यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 48
ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - भुरिगार्ष्युनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
344
रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म्॥४८॥
स्वर सहित पद पाठरुच॑म्। नः॒। धे॒हि॒। ब्रा॒ह्म॒णेषु॑। रुच॑म्। राज॒स्विति॒ राज॑ऽसु। नः॒। कृ॒धि॒। रुच॑म्। विश्ये॑षु। शू॒द्रेषु॑। मयि॑। धे॒हि॒। रु॒चा। रुच॑म् ॥४८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रुचन्नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचँ राजसु नस्कृधि । रुचँविश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
रुचम्। नः। धेहि। ब्राह्मणेषु। रुचम्। राजस्विति राजऽसु। नः। कृधि। रुचम्। विश्येषु। शूद्रेषु। मयि। धेहि। रुचा। रुचम्॥४८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर वा विद्वँस्त्वं नो ब्राह्मणेषु रुचा रुचं धेहि, नो राजसु रुचा रुचं कृधि, विश्येषु शूद्रेषु रुचा रुचं मयि च रुचा रुचं धेहि॥४८॥
पदार्थः
(रुचम्) प्रेम (नः) अस्माकम् (धेहि) धर (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवित्सु (रुचम्) प्रीतिम् (राजसु) क्षत्रियेषु राजपुत्रेषु (नः) अस्माकम् (कृधि) कुरु (रुचम्) (विश्येषु) विक्षु प्रजासु भवेषु वणिग्जनेषु (शूद्रेषु) सेवकेषु (मयि) (धेहि) (रुचा) प्रीत्या (रुचम्) प्रीतिम्॥४८॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरः पक्षपातं विहाय ब्राह्मणादिवर्णेषु समानां प्रीतिं करोति, तथैव विद्वांसोऽपि तुल्यां प्रीतिं कुर्य्युः। ये हीश्वरगुणकर्मस्वभावाद् विरुद्धा वर्त्तन्ते, ते सर्वे नीचास्तिरस्करणीया भवन्ति॥४८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर वा विद्वन्! आप (नः) हम लोगों के (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवेत्ता विद्वानों में (रुचा) प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) धरो, स्थापन करो (नः) हम लोगों के (राजसु) राजपूत क्षत्रियों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (कृधि) करो (विश्येषु) प्रजाजनों में हुए वैश्यों में तथा (शूद्रेषु) शूद्रों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को और (मयि) मुझ में भी प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) स्थापन करो॥४८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर पक्षपात को छोड़ ब्राह्मणादि वर्णों में समान प्रीति करता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी समान प्रीति करें। जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से विरुद्ध वर्त्तमान हैं, वे सब नीच और तिरस्कार करने योग्य होते हैं॥४८॥
पदार्थ
पदार्थ = ( नः ब्राह्मणेषु ) = हमारे ब्राह्मणों में ( रुचम् ) = तेज और परस्पर प्रेम ( धेहि ) = प्रदान करो। ( नः राजसु ) = हमारे क्षत्रियों में ( रुचम् कृधि ) = तेज और प्रेम स्थापन करो । ( विश्येषु शूद्रेषु ) = वैश्य और शूद्रों में ( रुचम् धेहि ) = तेज और प्रेम स्थापन करो। ( मयि ) = मेरे में भी ( रुचा ) = अपने तेज और प्रेम द्वारा ( रुचम् धेहि ) = सबसे प्रेम और तेज को स्थापन करो ।
भावार्थ
भावार्थ = हे विशाल प्रेम ज्ञान और तेज के भण्डार परमात्मन्! हमारे ब्राह्मणादि चारों वर्णों को वेदों के स्वाध्याय और योगाभ्यासादि साधनों से उत्पन्न जो ब्रह्मतेज उस तेज से सम्पन्न करो । इन चारों वर्णों में आपस में प्रेम भी उत्पन्न करो, जिससे एक दूसरे के सहायक बनते हुए, सब सुखी हों । वेदादि सत्यं शास्त्रों की विद्या और परस्पर प्रेम के बिना, कभी कोई सुखी नहीं हो सकता। इसीलिए आप दयालु पिता ने इस मन्त्र द्वारा, हमें बताया कि मेरे प्यारे पुत्रो ! तुम लोग मुझसे ब्रह्मविद्या और परस्पर प्रेम की प्रार्थना करो, जिससे आप लोग सदा सुखी होओ।
विषय
राजा और विद्वान शासक के कर्त्तव्य । राज्य के तेज और स्नेह की वृद्धि ।
भावार्थ
