यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 37
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
135
ब॒ल॒वि॒ज्ञा॒यः स्थवि॑रः॒ प्रवी॑रः॒ सह॑स्वान् वा॒जी सह॑मानऽउ॒ग्रः। अ॒भिवी॑रोऽअ॒भिस॑त्वा सहो॒जा जैत्र॑मिन्द्र॒ रथ॒माति॑ष्ठ गो॒वित्॥३७॥
स्वर सहित पद पाठब॒ल॒वि॒ज्ञा॒य इति॑ बलऽविज्ञा॒यः। स्थवि॑रः। प्रवी॑र॒ इति॒ प्रऽवी॑रः। सह॑स्वान्। वा॒जी। सह॑मानः। उ॒ग्रः। अ॒भिवी॑र॒ इत्य॒भिऽवी॑रः। अ॒भिस॒त्वेत्य॒भिऽस॑त्वा। स॒हो॒जा इति॑ सहः॒ऽजाः। जैत्र॑म्। इ॒न्द्र॒। रथ॑म्। आ। ति॒ष्ठ॒। गो॒विदिति॑ गो॒ऽवित् ॥३७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बलविज्ञाय स्थविरः प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमानऽउग्रः । अभिवीरोऽअभिसत्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित् ॥
स्वर रहित पद पाठ
बलविज्ञाय इति बलऽविज्ञायः। स्थविरः। प्रवीर इति प्रऽवीरः। सहस्वान्। वाजी। सहमानः। उग्रः। अभिवीर इत्यभिऽवीरः। अभिसत्वेत्यभिऽसत्वा। सहोजा इति सहःऽजाः। जैत्रम्। इन्द्र। रथम्। आ। तिष्ठ। गोविदिति गोऽवित्॥३७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे इन्द्र सेनापते! बलविज्ञायः स्थविरः प्रवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रोऽभिवीरोऽभिसत्वा सहोजा गोवित् संस्त्वं युद्धाय जैत्रं रथमातिष्ठ॥३७॥
पदार्थः
(बलविज्ञायः) यो बलं बलयुक्तं सैन्यं कर्तुं जानाति सः (स्थविरः) वृद्धो विज्ञातराजधर्मव्यवहारः (प्रवीरः) प्रकृष्टश्चासौ वीरश्च (सहस्वान्) सहो बहुबलं विद्यते यस्य सः (वाजी) प्रशस्तो वाजः शास्त्रबोधो विद्यते यस्य सः (सहमानः) यः सुखदुःखादिकं सहते (उग्रः) दुष्टानां वधे तीव्रतेजाः (अभिवीरः) अभीष्टा वीरा यस्य सः (अभिसत्वा) अभितः सर्वतः सत्वानो युद्धविद्वांसो रक्षका भृत्या वा यस्य सः (सहोजाः) सहसा बलेन जातः प्रसिद्धः (जैत्रम्) जेतृभिः परिवृतं रथम् (इन्द्र) युद्धस्य परमसामग्रीसहित (रथम्) रमणीयं भूसमुद्राकाशयानम् (आ) (तिष्ठ) (गोवित्) यो गा वाचो धेनुः पृथिवीं वा विन्दति सः॥३७॥
भावार्थः
सेनापतिः सेनावीरा वा यदा शत्रुभिः योद्धुमिच्छेयुस्तदा परस्परं सर्वतो रक्षां रक्षासाधनानि वा संगृह्य बुद्ध्युत्साहेन सह वर्त्तमाना अनलसाः सन्तः शत्रुविजयतत्परा भवेयुः॥३७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) युद्ध की उत्तम सामग्री युक्त सेनापति! (बलविज्ञायः) जो अपनी सेना को बली करना जानता (स्थविरः) वृद्ध (प्रवीरः) उत्तम वीर (सहस्वान्) अत्यन्त बलवान् (वाजी) जिसको प्रशंसित शास्त्रबोध है, (सहमानः) जो सुख और दुःख को सहने तथा (उग्रः) दुष्टों के मारने में तीव्र तेज वाला (अभिवीरः) जिस के अभीष्ट अर्थात् तत्काल चाहे हुए काम के करने वाले वा (अभिसत्वा) सब ओर से युद्धविद्या में कुशल रक्षा करनेहारे वीर हैं, (सहोजाः) बल से प्रसिद्ध (गोवित्) वाणी, गौओं वा पृथिवी को प्राप्त होता हुआ, ऐसा तू युद्ध के लिये (जैत्रम्) जीतने वाले वीरों से घेरे हुए (रथम्) पृथिवी, समुद्र और आकाश में चलने वाले रथ को (आ, तिष्ठ) आकर स्थित हो अर्थात् उसमें बैठ॥३७॥
