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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 59
    ऋषिः - विश्वावसुर्ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    73

    वि॒मान॑ऽए॒ष दि॒वो मध्य॑ऽआस्तऽआपप्रि॒वान् रोद॑सीऽअ॒न्तरि॑क्षम्। स वि॒श्वाची॑र॒भिच॑ष्टे घृ॒तीची॑रन्त॒रा पूर्व॒मप॑रं च के॒तुम्॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमानः॑। ए॒षः। दि॒वः। मध्ये॑। आ॒स्ते॒। आ॒प॒प्रि॒वानित्या॑ऽपप्रि॒वान्। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सः। वि॒श्वाचीः॑। अ॒भि। च॒ष्टे॒। घृ॒ताचीः॑। अ॒न्त॒रा। पूर्व॑म्। अप॑रम्। च॒। के॒तुम् ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विमानऽएष दिवो मध्यऽआस्तऽआपप्रिवान्रोदसीऽअन्तरिक्षम् । स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विमान इति विऽमानः। एषः। दिवः। मध्ये। आस्ते। आपप्रिवानित्याऽपप्रिवान्। रोदसी इति रोदसी। अन्तरिक्षम्। सः। विश्वाचीः। अभि। चष्टे। घृताचीः। अन्तरा। पूर्वम्। अपरम्। च। केतुम्॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 59
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरेण किमर्थः सूर्यो निर्मित इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    विद्वान् य एष दिवो मध्ये विमानो रोदसी अन्तरिक्षमापप्रिवान् सन्नास्ते, स विश्वाचीर्घृताचीर्द्युती- र्विस्तारयति, पूर्वमपरमन्तरा च केतुमभिचष्टे, तं विजानीयात्॥५९॥

    पदार्थः

    (विमानः) विमानमिव स्थितः (एषः) सूर्यः (दिवः) प्रकाशस्य (मध्ये) (आस्ते) तिष्ठति (आपप्रिवान्) स्वतेजसा व्याप्तवान् (रोदसी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (सः) (विश्वाचीः) या विश्वमञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति ता द्युतीः (अभि) (चष्टे) पश्यति। चष्ट इति पश्यतिकर्मा॥ (निघं॰३.११) (घृताचीः) या घृतमुदकमञ्चन्तिः ताः (अन्तरा) द्वयोर्मध्ये (पूर्वम्) (अपरम्) (च) (केतुम्) प्रज्ञापकं तेजः॥५९॥

    भावार्थः

    यः सूर्यलोको ब्रह्माण्डमध्ये स्थितः सन् स्वप्रकाशेन सर्वमभिव्याप्नोति, स सर्वाभिकर्षको वर्त्तत इति मनुष्यैर्वेद्यम्॥५९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर ने किसलिये सूर्य का निर्माण किया है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    विद्यावान् पुरुष जो (एषः) यह सूर्य्यमण्डल (दिवः) प्रकाश के (मध्ये) बीच में (विमानः) विमान अर्थात् जो आकाशादि मार्गों में आश्चर्य्यरूप से चलनेहारा है, उसके समान और (रोदसी) प्रकाश-भूमि और (अन्तरिक्षम्) अवकाश को (आपप्रिवान्) अपने तेज से व्याप्त हुआ (आस्ते) स्थिर हो रहा है, (सः) वह (विश्वाचीः) जो संसार को प्राप्त होती अर्थात् अपने उदय से प्रकाशित करतीं वा (घृताचीः) जल को प्राप्त कराती हैं, उन अपनी द्युतियों अर्थात् प्रकाशों को विस्तृत करता है, (पूर्वम्) आगे दिन (अपरम्) पीछे रात्रि (च) और (अन्तरा) दोनों के बीच में (केतुम्) सब लोकों के प्रकाशक तेज को (अभिचष्टे) देखता है, उसे जाने॥५९॥

    भावार्थ

    जो सूर्य्यलोक ब्रह्माण्ड के बीच स्थित हुआ अपने प्रकाश से सब को व्याप्त हो रहा है, वह सब का अच्छा आकर्षण करने वाला है, ऐसा मनुष्यों को जानना चाहिये॥५९॥

