यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 47
ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
115
या वो॑ दे॒वाः सूर्ये॒ रुचो॒ गोष्वश्वे॑षु॒ या रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी॒ ताभिः॒ सर्वा॑भी॒ रुचं॑ नो धत्त बृहस्पते॥४७॥
स्वर सहित पद पाठयाः। वः॒। दे॒वाः। सूर्य्ये॑। रुचः॑। गोषु॑। अश्वे॑षु। याः। रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी। ताभिः॑। सर्वा॑भिः। रुच॑म्। नः॒। ध॒त्त॒। बृ॒ह॒स्प॒ते॒ ॥४७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्वश्वेषु या रुचः । इन्द्राग्नी ताभिः सर्वाभी रुचं नो धत्त बृहस्पते ॥
स्वर रहित पद पाठ
याः। वः। देवाः। सूर्य्ये। रुचः। गोषु। अश्वेषु। याः। रुचः। इन्द्राग्नी। ताभिः। सर्वाभिः। रुचम्। नः। धत्त। बृहस्पते॥४७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे बृहस्पतेः। देवा या वस्सूर्ये रुचो या गोष्वश्वेषु रुचः सन्ति, या वैतेष्विन्द्राग्नी वर्त्तेते, तौ च ताभिस्सर्वाभी रुग्भिर्नो रुचं धत्त॥४७॥
पदार्थः
(याः) (वः) युष्माकम् (देवाः) विद्वांसः (सूर्ये) चराचरात्मनि जगदीश्वरे (रुचः) प्रीतयः (गोषु) किरणेन्द्रियेषु दुग्धादिदात्रीषु वा (अश्वेषु) वह्नितुरङ्गादिषु (याः) (रुचः) प्रीतयः (इन्द्राग्नी) इन्द्रः प्रसिद्धो विद्युदग्निः पावकश्च (ताभिः) (सर्वाभिः) (रुचम्) प्रीतिम् (नः) अस्माकं मध्ये (धत्त) धरत (बृहस्पते) बृहतां पदार्थानां पते पालकेश्वर॥४७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरो गवादिपालने पदार्थविद्यायां च सर्वान् मनुष्यान् प्रेरयति, तथैव विद्वांसोऽप्याचरेयुः॥४७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (बृहस्पते) बड़े-बड़े पदार्थों की पालना करनेहारे ईश्वर और (देवाः) विद्वान् मनुष्यो! (याः) जो (वः) तुम सबों की (सूर्य्ये) चराचर में व्याप्त परमेश्वर में अर्थात् ईश्वर की अपने में और तुम विद्वानों की ईश्वर में (रुचः) प्रीति हैं वा (याः) जो इन (गोषु) किरण, इन्द्रिय और दुग्ध देने वाली गौ और (अश्वेषु) अग्नि तथा घोड़ा आदि में (रुचः) प्रीति हैं वा जो इन में (इन्द्राग्नी) प्रसिद्ध बिजुली और आग वर्त्तमान हैं, वे भी (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब प्रीतियों से (नः) हम लोगों में (रुचम्) प्रीति को (धत्त) स्थापन करो॥४७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर गौ आदि की रक्षा और पदार्थविद्या में सब मनुष्यों को प्रेरणा देता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी आचरण किया करें॥४७॥
विषय
राजा और विद्वान शासक के कर्त्तव्य । राज्य के तेज और स्नेह की वृद्धि ।
भावार्थ
हे (देवाः ) विद्वान् एवं विजीगीषु पुरुषो ! ( व: ) तुम्हारी( याः रुचः ) जो प्रीतियां, दीप्तियां (सूर्ये) सूर्य के समान तेजस्वीराजा में, (गोषु) गौ आदि पशुओं और ( अश्वेषु )अश्व आदि युद्धो- पयोगी पशुओं में हैं, हे ( इन्द्राग्नी बृहस्पते ) इन्द्र अग्ने ! बृहस्पते ! सेनापते ! राजन् ! वेदज्ञ विद्वन् ! (ताभिः सर्वाभिः ) उन सब प्रीतियों तेजों से ( न: ) हममें ( रुचं धत्त ) प्रेम और तेज का स्थापन करो । अर्थात् हम भी गौ आदि पशुओं का पालन करें और राजा, सेनापतिआदि के प्रेमपात्र हों । व्याख्या देखो अ० १३ | २२ | २३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिः । आर्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
