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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 55
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः
    102

    अ॒यं द॑क्षि॒णा वि॒श्वक॑र्मा॒ तस्य॒ मनो॑ वैश्वकर्म॒णं ग्री॒ष्मो मा॑न॒सस्त्रि॒ष्टुब् गै्रष्मी॑ त्रि॒ष्टुभः॑ स्वा॒रꣳ स्वा॒राद॑न्तर्य्या॒मोऽन्तर्या॒मात् प॑ञ्चद॒शः प॑ञ्चद॒शाद् बृ॒हद् भ॒रद्वा॑ज॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ मनो॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। द॒क्षि॒णा। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। तस्य॑। मनः॑। वै॒श्व॒क॒र्म॒णमिति॑ वैश्वऽक॒र्म॒णम्। ग्री॒ष्मः। मा॒न॒सः। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। ग्रैष्मी॑। त्रि॒ष्टुभः॑। त्रि॒स्तुभ॒ इति॑ त्रि॒ऽस्तुभः॑। स्वा॒रम्। स्वा॒रात्। अ॒न्त॒र्या॒म इत्य॑न्तःया॒मः। अ॒न्त॒र्या॒मादित्य॑न्तःऽया॒मात्। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ प॒ञ्च॒ऽद॒शः। प॒ञ्च॒द॒शादिति॑ पञ्चऽद॒शात्। बृ॒हत्। भ॒रद्वा॑ज॒ इति॑ भ॒रत्ऽवा॑जः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। मनः॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य मनो वैश्वकर्मणङ्ग्रीष्मो मानसस्त्रिष्टुब्ग्रैष्मी त्रिष्टुभः स्वारँ स्वारादन्तर्यामोन्तर्यामात्पञ्चदशः पञ्चदशाद्बृहद्भरद्वाजऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया मनो गृह्णामि प्रजाभ्यः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। दक्षिणा। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। तस्य। मनः। वैश्वकर्मणमिति वैश्वऽकर्मणम्। ग्रीष्मः। मानसः। त्रिष्टुप्। त्रिस्तुबिति त्रिऽस्तुप्। ग्रैष्मी। त्रिष्टुभः। त्रिस्तुभ इति त्रिऽस्तुभः। स्वारम्। स्वारात्। अन्तर्याम इत्यन्तःयामः। अन्तर्यामादित्यन्तःऽयामात्। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। पञ्चदशादिति पञ्चऽदशात्। बृहत्। भरद्वाज इति भरत्ऽवाजः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। मनः। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैर्ग्रीष्म ऋतौ कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! यथा दक्षिणाऽयं विश्वकर्मा वायुरिवास्ति, तस्य वैश्वकर्मणं मनो मानसो ग्रीष्मो ग्रैष्मी त्रिष्टुप् त्रिष्टुभः स्वारं स्वारादन्तर्यामोऽन्तर्यामात् पञ्चदशः पञ्चदशाद् बृहद्भरद्वाज ऋषिः प्रजापतिगृहीतया विद्यया सह राजा प्रजाभ्यो मनो गृह्णाति, तथा त्वया साकमहं विश्वस्माद् विज्ञानं गृह्णामि॥५५॥