( नः ब्राह्मणेषु ) हमारे ब्राह्मणों में ( रुचा ) अपने व्यापक प्रेम द्वारा ( रुचं धेहि ) परस्पर प्रेम और तेज प्रदान कर । (नः राजसु ) हमारे राजगणों में ( रुचं धेहि ) प्रेम, तेज प्रदान कर । ( विश्येषु ) प्रजाओं में विद्यमान, वैश्यजनों में और ( शूद्रेषु ) शूद्रों में भी ( रुचं धेहि ) प्रेम प्रदान कर और ( मयि ) मेरे में भी तू अपने विशाल प्रेम द्वारा ( रुचं धेहि ) प्रेम प्रदान कर । अर्थात् राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सब में प्रेम पैदा करे । आपस में घृणा और द्वेष के बीज न बोवे और ( मयि ) मेरे निमित्त और प्रजाजनों में ( रुचा रुचं ) प्रेम द्वारा सब में प्रेम ( धेहि ) पैदा करे । अर्थात् प्रत्येक के प्रति सबका प्रेम हो । हर एक हर एक देशवासियों का प्रिय हो उसी प्रकार परमेश्वर भी हम में प्रेम पैदा करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिः । भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
ब्रह्म + क्षत्रिय + विट्शूद्र
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के 'देवा' पद को ही यहाँ अनुवृत्त करके प्रार्थना इस रूप में है कि हे (देवाः) = सब देवो ! आप (नः) = हमारे राष्ट्र के (ब्राह्मणेषु) = ब्रह्मज्ञान के देनेवाले सब विद्वानों में (रुचम्) = ज्ञान की दीप्ति को (धेहि) = धारण कीजिए। एक-एक देव हमारे ब्राह्मणों को ज्ञान से दीप्त करनेवाला हो । २. (नः) = हमारे (राजसु) = रक्षणात्मक कर्मों से प्रजा का रञ्जन करनेवाले क्षत्रियों में (रुचम्) = बल की दीप्ति को (कृधि) = कीजिए। आपकी कृपा से हमारे क्षत्रिय दीप्त बलवाले होकर प्रजा रक्षणात्मक कार्यों से प्रजा का अनुरञ्जन करते हुए सचमुच 'राजा' इस अन्वर्थक नामवाले हों। ३. हे सब देवो! आप (विश्येषु) = हमारे सब वैश्यों में (रुचम्) = धन की दीप्ति को धारण कीजिए। ये सदा सुपथ से 'स्व' [धन] का संचय करते हुए स्वराष्ट्र को सम्पन्न व सुखी बनानेवाले हों। ४. हे देवो! आप (शूद्रेषु) = [शू द्रवति] शीघ्रता से कार्यों में द्रुत होनेवाले हमारे इन शूद्रों में (रुचम्) = श्रमजनित दीप्ति को धारण कीजिए। आपकी कृपा से ये सदा अनसूया [प्रसन्नता] से श्रम करनेवाले हों। अपने श्रम से ये ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों के कार्यों की पूर्ति में सहायक हों। ५. हे प्रभो! आप कृपया (मयि) = मुझमें (रुचा) = इन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों की 'ज्ञान, बल, धन व श्रम' की दीप्तियों से (रुचम्) = दीप्ति (धेहि) = स्थापित कीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ- हममें ब्राह्मणों की ज्ञान दीप्ति हो। हम क्षत्रियों के बल को धारण करें, वैश्यों की सुसम्पत्तिवाले हों। शूद्रों के श्रम को हम मान देनेवाले हों।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा परमेश्वर भेदभाव न करता ब्राह्मण वगैरे सर्वच वर्णाच्या लोकांना समान प्रेम करतो, तसेच विद्वान लोकांनीही सर्वांना समान प्रेम करावे. जे ईश्वराच्या गुण, कर्म, स्वभावाविरुद्ध वागतात ते सर्व नीच व तिरस्कार करण्यायोग्य असतात.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषयी प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जगदीश्वर अथवा हे विद्वान, आपण (न:) आमच्या समाजातील (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मावेत्ता विद्वज्जनांमधे (रुचा) प्रेमभावनेने (रुचम्) प्रेमभाव (धेहि) धारण (वा उत्पन्न) करा (ब्रह्मेवत्ता विद्वानांनी एकमेकांशी प्रेमाने वर्त्तीने) (न) आमच्या समाजातील) (राजसु) राजपत्र क्षत्रिय यांमधे (एकमेकाविषयी) (रुचम्) प्रीतीभाव ( कृधि) निर्माण करा. (विश्येषु) प्रजेतील (समाजातील) वैश्यजनांमधे तसेच (शूद्रेषु) शूद्रजनांमधे (रुचम्) प्रेमभाव (उत्पन्न करा) आणि (मथि) (मी एक तुमचा उपासक असून) माझ्या हृदयात (सचम्) (सर्वांविषयी) (रुचम्) प्रेमभाव (धेहि) उत्पन्न करा ।48॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे ज्याप्रमाणे परमेश्वर पक्षपातविरहित हित होऊन ब्राह्मण आदी सर्व वर्णावर समभावनेने प्रीती करतो, तद्वत विद्वज्जनांनीदेखील आपसात एकमेकाविषयी प्रीतिभावना असू द्यावी. जी जी माणसें ईश्वराच्या गुण, कर्म आणि स्वभावाच्या विपरीत आचरण करतात, ती सर्व माणसे नीच असून तिरस्करणीय असतात ॥48॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God grant love to our holy priests, set love in our ruling chiefs. Grant love to the Vaishyas and Shudras : give out of thy unbounded store of love, love unto me.
