Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 17

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 88
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    125

    घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमाव॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम्। मि॒मि॒क्षे॒। घृ॒तम्। अ॒स्य॒। योनिः॑। घृ॒ते। श्रि॒तः। घृ॒तम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्। आ। व॒ह॒। मा॒दय॑स्व॒। स्वाहा॑कृत॒मिति॒ स्वाहा॑ऽकृतम्। वृ॒ष॒भ॒। व॒क्षि॒। ह॒व्यम् ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतम्मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम । अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतँवृषभ वक्षि हव्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम्। मिमिक्षे। घृतम्। अस्य। योनिः। घृते। श्रितः। घृतम्। ऊँऽइत्यूँ। अस्य धाम। अनुष्वधम्। अनुस्वधमित्यनुऽस्वधम्। आ। वह। मादयस्व। स्वाहाकृतमिति स्वाहाऽकृतम्। वृषभ। वक्षि। हव्यम्॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 88
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैरग्निः क्व क्वान्वेषणीय इत्याह॥

    अन्वयः

    हे समुद्रयायिन्! त्वं घृतं मिमिक्षे उ अस्याग्नेर्घृतं योनिरस्ति, यो घृते श्रितो घृतमस्य धाम तमग्निमनुष्वधमावह। हे वृषभ! त्वं यतः स्वाहाकृतं हव्यं वक्षि, तेनास्मान् मादयस्व॥८८॥

    पदार्थः

    (घृतम्) उदकम् (मिमिक्षे) सिञ्चितुमिच्छ (घृतम्) जलम् (अस्य) (योनिः) गृहम् (घृते) (श्रितः) (घृतम्) उदकम् (उ) वितर्के (अस्य) पावकस्य (धाम) अधिकरणम् (अनुष्वधम्) स्वधान्नस्यानुकूलम् (आ) (वह) प्रापय (मादयस्व) हर्षयस्व (स्वाहाकृतम्) वेदवाणीनिष्पादितम् (वृषभ) यो वर्षति तत्सम्बुद्धौ (वक्षि) कामयसे प्राप्नोषि वा (हव्यम्) होतुमादातुमर्हम्॥८८॥

    भावार्थः

    यावानग्निर्जलेऽस्ति तावान् जलाधिकरण उच्यते, यथाज्येन वह्निर्वर्धते तथा जलेन सर्वे पदार्था वर्धन्ते। अन्नमनुकूलमाज्यं चानन्दकारि जायते, तस्मात् सर्वैरेतत्कमनीयम्॥८८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को अग्नि कहां-कहां खोजना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया हैं॥

    पदार्थ

    हे समुद्र में जाने वाले मनुष्य! आप (घृतम्) जल को (मिमिक्षे) सींचना चाहो (उ) वा (अस्य) इस आग का (घृतम्) घी (योनिः) घर है, जो (घृते) घी में (श्रितः) आश्रय को प्राप्त हो रहा है वा (घृतम्) जल (अस्य) इस आग का (धाम) धाम अर्थात् ठहरने का स्थान है, उस अग्नि को तू (अनुष्वधम्) अन्न की अनुकूलता को (आ, वह) पहुँचा। हे (वृषभ) वर्षाने वाले जन! तू जिस कारण (स्वाहाकृतम्) वेदवाणी से सिद्ध किये (हव्यम्) लेने योग्य पदार्थ को (वक्षि) चाहता वा प्राप्त होता है, इसलिये हम लोगों को (मादयस्व) आनन्दित कर॥८८॥

    भावार्थ

    जितना अग्नि जल में है, उतना जलाधिकरण अर्थात् जल में रहने वाला कहाता है, जैसे घी से अग्नि बढ़ता है, वैसे जल से सब पदार्थ बढ़ते हैं और अन्न अनुकूल घी आनन्द कराने वाला होता है, इससे उक्त व्यवहार की चाहना सब लोगों को करनी चाहिये॥८८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    तेजस्वी राजा की मेघ से तुलना ।