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    विषय

    सूर्य और पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    सूर्य के पक्ष में- ( एष ) यह सूर्य ( विमानः पक्षी के समान या विमान, व्योमयान के समान (दिवः मध्ये ) आकाश के बीच ( आस्ते ) स्थित है। वह ( रोदसी अन्तरिक्षम् ) द्यौ और पृथिवी और अन्तरिक्ष तीनों को ( आ पप्रिवान् ) अपने तेज से पूर्ण करता है । ( सः ) वह ( विश्वाची:) समस्त विश्व को अपने में रखने वाला और ( घृताची: ) जल को धारण करने वाला, भूमियों को, प्रजाओं को और दिशाओं को ( अभिचष्टे देखता है और (पूर्वम् अपरं च केतुम् अन्तरा) पूर्व के और पश्चिम के ज्ञापक लिंग को भी देखता है। ऋ०१०।१३९ । २ ।। शत०९।२।३।१७॥ अथवा (सः) वह ( विश्वाची घृताचीः ) सर्वत्र फैलने वाली, जलाहरण करने वाली कान्तियों को और ( पूर्वम् अपरं च ) पूर्व दिन और अपर रात्रि दोनों के बीच के काल को भी ( अभिष्ट ) प्रकाशित करता है । राजा के पक्ष में - ( एष: ) महाराजा ( दिवः मध्ये ) तेज और प्रकाश के बीच या ज्ञानी पुरुषों के बीच में (विमानः ) विशेष मान, आदरवान् होकर ( अस्ते ) विराजता है वह ( रोदसी ) शासक और प्रजा दोनों को और ( अन्तरिक्ष | सबके रक्षक सर्व पूज्य अन्तरिक्ष पद को भी पूर्ण करता है यह विश्व को धारण करने वाली ( घृताची ) अन्न जल की धारक भूमियों और प्रजाओं को ( पूर्वम् अपरं च केतुम् ) पूर्व के और पश्चिम के ज्ञापक ध्वजादि को भी ( अभिचष्टे ) सूर्य के समान देखता है । इसी प्रकार आदित्य योगी विशेष ज्ञानवान होने से 'विमान' है । वह प्रकाश स्वरूप परमेश्वर के बीच ब्रह्मस्थ होकर विराजता है । वह प्राण अपान और अन्तरिक्ष, हृदयाकाश सब को पूर्ण करता है । वह देह में व्याप्त और तेजोव्याप्त नाड़ियों को और पूर्व और अपर केतु अर्थात् जीव और ब्रह्म दोनों के ज्ञानमय स्वरूप को साक्षात् करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वावसु ऋषिः । आदित्यो देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    पूर्व व अपर केतु

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार 'अप्रतिरथ' सब वासनाओं को जीतकर 'सब वसुओं को प्राप्त करनेवाला बनता है' और 'विश्वावसु' हो जाता है। यह 'विश्वावसु' (विमानः) = ‘विशेषेण मिमीते' प्रत्येक क्रिया को बड़ा माप-तोल कर करता है। २. (एषः) = यह विश्वावसु (दिवो मध्ये) = ज्ञान के प्रकाश में (आस्ते) = निवास करता है। ३. (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर को तथा (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष- हृदय को (आपप्रिवान्) = [प्रा पूरणे] न्यूनताओं से रहित करके शक्ति सम्पन्न बनाता है। मस्तिष्क को ज्ञान से, शरीर को शक्ति से तथा हृदयान्तरिक्ष को 'नैर्मल्य' व सत् [सत्य] से पूरण करता है। इसके मस्तिष्क में ज्योति है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' इसके शरीर में नीरोगता उभरती है 'मृत्योर्मा अमृतं गमय'। इसके हृदय में सत्य है 'असतो मा सद्गमय'। ४. (सः) = वह विश्वावसु (विश्वाची:) = [विश्वं अञ्चन्ति ] सर्वव्यापक प्रभु की ओर ले जानेवाली क्रियाओं को (अभिचष्टे) = देखता है, अर्थात् प्रभु की ओर ले जानेवाली क्रियाओं को ही करता है। (घृताची:) = [घृ क्षरणदीप्तिः] यह उन क्रियाओं को करता है जो उसे शरीर के मल के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति की ओर ले जाती हैं, और इस प्रकार यह ५. (अन्तरा) = अपने हृदयदेश में (पूर्वं केतुम्) = उत्कृष्ट ज्ञान को पराविद्या व ब्रह्मविद्या को (च) = तथा (अपरं केतुम्) = अपराविद्या को प्रकृति- ज्ञान को प्राप्त करता है। इस प्रकार यह अपराविद्या से ऐहलौकिक वसु को प्राप्त करता है तो पराविद्या से 'पारलौकिक वसु' को । इस प्रकार दोनों वसुओं को प्राप्त कर यह सचमुच 'विश्वावसु' बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'विश्वावसु' वह है १. जो सब क्रियाओं को माप-तोलकर करता है। २. सदा ज्ञान में निवास करता है। ३. शरीर-मन व मस्तिष्क का पूरण करता है। ४. उन " क्रियाओं को करता है जो इसे प्रभु व ज्ञान की ओर ले जाएँ। ५. अपने हृदय में 'परा व अपरा' विद्या को ज्ञान-विज्ञान को स्थान देता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सूर्य ब्रह्मांडामध्ये स्थिर असून आपल्या प्रकाशाने सर्वत्र व्याप्त आहे. तो सर्वांचे आकर्षण करतो हे माणसांनी जाणले पाहिजे.

