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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 16
    ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    97

    ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणास्तृ॑ता वि॒श्वक॑र्मणा। मा त्वा॑ समु॒द्रऽ उद्व॑धी॒न्मा सु॑प॒र्णोऽअव्य॑थमाना पृथि॒वीं दृ॑ꣳह॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध॒रुणा॑। आस्तृ॒तेत्याऽस्तृ॑ता। वि॒श्वक॑र्म॒णेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणा। मा। त्वा॒। स॒मु॒द्रः। उत्। व॒धी॒त्। मा। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अव्य॑थमाना। पृ॒थि॒वीम्। दृ॒ꣳह॒ ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धु्रवासि धरुणास्तृता विश्वकर्मणा । मा त्वा समुद्र उद्बधीन्मा सुपर्णा व्यथमाना पृथिवीन्दृँह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवा। असि। धरुणा। आस्तृतेत्याऽस्तृता। विश्वकर्मणेति विश्वऽकर्मणा। मा। त्वा। समुद्रः। उत्। वधीत्। मा। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। अव्यथमाना। पृथिवीम्। दृꣳह॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे राजपत्नि! यतो विश्वकर्मणा पत्या सह वर्त्तमानाऽऽस्तृता धरुणा ध्रुवाऽसि, साऽव्यथमाना सती त्वं पृथिवीमुद्दृंह त्वा समुद्रो मावधीत्, सुपर्णश्च मा वधीत्॥१६॥

    पदार्थः

    (ध्रुवा) निष्कम्पा (असि) (धरुणा) विद्याधर्मधर्त्री (आस्तृता) वस्त्रालङ्कारशुभगुणैः सम्यगाच्छादिता (विश्वकर्मणा) विश्वानि समग्राणि धर्म्यकर्माणि यस्य पत्युस्तेन (मा) (त्वा) त्वाम् (समुद्रः) समुद्द्रवन्ति कामुका यस्मिन् व्यवहारे सः (उत्) (वधीत्) हन्यात् (मा) (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालितान्यङ्गानि यस्य सः (अव्यथमाना) पीडामप्राप्ता (पृथिवीम्) स्वराज्यभूमिम् (दृꣳह) वर्धय। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.२.५ व्याख्यातः]॥१६॥

    भावार्थः

    यादृशीं राजनीतिविद्यां राजाऽधीतवान् भवेत्, तादृशीमेव राज्ञ्यप्यधीतवती स्यात्। सदैवोभौ पतिव्रतास्त्रीव्रतौ भूत्वा न्यायेन पालनं कुर्य्याताम्। व्यभिचारकामव्यथारहितौ भूत्वा धर्मेण सन्तानानुत्पाद्य स्त्रीन्यायं स्त्री पुरुषन्यायं पुरुषश्च कुर्य्यात्।॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजपत्नी कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजा की स्त्री! जिस कारण (विश्वकर्मणा) सब धर्मयुक्त काम करने वाले अपने पति के साथ वर्त्तती हुई (आस्तृता) वस्त्र, आभूषण और श्रेष्ठ गुणों से ढपी हुई (धरुणा) विद्या और धर्म की धारणा करनेहारी (ध्रुवा) निश्चल (असि) है, सो तू (अव्यथमाना) पीड़ा से रहित हुई (पृथिवीम्) अपनी राज्यभूमि को (उद्दृंह) अच्छे प्रकार बढ़ा (त्वा) तुझ को (समुद्रः) जार लोगों का व्यवहार (मा) मत (वधीत्) सतावे और (सुपर्णः) सुन्दर रक्षा किये अवयवों से युक्त तेरा पति (मा) नहीं मारे॥१६॥

    भावार्थ

    जैसी राजनीति विद्या को राजा पढ़ा हो, वैसी ही उसकी राणी भी पढ़ी होनी चाहिये। सदैव दोनों परस्पर पतिव्रता, स्त्रीव्रत हो के न्याय से पालन करें। व्यभिचार और काम की व्यथा से रहित होकर धर्मानुकूल पुत्रों को उत्पन्न करके स्त्रियों का स्त्री राणी और पुरुषों का पुरुष राजा न्याय करे॥१६॥

