यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - मरुतो देवताः
छन्दः - भुरिगतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
178
अश्म॒न्नूर्जं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णाम॒द्भ्यऽओष॑धीभ्यो॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽअधि॒ सम्भृ॑तं॒ पयः॑। तां न॒ऽइष॒मूर्जं॑ धत्त मरुतः सꣳररा॒णाऽअश्म॑ꣳस्ते॒ क्षुन् मयि॑ त॒ऽऊर्ग्यं॑ द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥१॥
स्वर सहित पद पाठअश्म॑न्। ऊर्ज॑म्। पर्व॑ते। शि॒श्रि॒या॒णाम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। वन॒स्पति॑भ्य इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः अधि॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पयः॑। ताम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। ध॒त्त॒। म॒रु॒तः॒। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽरराणाः। अश्म॑न्। ते॒। क्षुत्। मयि॑। ते॒। ऊर्क्। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्मन्नूर्जम्पर्वते शिश्रियाणामद्भ्यऽओषधीभ्यो वनस्पतिभ्योऽअधि सम्भृतम्पयः । तान्नऽइषमूर्जन्धत्त मरुतः सँरराणाः अश्मँस्ते क्षुन्मयि तऽऊर्ग्ययन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्मन्। ऊर्जम्। पर्वते। शिश्रियाणाम्। अद्भय इत्यत्ऽभ्यः। ओषधीभ्यः। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः अधि। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। पयः। ताम्। नः। इषम्। ऊर्जम्। धत्त। मरुतः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। अश्मन्। ते। क्षुत्। मयि। ते। ऊर्क्। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वृष्टिविद्योपदिश्यते
अन्वयः
हे संरराणा मरुतः! यूयं पर्वतेऽश्मन् शिश्रियाणामूर्जं नोऽधिधत्त, अद्भ्य ओषधीभ्यो वनस्पतिभ्यः सम्भृतं पय इषमूर्जं च ताश्च धत्त। हे मनुष्य! तेऽश्मन्नूर्ग् वर्त्तते, सा मय्यस्तु, या ते क्षुत् सा मयि भवतु, यं वयं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु॥१॥
पदार्थः
(अश्मन्) अश्मनि मेघे। अश्मेति मेघनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१०) (ऊर्जम्) पराक्रमम् (पर्वते) पर्वताकारे (शिश्रियाणाम्) मेघावयवानां मध्ये स्थितां विद्युतम् (अद्भ्यः) जलाशयेभ्यः (ओषधीभ्यः) यवादिभ्यः (वनस्पतिभ्यः) अश्वत्थादिभ्यः (अधि) (सम्भृतम्) सम्यग् धृतं (पयः) रसयुक्तं जलम् (ताम्) (नः) अस्मभ्यम् (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (धत्त) धरत (मरुतः) वायव इव क्रियाकुशला मनुष्याः (संरराणाः) सम्यग् रान्ति ददति ते (अश्मन्) अश्मनि (ते) तव (क्षुत्) बुभुक्षा (मयि) (ते) तव (ऊर्क्) पराक्रमोऽन्नं वा (यम्) दुष्टम् (द्विष्मः) न प्रसादयेम (तम्) (ते) तव (शुक्) शोकः (ऋच्छतु) प्राप्नोतु॥१॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यथा सूर्यो जलाशयौषध्यादिभ्यो रसं हृत्वा मेघमण्डले संस्थाप्य पुनर्वर्षयति, ततोऽन्नादिकं जायते, तदशनेन क्षुन्निवृत्त्या बलोन्नतिस्तया दुष्टानां निवृत्तिरेतया सज्जनानां शोकनाशो भवति, तथा समानसुखदुःखसेवनाः सुहृदो भूत्वा परस्परेषां दुःखं विनाश्य सुखं सततमुन्नेयम्॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब सत्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है॥ इसके पहिले मन्त्र में वर्षा की विद्या का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे (संरराणाः) सम्यक् दानशील (मरुतः) वायुओं के तुल्य क्रिया करने में कुशल मनुष्यो! तुम लोग (पर्वते) पहाड़ के समान आकार वाले (अश्मन्) मेघ के (शिश्रियाणाम्) अवयवों में स्थिर बिजुली तथा (ऊर्जम्) पराक्रम और अन्न को (नः) हमारे लिये (अधि, धत्त) अधिकता से धारण करो और (अद्भ्यः) जलाशयों (ओषधिभ्यः) जौ आदि ओषधियों और (वनस्पतिभ्यः) पीपल आदि वनस्पतियों से (सम्भृतम्) सम्यक् धारण किये (पयः) रसयुक्त जल (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम और (ताम्) उस पूर्वोक्त विद्युत् को धारण करो। हे मनुष्य! जो (ते) तेरा (अश्मन्) मेघविषय में (ऊर्क्) रस वा पराक्रम है, सो (मयि) मुझ में तथा जो (ते) तेरी (क्षुत्) भूख है, वह मुझ में भी हो अर्थात् समान सुख-दुःख मान के हम लोग एक दूसरे के सहायक हों और (यम्) जिस दुष्ट को हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त हो॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य जलाशय और ओषध्यादि से रस का हरण कर मेघमण्डल में स्थापित करके पुनः वर्षाता है, उससे अन्नादि पदार्थ होते हैं, उसके भोजन से क्षुधा की निवृत्ति, क्षुधा की निवृत्ति से बल की बढ़ती, उससे दुष्टों की निवृत्ति और दुष्टों की निवृत्ति से सज्जनों के शोक का नाश होता है, वैसे अपने समान दूसरों का सुख-दुःख मान, सब के मित्र होके, एक-दूसरे के दुःख का विनाश करके, सुख की निरन्तर उन्नति करें॥१॥
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य जसा जलाशय वृक्ष यांचा रस शोषून त्यापासून मेघांची निर्मिती करतो व पुन्हा पर्जन्यरूपाने बरसतो. त्यामुळे अन्न इत्यादी पदार्थ उत्पन्न होतात. त्या अन्नाने क्षुधानिवृत्ती होते. क्षुधानिवृत्ती झाल्यामुळे बल वाढते व बलामुळे दुष्टांचा नाश होतो, त्यामुळे सज्जनांचे दुःख नाहीसे होते. त्यामुळे आपल्यासारखेच दुसऱ्यांचेही सुख-दुःख असते हे मानले पाहिजे. सर्वांनी एकमेकांचे मित्र बनून परस्परांच्या दुःखाचा नाश केला पाहिजे व सतत सुख वाढवीत राहिले पाहिजे.