इन्द्राग्नी+बृहस्पति
पदार्थ
१. हे (देवा:) = दिव्य गुणों से द्योतमान देवो ! (याः) = जो (वः) = आपकी (सूर्ये) = सूर्य में (रुचः) = दीप्तियाँ हैं, (ताभिः सर्वाभिः) = उन सब दीप्तियों से (नः) = हममें (रुचः) = दीप्ति को (धत्त) = धारण करो। (बृहस्पते) = [ब्रह्मणस्पते] हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति प्रभो! आपकी कृपा से ये सब देव - सब प्राकृतिक शक्तियाँ हमारे जीवन में इस प्रकार समन्वित हों कि हम दीप्त ज्ञानवाले बनें। सूर्य के समान हमारा ज्ञान दीप्तिवाला हो। २. हे (देवाः) = देवो! (या:) = जो (वः) = आपकी (गोषु) = गौवों में व ज्ञानेन्द्रियों में (रुचः) = दीप्तियाँ हैं (ताभिः सर्वाभिः) = उन सब दीप्तियों से (नः) = हममें (रुचः) = दीप्ति को (धत्त) = धारण करो। (अग्ने) = हे अग्नि के समान प्रकाशमान प्रभो ! सब दोषों का दहन करनेवाले प्रभो! आपकी कृपा से सब देव हमें इन गौओं के सात्त्विक दुग्ध से सात्त्विक ज्ञानेन्द्रियोंवाला बनाइए। हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति की रुचिवाली हों। ३. हे (देवा:) = हे देवो! (याः) = जो (वः) = आपकी (अश्वेषु) = घोड़ों में कर्मेन्द्रियों में (रुच:) = दीप्तियाँ है, (ताभिः सर्वाभिः) = उन सब दीप्तियों से (नः) = हममें (रुचम्) = दीप्ति को (धत्त) = धारण कीजिए । हे इन्द्र-बल के सब कार्यों को करनेवाले प्रभो! आपकी कृपा से मैं अश्वादि वाहनों का भ्रमण में यथोचित प्रयोग करता हुआ अपने में इस प्रकार शक्ति का वर्धन करूँ कि मेरी कर्मेन्द्रियाँ सदा दीप्तिमय कर्मों को करनेवाली हों । निरन्तर क्रियाशीलता से मेरी कर्मेन्द्रियाँ दीप्त रहें ।
भावार्थ
भावार्थ - [क] बृहस्पति मुझे सूर्य के समान ज्ञान से दीप्त करे । [ख] अग्नि की कृपा से मैं उत्तम गौवों के सात्त्विक दुग्ध-प्रयोग से ज्ञान- ग्रहण - पटु ज्ञानेन्द्रियोंवाला बनूँ । [ग] इन्द्र के अनुग्रह से मैं अश्वों द्वारा उचित व्यायाम करता हुआ अपनी कर्मेन्द्रियों को सशक्त बनाऊँ। मेरे सब कार्य शक्तिशाली हों।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा परमेश्वर गाई, (किरणे, इंद्रिये) इत्यादींचे रक्षण करतो व सर्व माणसांना पदार्थ विद्या जाणून घेण्याची प्रेरणा देतो, तसेच विद्वान लोकांनी वागावे.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (या मंत्राचेही परमेश्वर आणि विद्वान असे दोन पक्ष आहेत) हे (बृहस्पते) महान (विशाल ब्रम्हांडाचे) पदार्थाचे निर्माण वा पालन करणारे हे परमेश्वर आणि (देवा:) हे विद्वज्जन हो, (या:) जो (व:) आपणा सर्वांची (प्रीती) (सूर्ये) चराचर जगतात व्याप्त परमेश्वराविषयी आहे आणि ईश्वराची स्वत: विषयी तसेच तुम्हा विषयी (रुच:) प्रीती आहे, तसेच या (गोषु) या किरणांविषयी स्वत:च्या इंद्रियांविषयी आणि दूध देणार्या गायी विषयी तसेच (अश्वेषु) अग्नीविषयी आणि अश्वाविषयी (रुच:) प्रीती आहे, तसेच या सर्वांमधे (इन्द्राग्नी) जी विद्युत आणि जो अग्नी विद्यमान आहे, (ताभि:) (सर्वाभि:) त्या सर्व प्रीतीभावनांसह (न:) आम्हा (उपासकांवर) देखील तुम्ही (परमेश्वर आणि विद्वान) (रुचम्) प्रीतीभाव (धत्त) धारण करा (आमच्या विषयी प्रीती असू द्या) ॥47॥