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    विषय

    पृथ्वी राजशक्ति, और पक्षान्तर में स्त्री का सुरक्षित रहने का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे पृथिवि ! हे राजशक्ते ! हे स्त्रि ! तू ( ध्रुवा असि ) ध्रुव, सदा निश्चल भाव से रहनेवाली ( असि ) हो । ( धरुणा ) तू समस्त लोकों का आश्रय है और तू (विश्वकर्मणा) समस्त उत्तम कर्मों को करने में समर्थ शिल्पियों या प्रजापति, राजा द्वारा ( आस्तृता ) नाना उत्तम उपयोगी पदार्थों से आच्छादित एवं सुरक्षित रह । ( समुद्रः ) समुद्र या अकाश (त्वा) तुझको ( मा उद्धधीत् ) विनाश न करे । ( सुपर्णः ) उत्तम पालन करने वाले राज्यसाधनों से युक्त राजा भी ( त्वा मा उद्वधीत् ) तुझे न मारे । तू ( अव्यथमाना ) स्वयं पीड़ित न होकर ( पृथिवीं ) पृथिवी को या पृथिवी निवासिनी विशाल प्रजा को ( दृंह ) बढ़ा । यज्ञ में इस मन्त्र से आ'तृण्णा' का स्थापन करते हैं । 'आतृण्णा' पद से ब्राह्मणकार ने पृथिवी, अन्न, प्राण प्रतिष्ठा, स्त्री और पृथ्वीनिवासी लोकों को ग्रहण किया है। अन्नं वै स्वयम् आतृण्णा प्राणो वै स्वय- मातृरणा इयं ( पृथिवी ) स्वयमातृण्णा । या सा प्रतिष्ठा एषा सा प्रथमा स्वयमातृण्णा । इमे वै लोकाः स्वयमातृण्णा । इमे वै लोका: प्रतिष्ठा ॥ शत० ७।४।२।१।१० ॥ स्त्री पक्ष में -- हे स्त्रि ! तू ध्रुव हो, तू सब गृहस्थ सुखों का ( धरुणा ) आश्रय है । तू ( विश्वकर्मणा अस्तृता ) समस्त धर्म कार्यों के करने वाले पति द्वारा सुरक्षित हो ( समुद्रःत्वा मा उदवधीत् ) समुद्र के समान उमड़ने वाला कामोन्माद तुझे नाश न करे ( सुपर्णः) उत्तम पालक साधनों से सम्पन्न पति भी तुझे न मारे । तू ( अव्यथमाना ) निर्भय,पीड़ा, कष्ट से रहित रहकर ( पृथिवीं) पृथिवी के समान अपने शरीर मेंविद्यमान पुत्र प्रजननाङ्ग रूप भूमि को ( दृंह ) वृद्धि कर उनको हृष्ट पुष्ट कर ॥ शत० ७।४।२।५॥ समुद्र इव हि कामः । नहि कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य । तै० २।२।५।६॥ पृथिवी पक्ष में- वह ध्रुव, स्थिर सर्वाश्रय है । बड़े शिल्पी उसको बड़े २ महल, सेतु उद्यान आदि आश्चर्यजनक पदार्थों और रक्षा साधन यदि द्वारा सुरक्षित रखें । समुद्र, अन्तरिक्ष और ( सुपर्णा: ) सूर्य और वायु ये पृथ्वी की शक्तियों का नाश न करें। प्रत्युत वह अपनी निवासी प्रजा की ही वृद्धि करे ।

    टिप्पणी

    ऊर्ध्ववहती सर्वा० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आतृण्णा अग्निर्वा देवता । स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ।