इंग्लिश (2)
Meaning
O fully charitably disposed persons, ever active like the wind, grant us food and strength contained in lightning and clouds, formidable in appearance mountain-like. Grant us food, strength and juice gathered from the plants, trees and waters. O man may I possess thy cloud wise strength and thy appetite. Let thy pain reach the man we dislike.
Meaning
O Maruts (men and women), kind and generous powers, hold for us the energy and power contained in the mountain ranges of the clouds and the sky, and hold for us that energy and juices distilled from waters, herbs and trees, and bless us with that food and energy. Voracious eater, fire of yajna, may your hunger and energy be in me too, and may your displeasure reach someone we hate (i. e. , none).
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
অথ সপ্তদশোऽধ্যায় আরভ্যতে
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
অথ বৃষ্টিবিদ্যোপদিশ্যতে ॥
এখন সতেরতম অধ্যায়ের আরম্ভ করা হইতেছে । ইহার প্রথম মন্ত্রে বৃষ্টি বিদ্যার উপদেশ করা হইতেছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (সংররাণাঃ) সম্যক্ দানশীল (মরুতঃ) বায়ুসমূহের তুল্য ক্রিয়া করিতে কুশল মনুষ্যগণ! তোমরা (পর্বতে) পর্বত সদৃশ আকার সম্পন্ন (অশ্মন্) মেঘের (শিশ্রিয়ানাম্) অবয়বসকলে স্থির বিদ্যুৎ তথা (ঊর্জম্) পরাক্রম ও অন্নকে (নঃ) আমাদের জন্য (অধি, ধত্ত) আধিক্যপূর্বক ধারণ কর এবং (অদ্ভ্যঃ) জলাশয় (ওষধিভ্যঃ) যবাদি ওষধি এবং (বনস্পতিভ্যঃ) অশ্বত্থাদি বনস্পতি দ্বারা (সম্ভৃতম্) সম্যক্ ধারণ করা (পয়ঃ) রসযুক্ত জল (ইষম্) অন্ন (ঊর্জম্) পরাক্রম এবং (তাম্) সেই পূর্বোক্ত বিদ্যুৎকে ধারণ কর । হে মনুষ্য! (তে) তোমার যে (অশ্মন্) মেঘবিষয়ে (ঊর্ক) রস বা পরাক্রম আছে উহা (ময়ি) আমার মধ্যে তথা যে (তে) তোমার (ক্ষুৎ) ক্ষুধা আছে উহা আমার মধ্যেও হউক অর্থাৎ সমান সুখ-দুঃখ মানিয়া আমরা একে অন্যের সহায়ক হই এবং (য়ম্) যে দুষ্টকে আমরা (দ্বিষ্মঃ) দ্বেষ করি (তম্) তাহাকে (তে) তোমার (শুক্) শোক (ঋষতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন সূর্য্য জলাশয় এবং ওষধ্যাদি দ্বারা রসের হরণ করিয়া মেঘমণ্ডল স্থাপিত করিয়া পুনঃ বর্ষণ করে, তাহা হইতে অন্নাদি পদার্থ হয়, তাহার আহার দ্বারা ক্ষুধার নিবৃত্তি, ক্ষুধার নিবৃত্তি দ্বারা বল বৃদ্ধি, তাহা দ্বারা দুষ্ট সকলের নিবৃত্তি এবং দুষ্ট সকলের নিবৃত্তি দ্বারা সজ্জনদিগের শোকনাশ হয় সেইরূপ স্বীয় সমান অন্যের সুখ-দুঃখ মানিয়া সকলের মিত্র হইয়া একে অপরের দুঃখের বিনাশ করিয়া সুখের নিরন্তর উন্নতি করিবে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অশ্ম॒ন্নূর্জং॒ পর্ব॑তে শিশ্রিয়া॒ণাম॒দ্ভ্যऽওষ॑ধীভ্যো॒ বন॒স্পতি॑ভ্যো॒ऽঅধি॒ সংভৃ॑তং॒ পয়ঃ॑ । তাং ন॒ऽইষ॒মূর্জং॑ ধত্ত মরুতঃ সꣳররা॒ণাऽঅশ্ম॑ꣳস্তে॒ ক্ষুন্ ময়ি॑ ত॒ऽঊর্গ্যং॑ দ্বি॒ষ্মস্তং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অশ্মন্নূর্জমিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । মরুতো দেবতাঃ । ভুরিগতিশক্বরী ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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