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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 91
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    114

    अ॒व॒पत॑न्तीरवदन् दि॒वऽओष॑धय॒स्परि॑। यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः॥९१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒पत॑न्ती॒रित्य॑व॒ऽपत॑न्तीः। अ॒व॒द॒न्। दि॒वः। ओष॑धयः। परि॑। यम्। जी॒वम्। अ॒श्नवा॑महै। नः। सः। रि॒ष्या॒ति॒। पूरु॑षः। पूरु॑ष॒ इति॒ पुरु॑षः ॥९१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवपतन्तीरवदन्दिवऽओषधयस्परि । यञ्जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवपतन्तीरित्यवऽपतन्तीः। अवदन्। दिवः। ओषधयः। परि। यम्। जीवम्। अश्नवामहै। नः। सः। रिष्याति। पूरुषः। पूरुष इति पुरुषः॥९१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 91
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अध्यापकाः सर्वेभ्य उत्तमौषधिविज्ञानं कारयेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    वयं या दिवोऽवपतन्तीरोषधयः सन्ति, या विद्वांसः पर्यवदन्, याभ्यो यं जीवमश्नवामहै, याः संसेव्य स पूरुषो न रिष्यति, कदाचिद् रोगैर्हिंसितो न भवेत्॥९१॥

    पदार्थः

    (अवपतन्तीः) अध आगच्छन्तीः (अवदन्) उपदिशन्तु (दिवः) प्रकाशात् (ओषधयः) सोमाद्याः (परि) सर्वतः (यम्) (जीवम्) प्राणधारकम् (अश्नवामहै) प्राप्नुयाम (न) निषेधे (सः) (रिष्याति) रोगैर्हिंसितो भवेत् (पूरुषः) पुमान्॥९१॥

    भावार्थः

    विद्वांसोऽखिलेभ्यो मनुष्येभ्यो दिव्यौषधीनां विद्यां प्रदद्युः, यतोऽलं जीवनं सर्वे प्राप्नुयुः। एता ओषधीः केनापि कदाचिन्नैव विनाशनीयाः॥९१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अध्यापक लोग सब को उत्तम ओषधि जनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हम लोग जो (दिवः) प्रकाश से (अवपतन्तीः) नीचे को आती हुई (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधि हैं, जिनका विद्वान् लोग (पर्य्यवदन्) सब ओर से उपदेश करते हैं, जिनसे (यम्) जिस (जीवम्) प्राणधारण को (अश्नवामहै) प्राप्त होवें, (सः) वह (पूरुषः) पुरुष (न) कभी न (रिष्याति) रोगों से नष्ट होवे॥९१॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग सब मनुष्यों के लिये दिव्य ओषधिविद्या को देवें, जिससे सब लोग पूरी अवस्था को प्राप्त होवें। इन ओषधियों को कोई भी कभी नष्ट न करे॥९१॥

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    भावार्थ

    ( दिवः ) प्रकाशमान् सूर्य से आनेवाली किरणों के समान . ज्ञानवान वैद्य पुरुष के पास से ( अवपतन्तीः ) आती हुई ( ओषधयः ) वीर्यवती ओषधियां ( अवदन् ) मानो कहती हैं कि (यं जीवन ) जिस प्राणधारी के शरीर को भी हम ( अश्नवामहै ) व्याप लेती हैं ( सः पुरुष: ) वह देहवासी आत्मा, पुरुष ( न रिष्याति ) पीड़ित नहीं होता । इसी प्रकार (दिवः परि अवपतन्ती ) सूर्य के समान तेजस्वी एवं युद्धविजयी सेनापति के पास से जाती हुई वीर्यवती ( ओषधयः ) ताप और वीर्य को धारण करनेवाली सेनाएं कहती हैं कि ( यं जीवम् ) जिस जीवधारी प्राणी को हम ( अश्नवामहै ) अपने अधीन लेलेती हैं। ( सः पुरुषः न रिष्यति ) वह पुरुष कष्ट नहीं पाता । स्त्रियों के पक्ष में-- ( दिवः ) तेजस्वी पुरुष के पास से गर्भित होकर ( ओषधयः ) वीर्य धारण करने में समर्थ स्त्रिये (अवपतन्तीः) पतियों से संगत होकर कहती हैं ( यं जीवम् आश्नवामहै ) प्राणधारी जिस जीव को. हम गर्भ में धारण करलेती हैं ( सः पुरुषः न रिष्यति ) वह आत्मा कभी नष्ट या पीड़ित नहीं होता।

    टिप्पणी

    अवयन्तीः समवदन्त दिव० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्धुरृषिः । ओषधयो देवता । अनुष्टुप् गांधारः ॥