Meaning
Brihaspati, lord of the universe, eminent teacher and master of vast knowledge, inspire our Brahma section of the community—scholars, scientists, teachers and researchers with brilliance and love. Infuse brilliance, love and justice into our Kshatrias, defence, administration and justice section of the community. Bless with light, love and generosity our Vaishyas, producers and distributors among the community. And bless our Shudras, the ancillary services, with light, love and loyalty. Bless me with light and love toward us all.
Translation
О Lord, bestow lustre on our intellectuals; bestow lustre on our ruler-administrators; bestow. lustre on our producers of wealth as well as on our labour community. May you bestow lustre on me through your own lustre. (1)
Notes
Bestow lustre on the Brāhmaṇas (intellectuals) in our society, on the Ksatriyas (warrior-administrators), on the Vaisyas (entrepreneurs) and the Sūdras (labourers). Sūdras are not to be lustreless, not to be deprecated.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে জগদীশ্বর বা বিদ্বন্! আপনি (নঃ) আমাদের (ব্রাহ্মণেষু) ব্রহ্মবেত্তা বিদ্বান্দিগের মধ্যে (রুচা) প্রীতিপূর্বক (রুচম্) প্রীতিকে (ধেহি) স্থাপন করুন । (নঃ) আমাদিগের (রাজসু) রাজপুত ক্ষত্রিয় মধ্যে প্রীতিপূর্বক (রুচম্) প্রীতিকে (কৃধি) করুন (বিশ্যেষু) প্রজাগণের মধ্যে, বৈশ্যগণের মধ্যে তথা (শূদ্রেষু) শূদ্রদের মধ্য প্রীতিপূর্বক (রুচম্) প্রীতিকে এবং (ময়ি) আমার মধ্যেও প্রীতিপূর্বক (রুচম্) প্রীতিকে (ধেহি) স্থাপন করুন ॥ ৪৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যেমন পরমেশ্বর পক্ষপাত ছাড়িয়া ব্রাহ্মণাদি বর্ণ মধ্যে সমান প্রীতি করেন সেইরূপ বিদ্বান্গণও সমান প্রীতি করুক । যাহারা ঈশ্বরের গুণ, কর্ম ও স্বভাব হইতে বিরুদ্ধ বর্ত্তমান তাহার সব নীচ এবং তিরষ্কার করার যোগ্য ॥ ৪৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
রুচং॑ নো ধেহি ব্রাহ্ম॒ণেষু॒ রুচ॒ꣳ রাজ॑সু নস্কৃধি ।
রুচং॒ বিশ্যে॑ষু শূ॒দ্রেষু॒ ময়ি॑ ধেহি রু॒চা রুচ॑ম্ ॥ ৪৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
রুচন্ন ইত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । বৃহস্পতির্দেবতা । ভুরগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
রুচং নো ধেহি ব্রাহ্মণেষু রুচংরাজসু নস্কৃধি ।
রুচং বিশ্যেষু শূদ্রেষু, ময়ি ধেহি রুচা রচুম্।।৩২।।
(যজু ১৮।৪৮)
পদার্থঃ হে পরমাত্মন! তুমি (নঃ ব্রাহ্মণেষু) আমাদের ব্রাহ্মণদের মধ্যে (রুচম্) তেজ এবং পরস্পর প্রেম (ধেহি) প্রদান করো। (নঃ রাজসু) আমাদের রাজাদের মধ্যে (রুচম্ কৃধি) তেজ এবং প্রেম স্থাপন করো। (বিশ্যেষু শূদ্রেষু) বৈশ্য এবং শূদ্রের মধ্যে (রুচম্ ধেহি) তেজ এবং প্রেম স্থাপন করো। (ময়ি ) আমার মধ্যেও (রুচা) তেজ এবং প্রেম দ্বারা (রচুম্ ধেহি) সবার সাথে প্রেম এবং তেজকে স্থাপন করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে প্রেম, জ্ঞান এবং তেজের ভা-ার পরমাত্মন! আমাদের ব্রাহ্মণাদি চার বর্ণকে বেদের স্বাধ্যায় এবং যোগাভ্যাসাদি সাধনা দ্বারা উৎপন্ন যে তেজ, সেই তেজ সম্পন্ন করো। এই চার বর্ণের মধ্যে প্রেম উৎপন্ন করো যাতে একে অপরের সহায়ক হয়ে সবাই সুখী হই। বেদাদি সত্য শাস্ত্রের বিদ্যা এবং পরস্পর প্রেম ছাড়া কখনো কেউ সুখী হতে পারে না। পরম দয়ালু পিতা এই মন্ত্র দ্বারা আমাদের বলেছেন যে, আমার প্রিয় পুত্রগণ! তোমরা আমার নিকট ব্রহ্মবিদ্যা এবং পরস্পর প্রেমের প্রার্থনা করো যাতে তোমরা সদা সুখী হও।।৩২।।
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