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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 86
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    57

    यस्यौ॑षधीः प्र॒सर्प॒थाङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः। ततो॒ यक्ष्मं॒ विबा॑धध्वऽउ॒ग्रो म॑ध्यम॒शीरि॑व॥८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑। ओष॑धीः। प्र॒सर्प॒थेति॑ प्र॒ऽसर्प॑थ। अङ्ग॑मङ्ग॒मित्यङ्ग॑म्ऽअङ्गम्। प॑रुष्परुः। परुः॑परु॒रिति॒ परुः॑ऽपरुः। ततः॑। यक्ष्म॑म्। वि। बा॒ध॒ध्वे॒। उ॒ग्रः। म॒ध्य॒म॒शीरि॒वेति॑ मध्यम॒शीःऽइ॑व ॥८६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यौषधीः प्रसर्पथाङ्गम्ङ्गम्परुष्परुः । ततो यक्ष्मँ वि बाधध्व उग्रो मध्यमशीरिव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। ओषधीः। प्रसर्पथेति प्रऽसर्पथ। अङ्गमङ्गमित्यङ्गम्ऽअङ्गम्। परुष्परुः। परुःपरुरिति परुःऽपरुः। ततः। यक्ष्मम्। वि। बाधध्वे। उग्रः। मध्यमशीरिवेति मध्यमशीःऽइव॥८६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 86
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    यथायोग्यं सेवितमौषधं रोगान् कथं न नाशयेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं यस्याङ्गमङ्गं परुष्परुः प्रति वर्त्तमानं उग्रो यक्ष्मं मध्यमशीरिव विबाधध्वे। तत ओषधीः प्रसर्पथ विजानीत तान् वयं सेवेमहि॥८६॥

    पदार्थः

    (यस्य) (ओषधीः) (प्रसर्पथ) (अङ्गमङ्गम्) प्रत्यवयवम् (परुष्परुः) मर्ममर्म (ततः) (यक्ष्मम्) (वि) (बाधष्वे) (उग्रः) (मध्यमशीरिव) यो मध्यमानि मर्माणि शृणातीव॥८६॥

    भावार्थः

    यदि शास्त्राऽनुसारेणौषधानि सेवेरँस्तर्ह्यङ्गादङ्गाद् रोगान् निःसार्याऽरोगिनो भवन्ति॥८६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    ठीक-ठीक सेवन की हुई ओषधी रोगों को कैसे न नष्ट करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग (यस्य) जिसके (अङ्गमङ्गम्) सब अवयवों और (परुष्परुः) मर्म-मर्म के प्रति वर्त्तमान है, उसके उस (उग्रः) तीव्र (यक्ष्मम्) क्षय रोग को (मध्यमशीरिव) बीच के मर्मस्थानों को काटते हुए के समान (विबाधध्वे) विशेष कर निवृत्त कर (ततः) उसके पश्चात् (ओषधीः) ओषधियों को (प्रसर्पथ) प्राप्त होओ॥८६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य लोग शास्त्र के अनुसार ओषधियों का सेवन करें, तो सब अवयवों से रोगों को निकाल के सुखी रहते हैं॥८६॥

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    भावार्थ

    हे ( ओषधीः) ओषधियो ! ( यस्य ) जिस रोगी पुरुष के ( अङ्ग अङ्गम् ) अंग अंग और (परुः परुः ) पोरु पोरु में (प्रसर्पथ) तुम अच्छी प्रकार फैल जाती हो तब ( मध्यमशीः) मर्मों तक को काट देने वाला या मध्यम, ( उग्र: इव ) प्रचण्ड बलवान् राजा जिस प्रकार शत्रु को नाश कर डालता है उसी प्रकार ( ततः ) उस शरीर से ( यक्ष्मं ) रोग को ( विबाधध्वं ) विनष्ट कर देती हो । इसी प्रकार हे ( ओषधीः ) वीर्यवती सेनाओ ! तुम जिस राष्ट्र के अंग २ और पोरु२ में फैल जाती हो ( मध्यमशीः उग्रः इव ) बीच के भागों को तोड़ने वाले या मध्यम, प्रचण्ड क्षत्रिय के समान ही तुम सब भी रोग के समान शत्रु का नाश करती हो ।

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    विषय

    यक्ष्म-विबाधन [रोग- भङ्ग]