भावार्थ
सेनापति वा सेना के वीर जब शत्रुओं से युद्ध की इच्छा करें, तब परस्परर सब ओर से रक्षा और रक्षा के साधनों को संग्रह कर विचार और उत्साह के साथ वर्त्तमान आलस्य रहित होते हुए शत्रुओं को जीतने में तत्पर हों॥३७॥
विषय
दूसरों के बल का ज्ञान करके शत्रु पर आक्रमण का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) शत्रुओं का घात करने और उनके गढ़ों और व्यूहों को तोड़न फोड़ने में समर्थ इन्द्र ! तू ( बल-विज्ञाय ) सेना विज्ञान में चतुर अर्थात् सेनाओं के व्यूह बनाने और उनके प्रयोग और संचालन में कुशल एवं शत्रु के बलों को भी जानने वाला और सेना के द्वारा ही उत्तम नायक रूप से जाना गया ( स्थविर: ) स्वयं ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध या युद्ध में स्थिर, ( प्रवीर : ) स्वयं उत्तम शूरवीर और उत्तम वीर्यवान् पुरुषों से सम्पन्न, ( सहस्वान् ) शत्रु विजयी बल से युक्त, ( वाजी ) वेगवान्, ( उग्रः ) भयानक ( अभिवीरः ) प्रिय, वीरों से घिरा हुआ या वीरों को पराजय करने वाला, ( अभिसत्वा ) बलवान् पुरुषों से सम्पन्न, ( सहोजाः ) बल के कारण ही विख्यात और ( गोवित् ) पृथिवी को विजय से प्राप्त करने वाला अथवा आज्ञा, वाणी का स्वामी होकर ( जैत्रम् ) विजयशील योधाओं से युक्त ( रथम् ) रथ पर ( आतिष्ठ ) सवार हो और विजय को निकल
विषय
जैत्र रथाधिष्ठान - रथारोहण
पदार्थ
१. अप्रतिरथ वह है जो (बलविज्ञायः) = अपने बल के कारण प्रसिद्ध है। २. (स्थविर:) = स्थिरमति=स्थितप्रज्ञ है, विषयों से डाँवाँडोल होनेवाला नहीं है। ३. (प्रवीरः) = प्रकृष्ट वीर है, यह वैषयिक वृत्तियों को विशेषरूपेण कम्पित करनेवाला है [विशेषेण ईरयति] ४. (सहस्वान्) = सहन-शक्तिवाला है। लोगों की अभिशस्तियों [गालियों] से तैश में आजानेवाला नहीं । ५. (वाजी) = बलवाला है अथवा त्याग वृत्तिवाला है [वाज - Sacrifice] ६. (सहमान:) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला है अथवा सर्दी-गर्मी आदि को सहने की शक्तिवाला है। ७. (उग्रः) = तेजस्वी है ८. (अभिवीरः) = वीरता की ओर चलनेवाला है और अभिसत्वा-सत्त्वगुण की ओर चलनेवाला है। यह वीरता व ज्ञान [सत्त्वस्य लक्षणं ज्ञानम्] का समन्वय करता है । ९. (सहोजाः) = यह प्रभु के साथ सम्पर्क के कारण ओजस्वी होता है। १०. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू ऐसा बनकर जैत्रं रथम् (आतिष्ठ) = विजयशील रथ पर आरोहण कर, अर्थात् तू कभी वासनाओं से पराजित न हो। इसी अपराजय के लिए तू ११. (गोवित्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करनेवाला बन। जब तुझमें वीरता व ज्ञान का समन्वय होगा तभी तेरी निश्चित विजय होगी। १२. यहाँ मन्त्र का प्रारम्भ 'बलविज्ञाय:' से है और समाप्ति 'गोवित्' पर है। वस्तुतः हमें 'बल व ज्ञान' दोनों का ही सम्पादन करना है। यही भावना 'अभिवीर: व अभिसत्वा' शब्द भी दे रहे हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने जीवन में बल और ज्ञान का समन्वय करके विजयी बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
