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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 24
    ऋषिः - इन्द्राग्नी ऋषी देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृद्धृतिः स्वरः - ऋषभः
    73

    वि॒राड् ज्योति॑रधारयत् स्व॒राड् ज्योति॑रधारयत्। प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयतु पृ॒ष्ठे पृ॑थि॒व्या ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒ ज्योति॑र्यच्छ। अ॒ग्निष्टेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। ज्योतिः॑। अ॒धा॒र॒य॒त्। स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। ज्योतिः॑। अ॒धा॒र॒य॒त्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॒ प्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। पृ॒ष्ठे। पृ॒थि॒व्याः। ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। विश्व॑म्। ज्योतिः॑। य॒च्छ॒। अ॒ग्निः। ते॒। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराड्ज्योतिरधारयत्स्वराड्ज्योतिरधारयत्। प्रजापतिष्ट्वा सादयतु पृष्ठे पृथिव्या ज्योतिष्मतीम् । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानाय विश्वञ्ज्योतिर्यच्छ । अग्निष्टे धिपतिस्तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विराडिति विऽराट्। ज्योतिः। अधारयत्। स्वराडिति स्वऽराट्। ज्योतिः। अधारयत्। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। त्वा। सादयतु। पृष्ठे। पृथिव्याः। ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्मै। प्राणाय। अपानायेत्यपऽआनाय। व्यानायेति विऽआनाय। विश्वम्। ज्योतिः। यच्छ। अग्निः। ते। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 24
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    दम्पती अन्योऽन्यं कथं वर्तेयातामित्याह॥

    अन्वयः

    या विराट् स्त्री ज्योतिरधारयत्, यः स्वराट् पुरुषो ज्योतिरधारयत्, सा स चाऽखिलं सुखं प्राप्नुयात्। हे स्त्रि! योऽग्निस्तेऽधिपतिरस्ति, तया देवतया सह त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद। हे पुरुष! याऽग्निस्तवाऽधिपत्न्यस्ति, तया देवतया सह त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवः सीद। हे स्त्रि! यः प्रजापतिः पृथिव्याः पृष्ठे विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानाय ज्योतिष्मतीं विद्युतमिव त्वा सादयतु, सा त्वं विश्वं ज्योतिर्यच्छैतस्मा एनं पतिं त्वं सादय॥२४॥

    पदार्थः

    (विराट्) या विविधासु राजते (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम् (अधारयत्) धारयेत् (स्वराट्) सर्वेषु धर्माचरणेषु स्वयं राजते (ज्योतिः) विद्युदादिप्रकाशम् (अधारयत्) (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकः (त्वा) त्वाम् (सादयतु) संस्थापयतु (पृष्ठे) तले (पृथिव्याः) भूमेः (ज्योतिष्मतीम्) प्रशस्तं ज्योतिर्विद्याविज्ञानं विद्यते यस्यास्ताम् (विश्वस्मै) अखिलाय (प्राणाय) प्राणिति सुखं येन तस्मै (अपानाय) अपानिति दुःखं येन तस्मै (व्यानाय) व्यानिति सर्वान् शुभगुणकर्मस्वभावान् येन तस्मै (विश्वम्) समग्रम् (ज्योतिः) विज्ञानम् (यच्छ) गृहाण (अग्निः) विज्ञानवान् (ते) तव (अधिपतिः) स्वामी (तया) (देवतया) दिव्यया (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मवत् (ध्रुवा) निष्कम्पा (सीद) स्थिरा भव। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.२.२३ व्याख्यातः]॥२४॥

    भावार्थः

    ये स्त्रीपुरुषाः सत्संगविद्याभ्यासाभ्यां विद्युदादिपदार्थविद्यां वर्द्धयन्ते त इह सुखिनो भवन्ति। पतिः स्त्रियं सदा सत्कुर्यात्, स्त्री पतिञ्च कुर्य्यात्। एवं परस्परं प्रीत्या सहैव सुखं भुञ्जाताम्॥२४॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    स्त्री-पुरुष आपस में कैसी वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (विराट्) अनेक प्रकार की विद्याओं में प्रकाशमान स्त्री (ज्योतिः) विद्या की उन्नति को (अधारयत्) धारण करे-करावे, जो (स्वराट्) सब धर्म्मयुक्त व्यवहारों में शुद्धाचारी पुरुष (ज्योतिः) बिजुली आदि के प्रकाश को (अधारयत्) धारण करे-करावे, वे दोनों स्त्री-पुरुष सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त होवें। हे स्त्रि! जो (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी विज्ञानयुक्त (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी है, (तया) उस (देवतया) सुन्दर देवस्वरुप पति के साथ तू (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा वायु के समान (ध्रुवा) दृढ़ता से (सीद) स्थिर हो। हे पुरुष! जो अग्नि के समान तेजधारिणी तेरी रक्षा को करनेहारी स्त्री है, उस देवी के साथ तू प्राणों के समान प्रीतिपूर्वक निश्चय करके स्थित हो। हे स्त्रि! (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक तेरा पति (पृथिव्याः) भूमि के (पृष्ठे) ऊपर (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) सुख की चेष्टा के हेतु (अपानाय) दुःख हटाने के साधन (व्यानाय) सब सुन्दर गुण, कर्म्म और स्वभावों के प्रचार के हेतु प्राणविद्या के लिये जिस (ज्योतिष्मतीम्) प्रशंसित विद्या के ज्ञान से युक्त (त्वा) तुझ को (सादयतु) उत्तम अधिकार पर स्थापित करे, सो तू (विश्वम्) समग्र (ज्योतिः) विज्ञान को (यच्छ) ग्रहण कर और इस विज्ञान की प्राप्ति के लिये अपने पति को स्थिर कर॥२४॥