    भावार्थ

    पूर्वोक्त 'पर्जन्य' पद की मेघ से और भी तुलना करते हैं । वह उक्त मेघ ( घृतम् मिमिक्षे ) जल का सेचन करता है । और ( अस्य ) उसका ( घृतम् योनिः ) जल ही मूलकारण है । वह ( घृते श्रित: ) उदक में ही आश्रित है । ( अस्य धाम घृतम् उ ) उसका जन्म, वर्षण कर्म और स्वरूप ये तीनों भी जल ही है । और हे पर्जन्य ! रसों को प्रजा पर बरसा देने वाले ! तू ( अनु-स्वधम् ) जल के ही साथ बहुत सी अन्नादि सम्पत्ति को ( आवह ) प्राप्त कराता है और ( मादयस्व ) सबको तृप्त करता है । हे ( वृषभ ) जलों के वर्षण करने हारे! तू ( स्वाहा-कृतम् ) यज्ञाग्नि में आहुति किये या अपने में उत्तम रीति से धारण किये जल से उत्पादित ( हव्यम् ) अन्न को ( वक्षि ) प्रजा को प्रदान करता है । इसी प्रकार हे राजन् ! तू मेघ के समान उच्च पद पर विराजमान होकर ( घृतं मिमिक्षे ) अग्नि के समान तेज और मेघ के समान सुख और स्नेह का वर्षण कर । ( अस्य ) इस अग्नि का जिस प्रकार घृत ही आश्रय है उसी प्रकार तेरा भी आश्रय स्थान 'घृत' तेज ही है | तू ( घृतश्रितः ) अपने तेज में आश्रित होकर रह । ( घृतम् अस्य धाम ) इस राजपद का धाम तेज या धारण सामर्थ्य या स्वरूप भी 'तेज', पराक्रम ही है। ( अनुष्वधम् ) अपनी धारण शक्ति के अनुसार ही इस राष्ट्र के कार्य भार को ( आवह) उठा । ( मादयस्व ) स्वयं समस्त प्रजाओं को तृप्त कर ( स्वाहा कृतम् ) सुखपूर्वक प्रदान किये ( हव्यम् ) कर आदि पदार्थों को हे ( वृषभ ) प्रजा पर सुखों के वर्षक राजन् ! ( वक्षि ) तू स्वयं प्राप्त कर और अपने अधीन भृत्यों को दे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    घृतम्

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में 'प्रभुरूप सदन' में प्रवेश का उल्लेख है। उसी प्रवेश के लिए प्रयत्न करता हुआ 'गृत्समद ऋषि कहता है कि (घृतं मिमिक्षे) = मैं घृत का सेचन करना चाहता हूँ [मेदुमिच्छति, मिह सेचने] । घृत की दो भावनाएँ हैं [क] क्षरण मल को दूर करना। [ख] तथा (दीप्ति) = ज्ञान को दीप्त करना। मैं प्रभु प्राप्ति के लिए शारीरिक मल के क्षरण के द्वारा शरीर के स्वास्थ्य का साधन करता हूँ और अपने मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला बनता हूँ। २. (घृतम् अस्य योनिः) = यह मलक्षरण - जनित स्वास्थ्य तथा ज्ञान की दीप्ति ही इस प्रभु के प्रकाश का उत्पत्ति स्थान है। स्वास्थ्य व ज्ञान ही हममें प्रभु के प्रकाश को प्रकट करते हैं। ३. (घृते श्रितः) = वे प्रभु इस स्वास्थ्य व ज्ञान दीप्ति में ही आश्रित हैं। अथवा स्वास्थ्य व ज्ञानदीप्ति होने पर ही प्रभु सेवित [ श्रि सेवायाम्] होते हैं । ४. (उ) = और (घृतम्) = यह स्वास्थ्य दीप्ति व ज्ञान दीप्ति ही (अस्य) = इस प्रभु का धाम धाम है, निवास है । ५. अतः हे जीव! तू (अनुष्वधम्) = अन्न की अनुकूलता में आवह इस स्वास्थ्य व ज्ञानदीप्ति को धारण कर। 'स्वधा' वह अन्न है, जिसका मूलतत्त्व 'स्व' का धारण है, जिसमें स्वाद आदि को मापक नहीं बनाया गया। उस अन्न का सेवन हमें स्वस्थ भी बनाएगा और ज्ञानदीप्त भी । ६. इस प्रकार यह अन्न हमें प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर ले चलेगा, अतः इस अन्न से स्वास्थ्य व ज्ञान का वहन करके मादयस्व तू आनन्द का अनुभव कर। ७. हे (वृषभ) = अपने अन्दर स्वास्थ्य व ज्ञान का सेचन करनेवाले, अतएव शक्तिशाली जीव ! तू (स्वाहाकृतम्) = स्वाहाकार के द्वारा आहुति दिये गये (हव्यम्) = अदन करने योग्य सात्त्विक पदार्थों को ही (वक्षि) = वहन करता है व चाहता है, अर्थात् तेरा भोजन अत्यन्त सात्त्विक है। इस सात्त्विक भोजन से ही तूने उस स्वास्थ व ज्ञान को सिद्ध किया है जो 'घृत' कहलाता है और प्रभु के प्रकाश का कारण है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों का सेवन करते हुए अपने स्वास्थ्य व ज्ञान को बढ़ाएँ और प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करनेवाले हों। प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करके हम 'गृणाति माद्यति' = स्तुति करें, प्रसन्न हों और इस मन्त्र के ऋषि 'गृत्समद' बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जल हेही अग्नीचे निवासस्थान असते, त्याचे धाम असते. ज्याप्रमाणे तुपाने अग्नी प्रदीप्त होतो तसे जलातही पदार्थांची वाढ होते. तुपामुळे अन्नाची रुची वाढून ती आनंददायक ठरते त्यासाठी वरील गोष्टींची आवड सर्वांमध्ये निर्माण झाली पाहिजे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील मंत्रात, माणसानी अग्नी कुठे कुठे शोधावा, याविषयी कथन केले आहे –