    पदार्थ

    १. वैद्य ओषधियों को सम्बोधित करके कहता है कि (ओषधी:) = हे ओषधियो ! तुम (यस्य) = जिस रोगी के (अङ्ग अङ्ग) = अङ्ग अङ्ग में (परुष्परुः) = और पर्व पर्व में (प्रसर्पथ) = जाती हो या व्याप्त होती हो (ततः) = उस-उस अङ्ग व पर्व से उस रोगी के (यक्ष्मम्) = रोग को (विबाधध्वे) = बाधित करती हो, अर्थात् उस अङ्ग व पर्वसमुदाय से व्याधि को दूर करती हो । २. ओषधियों द्वारा रोगों के बाधन का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि (उग्रः) = गोधा व अंगुलित्राण को बाँधे हुए क्षत्रिय (इव) = जैसे (मध्यमशी:) = [ देहमध्ये भवं मध्यमं मर्मभागं शृणाति हिनस्ति ] देहमध्य में होनेवाले मर्मभाग को हिंसित करता है। मर्मघातक क्षत्रिय जैसे दुष्ट के लिए भयंकर होता है, उसी प्रकार ये ओषधियाँ रोगों के लिए भयंकर होती हैं। उग्र क्षत्रिय जैसे शत्रु के दो टुकड़े कर डालता है, इसी प्रकार यह ओषधि रोग के टुकड़े कर डालती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक सद्वैद्य से दी गई उत्तम ओषधि रोगरूप शत्रु को इस प्रकार नष्ट कर देती है जैसे कि उग्र क्षत्रिय से प्रयुक्त अस्त्र शत्रु को मार डालता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे शास्त्रानुसार औषधांचे सेवन करतात त्यांच्या सर्व अवयवांचे रोग नष्ट होतात व ती सुखी होतात.

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    विषय

    उचित पद्धतीने आणि योग्य प्रमाणात घेतल्यास औषधी रोग नष्ट करतात, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (वस्य) ज्या रोगाचे वैशिष्ट्य आहे की (अड्गमड्गम्‌) शरीरातील सर्व अवयवांवर आणि (पुरुषारु:) प्रत्येक मर्मस्थानी आक्रमण करतो, त्या (उग्र) अतीव भयानक (मध्यमशीरिव) शरीरामध्ये मर्मस्थानीं लपलेल्या (यक्षम्‌) क्षयरोगाचा (विबाधस्व) विशेष रुपाने विनाश करा (तत:) त्यासाठी (औषधी:) औषधी (प्रसर्पथ) प्राप्त करा आणि त्यांचा उपयोग करा ॥86॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जी माणसें वैद्यशास्त्राप्रमाणे औषधी सेवन करतात, ती शरीरातील सर्व अवयवांत दडलेल्या रोगांचा बाहेर काढून नष्ट करतात आणि अशाप्रकारे आनंदी राहतात ॥86॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O medicines, when ye creep in a patient part by part, joint by joint, ye destroy his pulmonary disease, as a strong man destroys the delicate bodily parts of the foe.

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    Meaning

    When the medicines spread over every part and every joint of the sick person, then, mighty and powerful, present in every cell of the body, they drive away the consumptive forces of disease, eliminating, as if, the enemy intruders of the body.

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    Translation

    O herbs, from the body of the patient, in whom you spread, limb by limb and joint by joint, expel the disease, like a sharpshooter hitting the vital parts. (1)

    Notes

    Madhyamasih, देहस्य मध्यमं भागं शृणाति हिनस्ति य: स: मध्यमशी:, one that hits the central (vital) part of the body; a skilled sharpshooter.

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    बंगाली (1)

    विषय

    য়থায়োগ্যং সেবিতমৌষধং রোগান্ কথং ন নাশয়েদিত্যাহ ॥
    যথাযোগ্য সেবিত ওষধী রোগগুলিকে কীভাবে নষ্ট না করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (য়স্য) যাহার (অঙ্গমঙ্গম্) সকল অবয়ব এবং (পরুষ্পরুঃ) মর্ম মর্মের প্রতি বর্ত্তমান তাহার সেই (উগ্রঃ) তীব্র (য়ক্ষ্মম্) ক্ষয়রোগকে (মধ্যমশীরিব) মধ্যের মর্মস্থানগুলিকে কাটিবার সমান (বিবাধধ্বে) বিশেষ করিয়া নিবৃত্ত কর (ততঃ) তাহার পশ্চাৎ (ওষধীঃ) ওষধি সকলকে (প্রসর্পথ) প্রাপ্ত হও ॥ ৮৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে মনুষ্যগণ শাস্ত্রানুযায়ী ওষধের সেবন করিবে তাহা হইলে সকল অবয়ব হইতে রোগ বহির্ভূত হইয়া সুখী থাকিবে ॥ ৮৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্যৌ॑ষধীঃ প্র॒সর্প॒থাঙ্গ॑মঙ্গং॒ পর॑ুষ্পরুঃ ।
    ততো॒ য়ক্ষ্মং॒ বি বা॑ধধ্বऽউ॒গ্রো ম॑ধ্যম॒শীরি॑ব ॥ ৮৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্যৌষধীরিত্যস্য ভিষগৃষিঃ । বৈদ্যো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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