাশ্রম করিবার যোগ্য হয় এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে (সত্যধর্মা) সত্যধর্ম দ্বারা যুক্ত (সবিতা) সর্ব জগতের রচয়িতা (দেব ইব) ঈশ্বরের সমান (নিবেশনঃ) স্ত্রী সঙ্গী (সঙ্গমনঃ) শীঘ্রগতিপূর্বক যুক্ত (শচীভিঃ) বুদ্ধি বা কর্ম দ্বারা (বসূনাম্) পৃথিবী আদি পদার্থের (বিশ্বা) সমস্ত (রূপা) রূপকে (অভিচষ্টে) দেখে (ইন্দ্রঃ) সূর্য্যের (ন) সমান (সমরে) যুদ্ধে (পথীনাম্) চলন্ত মনুষ্যদিগের সম্মুখ (তস্থৌ) স্থিত হয় সেই ব্যক্তি গৃহাশ্রমের যোগ্য হইয়া থাকে ॥ ৬৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে দুটি উপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন ঈশ্বর সকলের উপকার হেতু কারণ থেকে কার্য্যরূপ অনেক পদার্থ রচনা করিয়া উপযুক্ত করিয়াছেন । যেমন সূর্য্য মেঘ সহ যুদ্ধ করিয়া জগতের উপকার করে সেইরূপ রচনাক্রমের বিজ্ঞান এবং সুন্দর ক্রিয়া দ্বারা পৃথিবী ইত্যাদি পদার্থ দ্বারা অনেক ব্যবহার সিদ্ধ করিয়া প্রজাকে সুখ প্রদান করিবে ॥ ৬৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    নি॒বেশ॑নঃ সং॒গম॑নো॒ বসূ॑নাং॒ বিশ্বা॑ রূ॒পাऽভি চ॑ষ্টে॒ শচী॑ভিঃ ।
    দে॒বऽই॑ব সবি॒তা স॒ত্যধ॒র্মেন্দ্রো॒ ন ত॑স্থৌ সম॒রে প॑থী॒নাম্ ॥ ৬৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নিবেশন ইত্যস্য বিশ্বাবসুর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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