    भावार्थ

    जो स्त्री-पुरुष सत्संग और विद्या के अभ्यास से विद्युत् आदि पदार्थविद्या और प्रीति को नित्य बढ़ाते हैं, वे इस संसार में सुख भोगते हैं। पति स्त्री का और स्त्री पति का सदा सत्कार करे, इस प्रकार आपस में प्रीतिपूर्वक मिल के ही सुख भोगें॥२४॥

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    विषय

    तेजस्वी राजा और समृद्ध तेजस्विनी प्रजा ।

    भावार्थ

    ( विराट् ) विविध प्रकारों से और विविध ऐश्वयों से प्रकाशमान विराट् पृथिवी जिस प्रकार ( ज्योति: ) अग्नि को या सूर्य के तेज को अपने भीतर ( अधारयत्) धारण करती है उसी प्रकार ( विराट् ) विविध गुणों से कान्तिमती विराट् पत्नी ( ज्योतिः ) अपने पति के तेजस्वरूप वीर्य को धारण करती है । (स्वराट् ज्योतिः अधारयत् ) स्वयं अपने प्रकाश से दीप्त होने वाला सूर्य जिस प्रकार ( ज्योतिः अधारयत्) तेज को धारण करता है उसी प्रकार अपने वीर्य था बाहु पराक्रम से प्रकाशमान राजा और अपने गुणों से कामान पति पुरुष भी तेज को धारण करे। हे पति ! (त्या ज्योतिष्मतीस्) तुम उत्तम तेज से सम्पन्न को ( प्रजापतिः ) प्रजा का पालक ( पृथिव्याः पृष्ठे सादयतु] ) पृथिवी के पृष्ठ पर स्थापित करे । अथवा पति तुझ उत्पादक भूमि में वीर्य आधान करे। इसी प्रकार ( प्रजापतिः ) प्रजा का पालक राजा हे प्रजे ! ( वा ज्योतिष्मतीम् ) तुम ऐश्वर्यं वाली को ( पृथिव्याः पृष्ठे ) पृथ्वी तल पर ( सादयतु ) बसावे । (विश्वस्मै प्राणाय अपानाय व्यानाय ) सब प्रजाजनों के प्राण, अपान और व्यान इन शक्तियों की वृद्धि के लिये यत्न करे । हे राजन् ! तू ( विश्वं ज्योतिर्यच्छ ) सब प्रकार का तेज प्रदान कर । हे पृथिवि ! हे पत्नि ! ( ते अधिपतिः ) तेरा अधिपति, स्वामी, ( अग्निः ) अग्नि या सूर्य के समान हो । ( तया देवत्या ) उस देवस्वभाव अधिपति के साथ या देव, राजागण के संग तू भी ( अंगिरस्वत् ) अग्नि के समान देदीप्यमान विद्वान् शिल्पियों से समृद्ध होकर ( ध्रुवा ) स्थिर होकर ( सीद ) विराज ॥ शत० ७ । ४ । २ । २३ । २८ ॥ इसी प्रकार स्त्री ( अस्मै विश्व ज्योतिः ) अपने पति के समस्त सर्वाङ्ग तेजोरूप वीर्य को प्रजा के प्राण, अपान व्यान के लिये नियम में रक्खे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विराट् स्वराट् । प्रजापतिरग्निश्च देवताः । निचृद् बृहती | ऋषभः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे स्त्री-पुरुष सत्संग व विद्याभ्यासाने विद्युत इत्यादी पदार्थ विद्येची वृद्धी करून प्रेमाने राहतात ते या जगात सुख भोगतात. पतीने पत्नीचा व पत्नीने पतीचा नेहमी सत्कार करावा. याप्रमाणे आपापसात प्रीतिपूर्वक राहून सुख भोगावे.