भावार्थ
भावार्थ -या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. जसे परमेश्वर सर्व लोकांना गौ आदी प्राण्यांची रक्षा करण्याची आणि पदार्थ विद्या (भौतिकशास्त्र) द्वारा आपली उन्नती करण्याची प्रेरणा देतो, तद्वत विद्वनांनी देखील केले पाहिजे ॥47॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God and learned persons whatever affection ye cherish for self and God, for kine and steeds, may lightning and fire, present in them, with all those affections vouchsafe us love.
Meaning
Brihaspati, lord of the great wonderful world, brilliant powers of divinity, saints and sages, that light and love of yours which shines in the sun, and that which reflects in the sun-beams, the earths, fires, sense organs, cows and horses, with all that light and love, may Indra, lord of universal energy, and Agni, power of universal heat and light, and the saints and scholars of the world bless us.
Translation
O bounties of Nature, O Lord supreme, resplendent and blissful, with your brilliance, which manifests itself in the sun and which is manifest in cows and horses, may you bless us. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (বৃহস্পতে) বৃহৎ পদার্থের পালনকর্ত্তা ঈশ্বর এবং (দেবাঃ) বিদ্বান্ মনুষ্যগণ! (য়াঃ) যাহা (বঃ) তোমাদের (সূর্য়্যে) চরাচরে ব্যাপ্ত পরমেশ্বরে অর্থাৎ ঈশ্বরের নিজের মধ্যে এবং তোমাদের বিদ্বান্দের ঈশ্বরে (রুচঃ) প্রীতি আছে অথবা (য়াঃ) যাহা এই সব (গোষু) কিরণ, ইন্দ্রিয় এবং দুদ্ধ দাত্রী গাভি এবং (অশ্বেষু) অগ্নি তথা অশ্ব আদিতে (রুচঃ) প্রীতি আছে অথবা ইহাদের মধ্যে যে (ইন্দ্রাগ্নী) প্রসিদ্ধ বিদ্যুৎ ও অগ্নি বর্ত্তমান আছে সেগুলিও (তাভিঃ) সে (সর্বাভিঃ) সকল প্রীতি দ্বারা (নঃ) আমাদের মধ্যে (রুচম্) প্রীতিকে (ধত্ত) স্থাপন কর ॥ ৪৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যেমন পরমেশ্বর গাভি আদির রক্ষা এবং পদার্থবিদ্যায় সকল মনুষ্যকে প্রেরণা দান করেন সেইরূপ বিদ্বান্গণও আচরণ করিতে থাকিবে ॥ ৪৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়া বো॑ দে॒বাঃ সূর্য়ে॒ রুচো॒ গোষ্বশ্বে॑ষু॒ য়া রুচঃ॑ ।
ইন্দ্রা॑গ্নী॒ তাভিঃ॒ সর্বা॑ভী॒ রুচং॑ নো ধত্ত বৃহস্পতে ॥ ৪৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়া ব ইত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । বৃহস্পতির্দেবতা । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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