    पदार्थः

    (अयम्) वायुः (दक्षिणा) दक्षिणतः (विश्वकर्मा) विश्वान्यखिलानि कर्माणि यस्मात् सः (तस्य) वायोः (मनः) मननशीलं प्रेरकं कर्म (वैश्वकर्मणम्) यस्माद् विश्वानि कर्माणि निवृर्त्तानि भवन्ति तत् (ग्रीष्मः) यो रसान् ग्रसते सः (मानसः) मनस ऊष्मेव वर्त्तमानः (त्रिष्टुप्) छन्दः (ग्रैष्मी) ग्रीष्मर्तुव्याख्यात्री ऋक् (त्रिष्टुभः) छन्दसः (स्वारम्) तापाज्जातं तेजः (स्वारात्) (अन्तर्यामः) अन्तर्मध्ये यामाः प्रहरा यस्मिन् समये सः (अन्तर्यामात्) (पञ्चदशः) पञ्चदशानां तिथीनां पूरकः स्तोमः (पञ्चदशात्) (बृहत्) महान् (भरद्वाजः) वाजोऽन्नं विज्ञानं वा बिभर्त्ति येन श्रोत्रेण तत् (ऋषिः) विज्ञापकः (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (मनः) मननात्मकविज्ञानयुक्तं चित्तम् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः)। [अयं मन्त्रः शत॰८.१.१.७-९ व्याख्यातः]॥५५॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषैः प्राणस्य मनो नियन्तृ मनसश्च प्राणो नियन्तेति विदित्वा प्राणायामान्मनःशुद्धि संपादयद्भिरखिलायाः सृष्टेः पदार्थविज्ञानं स्वीकार्यम्॥५५॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब मनुष्यों को ग्रीष्म ऋतु में कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! जैसे (दक्षिणा) दक्षिण दिशा से (अयम्) यह (विश्वकर्मा) सब कर्मों का निमित्त वायु के समान विद्वान् चलता है, (तस्य) उस वायु के योग से (वैश्वकर्मणम्) जिससे सब कर्म सिद्ध होते हैं, वह (मनः) विचारस्वरूप प्रेरक मन (मानसः) मन की गर्मी से उत्पन्न के तुल्य (ग्रीष्मः) रसों का नाशक ग्रीष्म ऋतु (ग्रैष्मी) ग्रीष्म ऋतु के व्याख्यान वाला (त्रिष्टुप्) त्रिष्टुप् छन्द (त्रिष्टुभः) त्रिष्टुप् छन्द के (स्वारम्) ताप से हुआ तेज (स्वारात्) और तेज से (अन्तर्यामः) मध्याह्न के प्रहर में विशेष दिन और (अन्तर्यामात्) मध्याह्न के विशेष दिन से (पञ्चदशः) पन्द्रह तिथियों की पूरक स्तुति के योग्य पूर्णमासी (पञ्चदशात्) उस पूर्णमासी से (बृहत्) बड़ा (भरद्वाजः) अन्न वा विज्ञान की पुष्टि और धारण का निमित्त (ऋषिः) शब्दज्ञान प्राप्त कराने हारा कान (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति राजा ने ग्रहण की विद्या से न्याय का ग्रहण करता है, वैसे मैं (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (मनः) विचारस्वरूप विज्ञानयुक्त चित्त का ग्रहण करता है, वैसे मैं (त्वया) तेरे साथ विज्ञान का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ॥५५॥

    भावार्थ

    स्त्री पुरुषों को चाहिये कि प्राण का मन और मन का प्राण नियमन करने वाला है, ऐसा जान के प्राणायाम से आत्मा को शुद्ध करते हुए पुरुषों से सम्पूर्ण सृष्टि के पदार्थों का विज्ञान स्वीकार करें॥५५॥

