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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 1
    ऋषि: - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    217

    कृष्णो॑ऽस्याखरे॒ष्ठोऽग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ वेदि॑रसि ब॒र्हिषे॑ त्वा॒ जुष्टां॒ प्रोक्षा॑मि ब॒र्हिर॑सि स्रु॒ग्भ्यस्त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॒मि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृष्णः॑। अ॒सि॒। आ॒ख॒रे॒ष्ठः। आ॒ख॒रे॒स्थ इत्या॑खरे॒ऽस्थः। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वेदिः॑। अ॒सि॒। ब॒र्हिषे॑। त्वा॒। जुष्टा॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। ब॒र्हिः। अ॒सि॒। स्रु॒ग्भ्य इति स्रु॒क्ऽभ्यः। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णोस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टांम्प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णः। असि। आखरेष्ठः। आखरेस्थ इत्याखरेऽस्थः। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वेदिः। असि। बर्हिषे। त्वा। जुष्टाम्। प्र। उक्षामि। बर्हिः। असि। स्रुग्भ्य इति स्रुक्ऽभ्यः। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    तत्रादौ वेद्यादिरचनमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यतोऽयं यज्ञ आखरेष्ठः कृष्णो [ऽसि] भवति तस्मात् त्वा तमहमग्नये जुष्टं प्रोक्षामि। यत इयं वेदिरन्तरिक्षस्थासि भवति, तस्मादहं त्वा तामिमां बर्हिषे जुष्टां प्रोक्षामि। यत इदं बर्हिरुदकमन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि] भवति, तस्मात् त्वा तच्छोधितं जुष्टं हविः स्रुग्भ्योऽहं प्रोक्षामि॥१॥

    पदार्थः

    (कृष्णः) अग्निना छिन्नो वायुनाऽकर्षितो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (आखरेष्ठः) समन्तात् खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः। खनोडडरेकेकवकाः (अष्टा॰३.३.१२५) अनेन वार्तिकेनाऽऽखरः सिध्यति (अग्नये) हवनार्थाय (त्वा) तद्धविः (जुष्टम्) प्रीत्या संशोधितम् (प्रोक्षामि) शोधितेन घृतादिनाऽऽर्द्रीकरोमि (वेदिः) विन्दति सुखान्यनया सा (असि) भवति (बर्हिषे) अन्तरिक्षगमनाय। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् (निघं॰१.३) (त्वा) तां वेदिम् (जुष्टाम्) प्रीत्या संपादिताम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतया घृतादिना सिञ्चामि (बर्हिः) शुद्धमुदकम्। बर्हिरित्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (असि) भवति (स्रुग्भ्यः) स्रावयन्ति गमयन्ति हर्विर्येभ्यस्तेभ्यः। अत्र स्रु गतावित्यस्मात्। चिक् च (उणा॰२.६१) अनेन चिक् प्रत्ययः (त्वा) तत् (जुष्टम्) पुष्ट्यादिगुणयुक्तं जलं पवनं वा (प्रोक्षामि) शोधयामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.३.३.१-३) व्याख्यातः॥१॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति सर्वैर्मनुष्यैर्वेदिं रचयित्वा पात्रादिसामग्रीं गृहीत्वा सम्यक् शोधयित्वा तद्धविरग्नौ हुत्वा कृतो यज्ञः शुद्धेन वृष्टिजलेन सर्वा ओषधीः पोषयति। तेन सर्वे प्राणिनो नित्यं सुखयितव्या इति॥१॥

    सपदार्थान्वयः

    यतोऽयं यज्ञ आखरेष्ठः समन्तात् खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः कृष्णः अग्निना छिन्नो वायुनाऽऽकर्षितो यज्ञः [असि]=भवति, तस्मात् त्वा=तं तद्धतिः अहमग्नये हवनाऽर्थाय जुष्टं प्रीत्या संशोधितं प्रोक्षामि शोधितेन घृतादिनाऽऽर्द्रीकरोमि ।

    यत इयं वेदिः विन्दति सुखान्यनया सा अन्तरिक्षस्था असि=भवति, तस्मादहं त्वा=तामिमां तां वेदिं बर्हिषे अन्तरिक्षगमनाय जुष्टां प्रीत्या सम्पादितां प्रोक्षामि प्रकृष्टतया घृताऽऽदिना सिञ्चामि।

    यत इदं बर्हिः=उदकं शुद्धमुदकम् अन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि]=भवति, तस्मात् त्वा=तत् शोधितं जुष्टं=हविः पुष्ट्यादिगुणयुक्तं प्रीतिकरं जलं पवनं वा स्रुग्भ्यः स्रावयन्ति=गमयन्ति हविर्येभ्यस्तेभ्यः अहं प्रोक्षामि शोधयामि ॥२ । १॥