सेनापती किंवा सेनेचे वीर यांना जेव्हा शत्रूंबरोबर युद्ध करावयाचे असेल तेव्हा त्यांनी सर्व बाजूंनी संरक्षणाची व्यवस्था करावी, तसेच रक्षण करणाऱ्या साधनांचा संग्रह करावा. आळस सोडून द्यावा व विचारपूर्वक उत्साहाने शत्रूंना जिंकण्यासाठी आणि विजय प्राप्त करण्यासाठी तत्पर असावे.
विषय
पुनश्च, पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे –
शब्दार्थ
शब्दार्थ -(इन्द्र) युद्धाकरिता आवश्यक अशा सर्व राहिल्याने सुसज्ज असलेल्या हे सेनापती, (बलविज्ञाय:) आपण स्वसैन्याला शक्तिसंपन्न करण्याचे तंत्र जाणणारे आणि (स्थविर:) (राजधर्म व राज्यव्यवहाराचे) ज्ञाता आहात. आपण (प्रवीर:) उत्कृष्ट वीर आणि (सहस्वान्) अत्यंत बली आहात. (वाजी) शास्त्रादींचे श्रेष्ठ ज्ञाता आहात (सहमान:) सुख आणि दु:ख यांना (समानपणे) सहन करणारे तसेच (उग्न:) दुष्टांचा वध करण्यात निपुण आहात. (अभिवीर:) आपले सैनिक तत्काळ आपल्या त्यादेशाचे पालन करणारे असून (अभिसत्वा) युद्धकलेत सर्वदृष्ट्या कुशल आहेत (सहोजा:) शक्तिबद्दल आपली सर्वत्र कीर्ती आहे (गोवित्) वाणी, गौ, आणि पृथ्वी यांना प्राप्त करीत (वाणीवर नियंत्रण, गायीचे रक्षण आणि राष्ट्राच्या सर्व भूमीची माहिती घेत) तुम्ही (जैत्रम्) तुमच्या विजयी वीरांनी जिंकून वा घेरून आणलेल्या शत्रूच्या (रथम्) रथावर आरुढ होऊन अथवा पृथ्वी, समुद्र आणि आकाशामधे सर्वत्र संचार करणाऱ्या अद्भुत वाहनावर (आ तिष्ठ) आरुढ होऊन इकडे या अथवा त्या वाहनात वसा, (म्हणजे आम्ही प्रजाजन आपला सत्कार करू ) ॥37॥
भावार्थ
भावार्थ - सेनापती आणि सैन्याचे सैनिक जेव्हा शत्रूशी युद्ध करण्यासाठी प्रमाण करतील, तेव्हां त्यानी आधी सर्वप्रकारे आपल्या रक्षणाची तयारी करावी. रक्षेच्या सर्व साधनांचा संग्रह करावा. तसेच आक्रमणाच्या सर्व योजनांचा आधीच नीट विचार करून ठेवावा. नंतर आळसाचा त्याग करून (विलंबन करता) पूर्ण उत्साहाने शत्रूचा पराजयाकरिता सिद्ध व्हावे. ॥37॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Commander of the army, well-equipped with military warfare, thou knowest how to strengthen thy army, art an experienced statesmen, a foremost fighter, mighty, the master of the science of war, the endurer of pleasure and pain, the fierce slayer of the wicked, the possessor of nice warriors, and martial intelligent employees, famous for strength, conquering land, surrounded by victorious heroes, mount thy conquering conveyance.