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    विषय

    वायु [दक्षिणा विश्वकर्मा] मनो- ग्रहण - भरद्वाज

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह (दक्षिणा विश्वकर्मा) = [अयं वै वायुर्विश्वकर्मा एष हीदं सर्वं करोति, तद्यत्तमाह दक्षिणेति तस्मादेष दक्षिणैव भूयिष्ठं वाति-श० ८।१।१।७] दक्षिणा का अधिपति सब कर्मों को करनेवाला वायु है। यह सब कालों में बहता ही रहता है, रुकता नहीं । २. (तस्य वैश्वकर्मणं मनः) = उस वायु- विश्वकर्मा का सन्तान मन है। सदा कर्मों में लगे रहना ही मन को स्वस्थ बनाये रखने का साधन है। ३. (मानस: ग्रीष्मः) = मन की सन्तान वाणी है, उत्साह है। सारा उत्साह मानस स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। ४. (ग्रैष्मी त्रिष्टुप्) = इस उत्साह की सन्तान त्रिष्टुप् है- काम, क्रोध व लोभ का रोकना है। अध्यात्म उन्नति का उत्साह बने रहने पर ही काम, क्रोध व लोभ का रोकना निर्भर है। इन्हें सरलता से रोका नहीं जा सकता, इनके रोकने के लिए निरन्तर दीर्घकाल तक प्रयत्न अपेक्षित है-वह प्रयत्न उत्साह बने रहने पर ही सम्भव होगा । ५. (त्रिष्टुभः) = इस काम, क्रोध व लोभ के रोकने [stopping] से (स्वारम्) = [स्वयं राजते] स्वयंराजमानता = स्वशासन = अपराधीनता - इन्द्रियादिकों की गुलामी का न होना होता है। ६. (स्वारात्) = इस स्वयंराजमानता से (अन्तर्याम:) = अन्दर का नियमन होता है। वस्तुतः स्वयंराजमानता का ही स्पष्टीकरण 'अन्तर्यामः' है। इसी से मनुष्य अन्तःस्थ इन्द्रियादि का नियमन करता है । ७. इस (अन्तर्यामात्) = अन्तर्याम से (पञ्चदशः) = पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों व पाँच प्राणों को स्वाधीन करनेवाला यह व्यक्ति पञ्चदश बनता है। ८. (पञ्चदशात्) = इस पञ्चदश बनने से यह (बृहत्) = सदा वृद्धिशील होता है । ९. यह वृद्धिशील व्यक्ति (भरद्वाजः ऋषिः) = अपने में शक्ति व ज्ञान को भरनेवाला तत्त्वद्रष्टा बनता है। १०. यह तत्त्वद्रष्टा पत्नी से कहता है कि (प्रजापतिगृहीतया) = प्रजापति का ग्रहण करनेवाली (त्वया) = तेरे साथ (मनः गृह्णामि) = मैं अपने मन का निग्रह करता हूँ, (प्रजाभ्यः) = जिससे हम उत्तम सन्तानों को जन्म दे सकें। विक्षिप्त मनवालों के सन्तान विक्षिप्त से ही होंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इस दक्षिणा के अधिपति वायु के समान सदा, सब कर्मों के अधिपति होते हुए उत्तम क्रियाशील, जितमना:- मनस्वी सन्तानों को ही जन्म देनेवाले हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्राण मनाचे नियमन करतो व मन हे प्राणाचे नियमन करते हे स्त्री-पुरुषांनी जाणावे. प्राणायामाने आत्मा शुद्ध करणाऱ्या पुरुषांकडून संपूर्ण सृष्टीच्या पदार्थांचे विज्ञान अंगीकारावे.

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    विषय

    आता मनुष्यांनी ग्रीष्मऋतूमधे कसे वागावे (काय करावे) याविषयी पुढील मंत्रात प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पती पत्नीस म्हणतो) हे पत्नी, (या ग्रीष्म ऋतूत) (दक्षिणा) दक्षिण दिशेकडून (अयम्‌) हा (विश्‍वकर्मा) सर्व व्यवहार, कर्मायीचे कारण असलेला वायू वाहतो. (तस्य) त्या वायूमुळे (वैश्‍वकर्मणम्‌) सर्व कर्मपूर्तीचे कारण जे (मन:) विचाररुप आणि प्रेरक मन (मनस:) ते मन उष्णतेमुळे उष्ण वा व्यथित होते. त्याचप्रमाणे (ग्रीष्म:) रसांचे शोषण करणाऱ्या ग्रीष्म ऋतूचे (ग्रॅष्मी) त्या ऋतूत होणाऱ्या उष्णता आदी वैशिष्ट्यांचे वर्णन ज्या (त्रिष्टुप्‌) त्रिष्टुप्‌ छंदामधे केले आहे, त्या (त्रिष्टुभ:) त्रिष्टुप्‌ छंदांचे (वाचन करावे) तसेच (स्वारम्‌) उन्हाळ्याच्या तापाने (स्वारात्‌) आणि तेजाने (उन्हाने) (अंतर्याम:) मध्याहृदकाळात दिवसाचे वैशिष्ट्य (अति तीव्रता) जाणवते. त्या (अंतर्यामात्‌) मध्याह्णकाळात दिवसाचे वैशिष्ट्य (अति तीव्रता) जाणवते. त्या (अंतर्यामात्‌) मध्याह्णाच्या विशेष काळात क्रमाक्रमाने (पच्चदश:) पंद्रह तिथी होत होत प्रिय अशी (पच्चदशात्‌) पूर्णमासी, पौर्णिमा, येते. त्या पौर्णिमेने (बृहत्‌) भरपूर (भरद्वाज:) अन्न आणि विज्ञानाची पुष्टी होते. विज्ञानाच्या धारणाचे निमित्त आहे (ऋषि:) शब्दग्रहण करणारे कान. (उन्हाळ्यात ज्ञान-विज्ञानाच्या गोष्टी ऐकाव्यात) (प्रजापतिसृट्टी तया) प्रजापालक राजा ज्याप्रमाणे आपल्या विद्या-ज्ञानाद्वारे न्यायदान करतो, त्याप्रमाणे, हे पत्नी, मी (तुझा पती) (त्वया) तुझ्या सह (प्रजाभ्य:) आपल्या मुलामुलींसाठी (मन:) विचारांचा आधार जे मन, त्या मनाने विज्ञानाचे (गृह्णामि) ग्रहण करतो. (आणि ते विज्ञान संतानांना देतो) ॥55॥