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    विषय

    पत्नी भी त्रिशिरा: हो, समुद्र व सुपर्ण

    पदार्थ

    १. स्त्री भी खूब उन्नत जीवनवाली हो। कैसी ? (ध्रुवा असि) = तू घर में ध्रुव होकर रहनेवाली है। छोटी-छोटी बातों से रूठकर पितृगृह की ओर जानेवाली नहीं। साथ ही अपने जीवन की मर्यादाओं में स्थिरता से रहनेवाली है। २. (धरुणा) = घर में रहती हुई सबका धारण करनेवाली है। अन्न-वस्त्र आदि सब धारणात्मक वस्तुओं का पूर्णतया ध्यान करनेवाली है। ३. (विश्वकर्मणा) = गृह-सम्बन्धी सब कार्यों से तू (आस्तृता) = आच्छादित है, अर्थात् तू सदा घर के कार्यों में लगी रहती है, इसीलिए तो तेरे समीप पाप नहीं आ पाता, क्योंकि इसका मन तो घर के कार्यों में लगा है। ४. इस प्रकार कर्मों में लगा होने के कारण इसका जीवन वासनामय नहीं बनता, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (समुद्रः) = [ स मुद्] सदा मौज की मनोवृत्ति में रहनेवाला, मज़े उड़ानेवाला, जिसके दृष्टिकोण में संसार केवल मौज के लिए बना है, ऐसा जार [छैला] पुरुष (त्वा) = तुझे (मा) = मत (उद्बधीत्) = धर्म मार्ग से बाहर करनेवाला हो हो [ उत्=out, हन्-गति ] । (सुपर्ण:) = जैसे एक सुन्दर पंखोंवाला पक्षी होता है, इसी प्रकार चमक-दमकवाले कपड़े पहनकर घूमनेवाला व्यक्ति मा मत विचलित करनेवाला हो। तू इन समुद्रों और (सुपर्णी-बांके) = छैलछबीले व्यक्तियों के पाश में फँसनेवाली न हो। ५. (अव्यथमाना) = भय से विचलित न होती हुई तू (पृथिवीं दृंह) = अपने शरीर को दृढ़ बना । तेरे दृढ़ शरीर के साथ वे खिलवाड़ न कर सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ -पत्नी ध्रुव हो, धरुण हो, कर्मों में लगी हो, बांके - छैले युवकों का शिकार न हो जाए । अविचलित होती हुई अपने शरीर को दृढ़ बनाये ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा जसा राजनीतीमध्ये निपुण असतो तसे राणीनेही असावे. दोघांनीही पातिव्रत्य व पत्नीव्रताचे पालन करून न्यायाने वागावे. व्यभिचार व कामव्यथेपासून दूर राहून धर्मानुकूल पुत्र उत्पन्न करावेत. राणीने स्त्रियांचा न्याय करावा व पुरुषांनी पुरुषांचा त्याय करावा.

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    विषय

    राजपत्नी कशी असावी, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजपत्नी, (विश्‍वकर्मणा) सर्व धर्मयुक्त कार्य करणाऱ्या आपल्या पतीसह तू आनंदाने राहत आहेस. (आस्तृता) सुंदर वस्त्र-आभूषणादींनी आणि उत्तम गुणांनी तू समृद्ध आहेस (धरूणा) विद्या आणि धर्म या दोन्ही पालन करणारी (धर्माप्रमाणे वागणारी) आणि (ध्रुवा) धैर्यशीला अथवा (पतिगृही स्थिरपणे सदैव राहणारी) (असि) आहेस. (आम्ही प्रजेतील सर्व स्त्रिया अशी कामना करीत आहोत की) तू सदैव (अव्ययमाना) पीडा व दु:खापासून दूर असावी (तुला दु:ख कष्ट होऊ नये आणि अशाप्रकारे तू (पृथिवीम्‌) आपल्या या राज्याचा सदा (उदंड) उत्कर्ष करीत रहा. (समुद्र:) (त्वा) (समुद्र:) तू कधीही दुराचारी जार लोकांप्रमाणे (मा) (वधीत) वागू नकोस (वा त्यांच्याशी संबंध येऊ नये.) तसेच (सुपर्ण:) बलवान शरीराचा आणि सुंदर अंग असलेला तुझा पती (मा) कधीही तुझा घातक होऊ नये. (पतिकडून तुला कोणताही त्रास होऊ नये) ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा जसा राजनीतीविद्येत कुशल असावा, त्याची पत्नीदेखील तशीच सुविद्य आणि राजकारणप्रवीण असावी. दोघांनी नेहमी एकमेकाशी प्रामाणिक आणि विश्‍वासार्ह असावे. पत्नीने पतिव्रता आणि पतीने पत्नीव्रत असावे. आणि न्याय्यरीतीने प्रजेचे पालन करावे. दोघांनी नेहमी व्यभिचार आणि कामवासनेपासून दूर राहून धर्मानुसार संतोत उत्पन्न करावीत. राणीने स्त्रियांच्या प्रश्‍नांबाबत आणि राजाने पुरुषांच्या प्रकरणात न्याय करावा. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O queen, living in the company of thy religious-minded husband, and adorned with dress, ornaments and good qualities, acquiring knowledge and practising religion, remain steadfast. Being free from distress, advance the country under thy rule. Let no lascivious person torment thee, let not thy husband with beautiful body, harm thee.