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    विषय

    पति-पत्नीने एकमेकाशी कसे वागावे, विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - जी (विराट्) अनेक विद्याविद्‌ असल्यामुळे कीर्तिमंत स्त्री (ज्योति:) विद्येचा प्रकाश (ज्ञान) (अधारमत्‌) स्वत: धारण करते आणि इतरांना करविते आणि जो (स्वराट्) सर्व धर्मयुक्त कार्य आणि शुद्ध आचरण करणारे पुरुष (ज्योति:) विद्युत आदीचा प्रकाश (अधारयत्‌) धारण करतात आणि करवितात (स्वत: विजेचा यथोचित वापर करतात आणि इतरांना त्यापासून लाभ मिळवून देतात) ते दोघे (विद्यावान पत्नी आणि विज्ञानवान पती) संपूर्ण सुख प्राप्त करोत, (ही आमची कामना आहे) यानंतर विद्वान स्त्रीला उद्देशून सामाजिकजन म्हणतात) हे स्त्री, हा जो (अग्नि:) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी विज्ञानमय (वैज्ञानिक) (ते) तुझा (अधिपति:) पती आहे, (तया) त्या (देवतया) सुंदर देवस्वरूप पतीसह तू (अड्गिरस्वत्‌) सूत्रात्मा वाढू प्रमाणे (ध्रुवा) दृढतेने (सीद) स्थिर रहा (त्याच्यापासून कधीही वेगळी होऊ नकोस) (पत्नीला उद्देशून) हे पती, अग्निप्रमाणे रक्षण करणारी तेजस्विनी अशी जी तुझी पत्नी आहे, त्या देवीसह तू प्रेमाने राहण्याचा निर्धार करून प्राणाप्रमाणे रहा (म्हणजे प्राण जसे सर्वांना प्रिय असतात तसा व तशी तू पत्नीसह सदैव रहा) (पत्नी उद्देशून) हे पत्नी, (प्रजापति:) प्रजेचे रक्षण करणारा तुझा पती (पृथिव्या:) (पृष्ठे) भूमीवर वा राज्यात (विश्‍वस्मै) जे सर्व अधिकार तुला देईल (तुझ्यावर जी जी जबाबदारी सोपवील), ती ती तू पार पाडत जा) (प्राणाय) सुखाप्राप्तीसाठी (अपानाय) दु:खनिवृत्तीसाठी आणि (व्यानाय) सर्व उत्तम कुल, कर्म, स्वभाव प्राप्त करण्यासाठी (ज्योतिष्मतीम्‌) उत्तम विद्याज्ञान संपन्न (त्वा) तुझ्या पतीने तुला जबाबदारी (सादयतु) सोपवावी (तुला कर्तव्य पूर्ण करण्यासाठी सांगावे) त्या (विश्‍वम्‌) सर्व (ज्योति:) विज्ञानाला तू (यच्छ) ग्रहण कर. आणि या उत्तम विज्ञानाला प्राप्त करण्यासाठी सदा पतीसह रहा आणि (त्याच्या जबाबदाऱ्या पार पाडण्यासाठी त्याला साहाय्यभूत हो) ॥24॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे स्त्री-पुरुष (वा पति-पत्नी) सत्संग, म्हणजे एकमेकास सहकार्य करीत आणि विद्याभ्यासाद्वारे विद्युत आदी शक्ती आणि भौतिकशास्त्राविषयी अधिक रुची (वा शोध, प्रयोगाकरिता विशेष प्रघटन) करतात, ते या जमात अवश्‍य सुखी होतात. पतीने पत्नीचा आणि पत्नीने पतीचा संघ आदर-सत्कार करावा (एकमेकास विद्याभ्यासासाठी प्रेरणा द्यावी व चांगले केल्याबद्दल आदर-सत्कार करावा (एकमेकास विद्याभ्यासासाठी प्रेरणा द्यावी व चांगल्याबद्दल उत्साह वाढवावा) अशाप्रकारे प्रेमाची वागणूक देत दोघांनी सुख अनुभवाने ॥24॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The woman, who, filled with the light of different sorts of knowledge, spreads learning, and the morally advanced person, who shines like lightning, may both these husband and wife attain to happiness. Live permanently like soul, with thy husband, who is learned and godly in nature. O woman, thy husband, the guardian of his progeny, establishes thee, endowed with learning on this earth, in a place of responsibility, for the acquisition of happiness, removal of suffering, and the practice of yoga for preaching noble qualities, actions and attributes. Imbibe thou full knowledge.

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    Meaning

    The cosmic forms of the universe bear the light of the Lord. Self-luminant stars such as the sun bear the light as their own. O lady of light and knowledge, noble teacher and torch-bearer, may the father of created beings, Prajapati, instal you in your seat on the face of the earth. Give full light of knowledge to others for the sake of full energy, safeguard against suffering, and all good qualities of nature, character and action. Agni, lord of light and life, is your master and guardian. Stay firm and secure with that noble and gracious lord as the soul with the body, Prakriti with Purusha and the light of dawn with the day.