    भावार्थ

    भावार्थ - स्त्रियांचे पुरुषांचे कर्तव्य आहे की प्राणांचे नियमन करणारे आहे मन (मन:संयम) प्राणायामाद्वारे साध्य आहे) आणि मनाचे नियमन करणारा आहे प्राण-(प्राणशक्तीवर मनाने विजय मिळविता येतो) हे तत्त्व जाणून प्राणायामाद्वारे (आत्मा शुद्ध करावा आणि इतर ज्ञानी लोकांकडून सृष्टीतील पदार्थांचे ज्ञान-विज्ञान मिळवीत रहावे ॥55॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O wife, in the south resides this air, the source of all acts. From that air the doer of all deeds, comes the mind. From the heat of the mind comes the summer. The eulogiser of summer is the Trishtup metre. From the warmth of Trishtup comes the intense glow. From the intense glow comes the mid-day. From mid-day comes the day of the full moon. From that comes the ear the organ of receiving and strengthening knowledge. Just as a king, with his knowledge, administers justice to his subjects, so do I, with thee, cultivate a contemplative mind for the people.

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    Meaning

    On the right (south) is the spirit and power of the divine, Vishwakarma, like vayu, wind and electric energy, the divine agency by which is accomplished every action and movement of the world. The offspring of Vishwakarma is the mind, desire and action. The offspring of mind is summer. Trishtup meter is the expression of summer. From trishtup is born swara-sama of heat and lustre as the mid-day. From swara comes the antaryama, the silent libation of soma with self- control. From antaryama comes/is born the fifteen-phase stoma (pancha-dasha-stoma), expression of joy and hilarity. From pancha-dasha stoma comes Brihat-saman, the great saman song of jubilation and celebration. The seer expert of Brihat-saman is Bharadwaja, man of full knowledge and prosperity. Woman of knowledge, virtue and love, blest by Prajapati, alongwith you I receive mana, mind, that is, love and desire for the sake of family and community.

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    Translation

    This on the right is the Visvakarman (the omnific wind). (1) The offspring of that Visvakarman is the Manas (the mind). (2) The offspring of the Manas is Grisma (the summer season). (3) The daughter of Grisma is the Tristup metre. (4) From the Tristup, the Svara Suman. (5) From the Svara the Antaryama. (6) From the Antaryama, the Pancadasa hymn (of 15 verses). (7) From the Pancadasa hymn, the Brhad (Saman). (8) Bharadvaja is the seer. (9) With you taken from the Creator Lord, I secure Manas (the mind) for our progeny. (10)