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    विषय

    रोग निवारण

    पदार्थ

    १. गत मन्त्रों का ऋषि (भिषक्) = चारों रोगों का निवारण करता है, अतः 'वरुण' [निवारण करनेवाला] बन गया है। यह वरुण कहता है कि (दिवः परि) = द्युलोक के समीप से (अवपतन्ती:) = नीचे आती हुई, वृष्टि - बिन्दु के रूप में भूमि पर गिरती हुई (ओषधयः) = ओषधियाँ (अवदन्) = परस्पर बात-सी करती हैं कि २. (यम्) = जिस (जीवम्) = अनुत्क्रान्तप्राण पुरुष को (अश्नवामहै) = हम प्राप्त होती हैं (सः पुरुषः) = वह पुरुष (न रिष्याति) = हिंसित नहीं होता। ओषधियाँ मनुष्य की रक्षा करती हैं। ३. 'ये ओषधियाँ द्युलोक से नीचे आई हैं', अतः अलौकिक दिव्य गुणोंवाली हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-ओषधियाँ दिव्य हैं। वृष्टिजल से इनका उत्पादन हुआ है। ये यदि जीवित पुरुष तक पहुँच जाएँ तो फिर उसे जाने नहीं देतीं, उसे जिला ही देती हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्वान लोकांनी सर्व माणसांना दिव्य औषध विद्या शिकवावी, ज्यामुळे ते पूर्ण आयुष्य भोगतील. हे औषध कधीही कोणीही नष्ट करू नये.

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    विषय

    अध्यापक (चिकित्साशास्त्राचे ज्ञाता) लोकांनी सर्वांना उत्तम औषधींविषयी माहिती सांगावी, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (दिव:) प्रकाशापासून (आकाशातून सूर्य आणि चंद्राच्या प्रकाशापासून (अवपतन्ती:) खाली येणाऱ्या (औषधय:) सोमलता आदी औषधी आहेत की ज्यांविषयी विद्वान (वैद्यजन) (पर्थ्यवदन्‌) नेहमी उपदेश करतात, त्या औषधींमधे (यम्‌) जी (जीवम्‌) प्राणशक्ती आहे, तिची आम्ही (अश्‍नवामहै) लाभ घ्यावा अशा (स:) त्या (पुरुष:) पुरुषाला (औषधी घेणारा माणसाला) कधीही (न)(रिष्याति) रोगामुळे मृत्यू येऊ नये. (आमच्या औषधी अचूक व नेहमी परिणामकारक असाव्यात) ॥91॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विद्वज्जनांनी (तज्ञ वैद्यांनी) दिव्य औषधीविद्येचे शिक्षण-ज्ञान सर्वाना द्यावे की ज्यामुळे सर्व जण पूर्ण आयुष्य जगतील. अशा गुणकारी औषधींना कोणी कदापी नष्ट करूं नये ॥91॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The learned talk about the medicines, that like the rays emanating from the sun, come from an experienced physician. No disease shall attack the man, whom, while he liveth, these pervade.

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    Meaning

    The medicinal herbs come from heaven, the region of light and life. So say the wise. The person who feeds upon them never comes to any suffering.

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    Translation

    Descending from heaven to earth, the herbs say among themselves: “The man, in whom there is still some life, does not die, if we get into him. ”(1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    অধ্যাপকাঃ সর্বেভ্য উত্তমৌষধিবিজ্ঞানং কারয়েয়ুরিত্যাহ ॥
    অধ্যাপকগণ সকলকে উত্তম ওষধি সম্পর্কে জানাইবেন, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- আমরা (দিবঃ) প্রকাশ হইতে (অবপতন্তী) নিম্নে আগত যে (ওষধয়ঃ) সোমলতাদি ওষধী, যাহার বিদ্বান্গণ (পর্য়্যবদন্) সকল দিক দিয়াউপদেশ করেন । (য়ম্) যাহা (জীবম্) প্রাণধারককে প্রাপ্ত হইবে (সঃ) সেই (পুরুষঃ) পুরুষ (ন) কখনও না (রিষ্যাতি) রোগ দ্বারা নষ্ট হয় ॥ ঌ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিদ্বান্গণ সকল মনুষ্যদিগের জন্য দিব্য ওষধি বিদ্যা প্রদান করুন যদ্দ্বারা সকলে পূর্ণ অবস্থা প্রাপ্ত করুক । এই সব ওষধিগুলিকে কেহ কখনও নষ্ট করিবে না ॥ ঌ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ব॒পত॑ন্তীরবদন্ দি॒বऽওষ॑ধয়॒স্পরি॑ ।
    য়ং জী॒বম॒শ্নবা॑মহৈ॒ ন স রি॑ষ্যাতি॒ পূর॑ুষঃ ॥ ঌ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অবপন্তীরিত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । বৈদ্যা দেবতাঃ । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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