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    विषय

    परमेश्‍वराने सूर्याची निर्मिती का केली, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - विद्यावान माणसाने हे जाणून घ्यावे की (एष:) हा सूर्य (दिव:) प्रकाशा (मध्ये) मध्ये (विमान:) विमान म्हणजे आकाशादी मार्गात चालणारा जे अद्भुत वाहन आहे, त्या विमानाप्रमाणे प्रकाशलोकात करणारा आहे. तोच (रोदवी) आणि (अन्तरिक्षम्‌) अवकाशाला (आपप्रिवान्‌) आपल्या तेजाने व्याप्त करीत (आस्ते) विद्यमान आहे. (स:) तो सूर्य (विश्‍वाची) जगापर्यंत (दूरदूरपर्यंत) जाणाऱ्या म्हणजे आपल्या प्रकाशाने सर्व जगाला उजळून टाकणाऱ्या किरणांद्वारे तसेच (घृणाची:) जलदेणाऱ्या आपल्या किरणांद्वारे सर्वत्र प्रकाश फैलावतो. तो सूर्यच (पूर्वम्‌) आधी दिवस (अपरम्‌) नंतर रात्र अशी रचना करीत (च) आणि (अन्तरा) दोन्हीमध्ये (दिवसारात्री) (केलुम्‌) सर्व लोकांना प्रकाशित करणाऱ्या आपल्या तेजाने (अभिचष्टे) पाहतो. (सूर्य रात्र आणि दिवस असतो. शिवाय आपल्या प्रकाशाने इतर ग्रह-उपग्रहांना प्रकाश देतो.) ॥59॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सूर्य ब्रह्मांडामध्ये स्थित असून आपल्या प्रकाशामुळे सर्वत्र व्याप्त आहे. आणि तोच सर्व ग्रहादींचा आकर्षित करणारा आहे, सर्व मनुष्यांनी हे सत्य जाणून घ्यावे. ॥59॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    This sun, in the midst of heaven, like an aeroplane, sits, filling the earth, sky and airs mid region, with its light. It spreads its beams that illumine the world and give us water. It sheds its lustre on the day, the night and the intervening period.

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    Meaning

    This sun, traversing like a divine car, remains in the midst of the regions of light and illuminates the heaven, the earth and the sky. It is the sustainer of the world, source treasure of waters, and watches and illuminates before, after and in-between (past, present and future).

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    Translation

    There stays in the midst of the sky the moulder of the universe, filling up the heaven and earth and the midspace (with His might). He oversees the rich grounds extending in all the directions between the points of sunrise and sun-set. (1)

    Notes

    Vimanaḥ, विविधं मिमीते, one who moulds or mea sures different things; moulder of the universe. Divo madhye, in the middle of the sky. Rodasi, द्यावापृथिवी, heaven and earth. Viśvāchih, विश्वव्यापिनी: दिश:, extending in every direc tion; the regions. Ghṛtāchiḥ,घृतं अंचंति या: ता:, rich pastures or grounds. Antarā pūrvam aparain ca, between the first and the last. सूर्योदयसूर्यास्तयोर्मध्यवर्तिनं, that which lies between the points of sun-rise and sun-set. Ketum,ज्ञानं , knowledge. The commentators have interpreted this verse as referring to the sacrificial altar and other implements of sacrifice.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথেশ্বরেণ কিমর্থঃ সূর্য়ো নির্মিত ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন ঈশ্বর কীজন্য সূর্য্যের নির্মাণ করিয়াছেন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–বিদ্যাবান পুরুষ যে (এষঃ) এই সূর্য্যমন্ডল (স্থির) প্রকাশের (মধ্যে) মধ্যে (বিমানঃ) বিমান অর্থাৎ যাহা আকাশাদি মার্গে আশ্চর্য্যরূপে গমনশীল তাহার সমান এবং (রোদসী) প্রকাশ, ভূমি এবং (অন্তরিক্ষম্) অবকাশকে (আপপ্রিবান্) স্বীয় তেজে ব্যাপ্ত (আস্তে) স্থির হইতেছে (সঃ) উহা (বিশ্বাচীঃ) যাহা সংসারকে প্রাপ্ত হয় অর্থাৎ স্বীয় উদয় দ্বারা প্রকাশিত করে অথবা (ঘৃতাচীঃ) জলকে প্রাপ্ত করায় সেই নিজের দ্যুতিগুলিকে অর্থাৎ প্রকাশকে বিস্তৃত করায়, (পূর্বম্) সম্মুখে দিন (অপরম্) পশ্চাৎ রাত্রি (চ) এবং (অন্তরা) উভয়ের মধ্যে (কেতুম্) সর্ব লোক সমূহের প্রকাশক তেজকে (অভিচষ্টে) লক্ষ্য করে তাহাকে জান ॥ ৫ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সূর্য্যলোক ব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে স্থিত স্বীয় প্রকাশ দ্বারা সকলকে ব্যাপ্ত হইতেছে সে সকলের আকর্ষণকারী এইরূপ সব মনুষ্যদিগের জানা উচিত ॥ ৫ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি॒মান॑ऽএ॒ষ দি॒বো মধ্য॑ऽআস্তऽআপপ্রি॒বান্ রোদ॑সীऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষম্ ।
    স বি॒শ্বাচী॑র॒ভি চ॑ষ্টে ঘৃ॒তাচী॑রন্ত॒রা পূর্ব॒মপ॑রং চ কে॒তুম্ ॥ ৫ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিমান ইত্যস্য বিশ্বাবসুর্ঋষিঃ । আদিত্যো দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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