    Notes

    Vi$vakarma, विश्वं करोति सर्वं सृजति इति विश्वकर्मा वायु:, one that creates all; the omnific wind. Bharadvajah, बिभर्ति वाजोऽन्नं विज्ञानं बलं वा य: स भरद्वाज: Satnhitā one that has got food-grains, knowledge, or vigour. Antaryamah, name of a graha, i. e. a measure of Soma juice. Manah, mind.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ মনুষ্যৈর্গ্রীষ্ম ঋতৌ কথং বর্ত্তিতব্যমিত্যাহ ॥
    এখন মনুষ্যদিগকে গ্রীষ্ম ঋতুতে কেমন ব্যবহার করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! যেমন (দক্ষিণা) দক্ষিণ দিশা হইতে (অয়ম্) এই (বিশ্বকর্মা) সকল কর্ম্মের নিমিত্ত বায়ুর সমান বিদ্বান্ গমন করেন (তস্য) সেই বায়ুর যোগ হইতে (বৈশ্বকর্মণম্) যদ্দ্বারা সকল কর্ম্ম সিদ্ধ হয় সেই (মনঃ) বিচার স্বরূপ প্রেরক মন (মানসঃ) মনের উষ্ণতা হইতে উৎপন্নের তুল্য (গ্রীষ্মঃ) রস নাশক গ্রীষ্ম ঋতু (গ্রৈষ্মী) গ্রীষ্ম ঋতুর ব্যাখ্যাতা (ত্রিষ্টুপ্) ত্রিষ্টুপ্ ছন্দ (ত্রিষ্টুভঃ) ত্রিষ্টুপ্ ছন্দের (স্বারম্) তাপ হইতে উৎপন্ন তেজ (স্বারাৎ) এবং তেজ হইতে (অন্তর্য়ামঃ) মধ্যাহ্নের প্রহরে বিশেষ দিন এবং (অন্তর্য়ামাৎ) মধ্যাহ্নের বিশেষ দিন হইতে (পঞ্চদশঃ) পনের তিথির পূরক স্তুতি যোগ্য পূর্ণিমা (পঞ্চদশাৎ) সেই পূর্ণিমা হইতে (বৃহৎ) বৃহৎ (ভরদ্বাজঃ) অন্ন বা বিজ্ঞানকে পুষ্টি এবং ধারণের নিমিত্ত (ঋষিঃ) শব্দজ্ঞান প্রাপ্ত করাইবার কর্ণ (প্রজাপতি গৃহীতয়া) প্রজাপালক পতি রাজা গ্রহণের বিদ্যা হইতে ন্যায়ের গ্রহণ করেন সেইরূপ আমি (ত্বয়া) তোমার সঙ্গে (প্রজাভ্যঃ) প্রজাদিগের জন্য (মনঃ) বিচারস্বরূপ বিজ্ঞানযুক্ত চিত্তের গ্রহণ বিজ্ঞানকে (গৃহ্নামি) গ্রহণ করি ॥ ৫৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- স্ত্রী পুরুষদিগের উচিত যে, প্রাণের মন এবং মনের প্রাণ নিয়ামক, এইরূপ জানিয়া প্রাণায়াম দ্বারা আত্মাকে শুদ্ধ করিয়া পুরুষদের হইতে সম্পূর্ণ সৃষ্টির পদার্থের বিজ্ঞান স্বীকার করিবে ॥ ৫৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ং দ॑ক্ষি॒ণা বি॒শ্বক॑র্মা॒ তস্য॒ মনো॑ বৈশ্বকর্ম॒ণং গ্রী॒ষ্মো মা॑ন॒সস্ত্রি॒ষ্টুব্ গ্রৈষ্মী॑ ত্রি॒ষ্টুভঃ॑ স্বা॒রম্ । স্বা॒রাদ॑ন্তর্য়্যা॒মো᳖ऽন্তর্য়া॒মাৎ প॑ঞ্চদ॒শঃ প॑ঞ্চদ॒শাদ্ বৃ॒হদ্ ভ॒রদ্বা॑জ॒ऽ ঋষিঃ॑ প্র॒জাপ॑তিগৃহীতয়া॒ ত্বয়া॒ মনো॑ গৃহ্ণামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং দক্ষিণেত্যস্যোশনা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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