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    Meaning

    Spirit of the human nation, polity of the world, you are the centre-hold of dharma, enlightenment and peace, created, completed and blest by the Lord-maker of the world, Vishvakarma. Let not the seas hurt you. Let not the sky, sun and moon and the clouds hurt you. Unhurt, free and peaceful, develop, beautify and beatify the earth.

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    Translation

    O lady of the house, you are firmly set and look after all. You have been established by the Lord himself. May not gold allure you nor a man of fine features. Unshaken in your place, may you make the world steady. (1)

    Notes

    According to the ritualists, the sacrificer lays on the golden man a svayamütrnná brick, i. e. a naturally porous brick, which is made of grit, gravel and sand. Day4nanda interprets this mantra as addressed to the wife of the king. Dhruva, स्थिरा, finn. Dharuna, अनेषां धारयित्री, supporter of others. Samudra, रुक्मो वै समुद्र: पुरुष: सुपर्ण: (Satapatha, VIL 4. 2. 5), samudra is gold indeed and supama is man. मुद्रया सहित: समुद्र:, a man with money. Suparnah, शोभनानि पर्णानि पालितान्यंगानि यस्य स:, а man of well developed and handsome physique (Day4. ). Parna means a leaf; also wing of a bird. In the context of a man, it may mean fine features or dress. This may be a good advice to any lady of the house.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সা কীদৃশী ভবেদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে রাজপত্নী কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজার স্ত্রী ! যে কারণে (বিশ্বকর্মণা) সব ধর্মযুক্ত কর্ম কারী স্বীয় পতিসহ ব্যবহার করিয়া (আস্তৃতা) বস্ত্র, আভূষণ এবং শ্রেষ্ঠ গুণ দ্বারা আচ্ছাদিত (বরুণা) বিদ্যা ও ধর্ম ধারিণী (ধ্রুবা) নিশ্চল (অসি) আছো, সুতরাং তুমি (অব্যয়মানা) পীড়া হইতে রহিত হইয়া (পৃথিবীম্) স্বীয় রাজ্যভূমিকে (উদৃংহ) সম্যক ভাবে বৃদ্ধি কর (ত্বা) তোমার (সমুদ্রঃ) জার লোকদিগের ব্যবহার (মা) না (বধীৎ) নিপীড়ন করে এবং (সুপর্ণঃ) সুন্দর রক্ষা কৃত অবয়ব সমূহ দ্বারা যুক্ত তোমার পতি (মা) না মারে ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যেমন রাজনীতি বিদ্যা রাজা পড়িয়াছে সেইরূপই তাঁহার রাণীরও পড়া হওয়া উচিত । সর্বদা উভয়ে পরস্পর পতিব্রতা ও স্ত্রীব্রত হইয়া ন্যায়পূর্বক পালন করিবে । ব্যভিচার ও কামব্যথা হইতে রহিত হইয়া ধর্মানুকূল পুত্রদিগকে উৎপন্ন করিয়া স্ত্রীদিগকে স্ত্রী রাণী এবং পুরুষদিগকে পুরুষ রাজা ন্যায় করিবে ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ধ্রু॒বাসি॑ ধ॒রুণাস্তৃ॑তা বি॒শ্বক॑র্মণা ।
    মা ত্বা॑ সমু॒দ্রऽ উদ্ব॑ধী॒ন্মা সু॑প॒র্ণোऽঅব্য॑থমানা পৃথি॒বীং দৃ॑ꣳহ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ধ্রুবাসীত্যস্য ত্রিশিরা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ।

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