Meaning
Indra, expert of army management, veteran tactician, admirable soldier, steadfast and resolute fighter, man of patience and endurance, mighty and victorious, fast and terrible, hero of heroes, admiration of the great and intelligent, lustrous and powerful, honoured by the victorious, master of effective communication and reconnaissance of territory, take to your chariot and ride across the earth, over the seas and into the skies.
Translation
O resplendent one (army-chief), having full information of the opposing army, senior-most, valiant, full of strength, agile, overwhelming the foes, formidable, ready to engage every warrior, surrounded by servants, born out of strength as if, appreciator of praises, may you mount your conquering chariot now. (1)
Notes
Balavijāāyaḥ, बलं परकीयं विशिषेण जानाति य: स:,one who knows accurately the strength of the enemy. Sthaviraḥ,सर्वानुशासक:, strict disciplinarian; or seniormost. Abhivīraḥ, surrounded by warriors. Abhisattvā, sur rounded by attendants. Sahojāh, सह: बलं तस्मात् जातः, bom of strength; child of strength. Govit, गाः वाचः धेनून् पृथिवीं वा विन्दति यः सः, one who wins words of praise, or kine, or lands.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (ইন্দ্র) যুদ্ধের উত্তম সামগ্রী যুক্ত সেনাপতি! (বলবিজ্ঞায়ঃ) যে নিজ সেনাকে বলী করা জানে (স্থবিরঃ) বৃদ্ধ (প্রবীরঃ) উত্তম বীর (সহস্বান্) অত্যন্ত বলবান্ (বাজী) যাহার প্রশংসিত শাস্ত্রবোধ আছে (সহমানঃ) যে সুখ ও দুঃখকে সহ্য করিবার তথা (উগ্রঃ) দুষ্টদিগকে মারিবার জন্য তীব্র তেজ যুক্ত (অভিবীরঃ) যাহার অভীষ্ট অর্থাৎ তৎকাল আকাঙ্ক্ষিত কর্ম করিবার লোকেরা বা (অভিসত্বা) সব দিক্ দিয়া যুদ্ধ বিদ্যায় কুশল রক্ষাকারী বীর আছে (সহোজাঃ) বল দ্বারা প্রসিদ্ধ (গোবিৎ) বাণী, গাভিসকল বা পৃথিবীকে প্রাপ্ত হইয়া এইরকম তুমি যুদ্ধ হেতু (জৈত্রম্) জয়ী বীরদের দ্বারা পরিবৃত (রথম্) পৃথিবী, সমুদ্র এবং আকাশে গমনশীল রথে (আ, তিষ্ঠ) আসিয়া স্থিত হও, তাহাতে আসীন হও ॥ ৩৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–সেনাপতি বা সেনার বীর যখন শত্রুদিগের সহিত যুদ্ধের ইচ্ছা করিবে তখন পরস্পর সব দিক দিয়া রক্ষা এবং রক্ষার সাধনগুলি সংগ্রহ করিয়া বিচার ও উৎসাহের সঙ্গে বর্ত্তমান আলস্য রহিত হইয়া শত্রুদিগকে জিতিতে তৎপর হও ॥ ৩৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ব॒ল॒বি॒জ্ঞা॒য়ঃ স্থবি॑রঃ॒ প্রবী॑রঃ॒ সহ॑স্বান্ বা॒জী সহ॑মানऽউ॒গ্রঃ ।
অ॒ভিবী॑রোऽঅ॒ভিস॑ত্বা সহো॒জা জৈত্র॑মিন্দ্র॒ রথ॒মা তি॑ষ্ঠ গো॒বিৎ ॥ ৩৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বলবিজ্ঞায় ইত্যস্যাপ্রতিরথ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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