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे समुद्रात प्रवास करणाऱ्या मनुष्या, (वा नाविका) (घृतम्‌..) जलापासून (मिमिक्षे) उपयोग घे (उ) अथवा (अस्य) या अग्नीचे जे (योनि:) घर आहे म्हणजे हे (धृतम्‌) तूप, त्या (धृते) तुपात (श्रित:) अग्नी, स्थित आहे (हे जाणून घे) तसेच (घृतम्‌) पाणी हे (अस्य) या अग्नीचे (धाम) राहण्याचे स्थान आहे (हे जाणून घे) म्हणून तू (अग्नीला) (अनुष्यधम्‌) धान्य व शेती पिकविण्यासाठी (आ, वह) घेऊन जा. हे (वृषभ) जलवर्णन करणाऱ्या माणसा, तू (स्वाहाकृतम्‌) वेदवाणीद्वारे सिद्ध केलेल्या (हव्यम्‌) घेण्यास योग्य अशा हवनीय पदार्थांची (वक्षि) इच्छा करतोयश ते पदार्थ प्राप्त करतोस, त्या कर्माद्वारे आम्हाला (सामान्य जनांनादेखील (मादयस्व) आनंदित कर. ॥88॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जलामधे जो व जेवढा अग्नी असतो, त्यास जलाधिकरण म्हणतात. ज्याप्रमाणे पाण्यामुळे सर्व पदार्थ वाढतात आणि घृतामुळे अन्न आनंददायी होते, तद्वत सर्व लोकांनी आपले व्यवहार जल आणि घृत यांद्वारे पूर्ण करावेत (वा केले पाहिजे) ॥88॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O sailor, wish thou to master water. Ghee is the home of fire. It rests in ghee. Ghee is its proper province. Utilise that fire for producing food-stuffs. O giver of pleasures ; thou receivest the oblation consecrated through vedic incantations, hence gladden us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    I wish to mix and go deep into water/ghee for offering it into the fire. Fire arises from water/ghee, which is its birth-place. It is latent in water/ghee. Water/ ghee is its place of rest. Prepare the materials for the libation and call up Agni. Generous power of rain shower, prepare the materials for the offering and make us all rejoice. (The indication is to prepare the waters and produce fire/energy from this rich source. )

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We pour out our constant love, for it is born of love. It ts lodged in love and verily, love is its source of strength. O mighty Lord, may you convey to Nature’s bounties our offerings, blessed with auspicious word svaha, and fill them with rapture. (1)

    Notes

    Ghrtam, आज्यं, clarified butter; ghee. Also, घृतं इति उदकनाम, water. Yoniḥ, उत्पत्तिस्थानं, source of birth; or habitation; abode. Śritaḥ, अवस्थित:, rests; dwells. Dhāma,स्थानं , place; station. Vṛṣabha, वर्षयिता, showerer of blessings. Vakṣi, वह, carry. Madayasva, rejoice.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈরগ্নিঃ ক্ব ক্বান্বেষণীয় ইত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে অগ্নি কোথায় কোথায় অন্বেষণ করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে সমুদ্রে গমনশীল মনুষ্য! আপনি (ঘৃতম্) জলকে (মিমিক্ষে) সিঞ্চন করিতে চাহেন (উ) বা (অস্য) এই আগুনের (ঘৃতম্) ঘৃত (য়োনিঃ) গৃহ, যে (ঘৃতে) ঘৃতে (শ্রিতঃ) আশ্রয় প্রাপ্ত হইতেছে বা (ঘৃতম্) জল (অস্য) এই অগ্নির (ধাম) ধাম অর্থাৎ স্থিত হইবার স্থান সেই অগ্নিকে তুমি (অনুষ্বধম্) অন্নের আনুকূল্যকে (আ, বহ) পৌঁছাও । হে (বৃষভ) বরিষণ কারীজন! আপনি যে কারণে (স্বাহাকৃতম্) বেদবাণী দ্বারা সিদ্ধ কৃত (হব্যম্) লইবার যোগ্য পদার্থকে (দক্ষি) চাহেন বা প্রাপ্ত করেন এইজন্য আমাদিগকে (মাদয়স্ব) আনন্দিত করুন ॥ ৮৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যত অগ্নি জলে আছে তত জলাধিকরণ অর্থাৎ জলে নিবাসকারী নামে অভিহিত হয় । যেমন ঘৃত দ্বারা অগ্নি বৃদ্ধি পায় তদ্রূপ জল দ্বারা সব পদার্থ বৃদ্ধি পায় এবং অন্নের অনুকূল ঘৃত আনন্দকারী হয়, ইহাতে উক্ত ব্যবহারের কামনা সব লোকদিগের করা উচিত ॥ ৮৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ঘৃ॒তং মি॑মিক্ষে ঘৃ॒তম॑স্য॒ য়োনি॑ঘৃর্তে॒ শ্রি॒তো ঘৃ॒তম্ব॑স্য॒ ধাম॑ ।
    অ॒নু॒ষ্ব॒ধমা ব॑হ মা॒দয়॑স্ব॒ স্বাহা॑কৃতং বৃষভ বক্ষি হ॒ব্যম্ ॥ ৮৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ঘৃতমিত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top