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    Translation

    The great refulgent holds the light; the self-refulgent holds the light. (1) May the Lord of creatures settle you, the luminous, on the surface of the earth. (2) Мау you give all the light to all the in-breath, the out-breath. and the through-breath. The fire divine, O lady, is your lord. Мау you be seated firm in your place by that divinity. shining bright. (3)

    Notes

    In the ritual, the sacrificer lays two bricks, called retahsic, i. e. seed-pouring, with this mantra. Virat, विराडयं लोक: this world is called virát. Also, विशेषेण राजते इति विराट्, the great refulgent. Svarat, असौ वै लोक: स्वराट्, the yonder world is called svarat. Also, self-refulgent.

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    बंगाली (1)

    विषय

    দম্পতী অন্যোऽন্যং কথং বর্তেয়াতামিত্যাহ ॥
    স্ত্রী-পুরুষ পরস্পর কেমন ব্যবহার করিবে, এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে (বিরাট্) বহু প্রকারের বিদ্যায় প্রকাশমান স্ত্রী (জ্যোতিঃ) বিদ্যার উন্নতিকে (অধারয়ৎ) ধারণ করিবে করাইবে, (স্বরাট্) সব ধর্মযুক্ত ব্যবহারে শুদ্ধাচারী পুরুষ (জ্যোতিঃ) বিদ্যুতাদির প্রকাশকে (অধারয়ৎ) ধারণ করিবে ও করাইবে, তাহারা উভয় স্ত্রী-পুরুষ সম্পূর্ণ সুখ প্রাপ্ত হইবে । যে (অগ্নিঃ) অগ্নির সমান তেজস্বী বিজ্ঞানযুক্ত (তে) তোমার (অধিপতিঃ) স্বামী (তয়া) সেই (দেবতয়া) সুন্দর দেবস্বরূপ পতিসহ তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) সূত্রাত্মা বায়ুর সমান (ধ্রুবা) দৃঢ়তা পূর্বক (সীদ) স্থির হও । হে পুরুষ! যে অগ্নিসম তেজধারিণী তোমার রক্ষাকারিণী স্ত্রী সেই দেবী সহ তুমি প্রাণগুলির সমান প্রীতিপূর্বক নিশ্চয় করিয়া স্থির হও । হে স্ত্রী! (প্রজাপতি) প্রজারক্ষক তোমার পতি (পৃথিব্যাঃ) ভূমির (পৃষ্ঠে) উপর (বিশ্বস্মৈ) সকল (প্রাণায়) সুখের চেষ্টা হেতু (অপানায়) দুঃখ দূরীভূত করিবার সাধন (ব্যানায়) সকল সুন্দর গুণ, কর্ম্ম ও স্বভাবের প্রচার হেতু প্রাণবিদ্যার জন্য যে (জ্যোতিষ্মতীম্) প্রশংসিত বিদ্যাজ্ঞানযুক্ত (ত্বা) তোমাকে (সাদয়তু) উত্তম অধিকারের উপর স্থাপিত করিবে সুতরাং তুমি (বিশ্বম্) সমগ্র (জ্যোতিঃ) বিজ্ঞানকে গ্রহণ কর এবং এই বিজ্ঞানের প্রাপ্তির জন্য স্বীয় পতিকে স্থির কর ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে স্ত্রী পুরুষ সৎসঙ্গ ও বিদ্যার অভ্যাস দ্বারা বিদ্যুতাদি পদার্থবিদ্যা ও প্রীতিকে নিত্য বৃদ্ধি করে তাহারা এই সংসারে সুখ ভোগ করে । পতি স্ত্রীর এবং স্ত্রী পতির সর্বদা সৎকার করিবে । এইভাবে পরস্পর প্রীতিপূর্বক মিলিয়া সুখ ভোগ করিবে ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি॒রাড্ জ্যোতি॑রধারয়ৎ স্ব॒রাড্ জ্যোতি॑রধারয়ৎ ।
    প্র॒জাপ॑তিষ্ট্বা সাদয়তু পৃ॒ষ্ঠে পৃ॑থি॒ব্যা জ্যোতি॑ষ্মতীম্ ।
    বিশ্ব॑স্মৈ প্রা॒ণায়া॑পা॒নায়॑ ব্যা॒নায়॒ বিশ্বং॒ জ্যোতি॑র্য়চ্ছ ।
    অ॒গ্নিষ্টেऽধি॑পতি॒স্তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বা সী॑দ ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিরাড্জ্যাতিরিত্যস্যেন্দ্রাগ্নী ঋষী । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদ্ধৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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