    पदार्थः

    (कृष्णः) अग्निना छिन्नो वायुनाऽऽकर्षितो यज्ञः (असि) भवति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (आखरेष्ठः) समन्तात्खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः । खनोडडरेकेकवकाः ॥ अ० ३।३।१२५॥ अनेन वार्तिकेनाऽऽखरः सिध्यति (अग्नये) हवनार्थाय (त्वा) तद्धविः (जुष्टम्) प्रीत्या संशोधितम् (प्रोक्षामि) शोधितेन घृतादिनाऽऽद्री करोमि (वेदिः) विन्दति सुखान्यनया सा (असि) भवति (बर्हिषे) अन्तरिक्षगमनाय । बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ३ ॥ (त्वा) तां वेदिम् (जुष्टाम्) प्रीत्या संपादिताम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतया घृतादिना सिंचामि (बर्हिः) शुद्धमुदकम् । बर्हिरित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ॥ (असि) भवति (स्रुग्भ्यः) स्रावयन्ति=गमयन्ति हविर्येभ्यस्तेभ्यः । अत्र   स्रुगतावित्यस्मात् । चिक् च ॥ उ० २ । ६१ ॥ अनेन चिक् प्रत्ययः (त्वा) तत् (जुष्टम्) पुष्ट्यादिगुणयुक्तं प्रीतिकरं जलं पवनं वा (प्रोक्षामि) शोधयामि ॥ अयं मंत्रः श० १ । ३ । ३ । १–३ व्याख्यातः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    [इयं वेदः....."यत इदं बर्हिः=उदकमन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि] भवति, तस्मात् त्वा=तच्छोधितं

    जुष्टं हविः स्रुग्भ्योऽहं प्रोक्षामि]

    ईश्वर उपदिशति--सर्वैमनुष्यैर्वेदिं रचयित्वा, पात्रादि-सामग्रीं गृहीत्वा, सम्यक् शोधित्वा तद्धविरग्नौ हुत्वा, कृतो यज्ञः शुद्धेन वृष्टिजलेन सर्वा ओषधीः पोषयति ।

    [कर्त्तव्यमाह--]

     तेन सर्वे प्राणिनः सुखयितव्या इति ॥२।१॥

    भावार्थ पदार्थः

    . शोधित्वा ।

    हिन्दी (2)

    विषय

    अब दूसरे अध्याय में परमेश्वर ने उन विद्याओं की सिद्धि करने के लिये विशेष विद्याओं का प्रकाश किया है कि जो-जो प्रथम अध्याय में प्राणियों के सुख के लिये प्रकाशित की हैं। उन में से वेद आदि पदार्थों के बनाने को हस्तक्रियाओं के सहित विद्याओं के प्रकार प्रकाशित किये हैं, उन में से प्रथम मन्त्र में यज्ञ सिद्ध करने के लिये साधन अर्थात् उनकी सिद्धि के निमित्त कहे हैं।

    पदार्थ

    जिस कारण यह यज्ञ (आखरेष्ठः) वेदी की रचना से खुदे हुए स्थान में स्थिर होकर (कृष्णः) भौतिक अग्नि से छिन्न अर्थात् सूक्ष्मरूप और पवन के गुणों से आकर्षण को प्राप्त (असि) होता है, इससे मैं (अग्नये) भौतिक अग्नि के बीच में हवन करने के लिये (जुष्टम्) प्रीति के साथ शुद्ध किये हुए (त्वा) उस यज्ञ अर्थात् होम की सामग्री को (प्रोक्षामि) घी आदि पदार्थों से सींचकर शुद्ध करता हूं और जिस कारण यह (वेदिः) वेदी अन्तरिक्ष में स्थित (असि) होती है, इससे मैं (बर्हिषे) होम किये हुए पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुंचाने के लिये (जुष्टाम्) प्रीति से सम्पादन की हुई (त्वा) उस वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घी आदि पदार्थों से सींचता हूं तथा जिस कारण यह (बर्हिः) जल अन्तरिक्ष में स्थिर होकर पदार्थों की शुद्धि कराने वाला (असि) होता है, इससे (त्वा) उसकी शुद्धि के लिये जो कि शुद्ध किया हुआ (जुष्टम्) पुष्टि आदि गुणों को उत्पन्न करनेहारा हवि है, उसको मैं (स्रुग्भ्यः) स्रुवा आदि साधनों से अग्नि में डालने के लिये (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूं॥१॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों को वेदी बनाकर और पात्र आदि होम की सामग्री ले के उस हवि को अच्छी प्रकार शुद्ध कर तथा अग्नि में होम कर के किया हुआ यज्ञ वर्षा के शुद्ध जल से सब ओषधियों को पुष्ट करता है, उस यज्ञ के अनुष्ठान से सब प्राणियों को नित्य सुख देना मनुष्यों का परम धर्म है॥१॥

    विषय

    ईश्वर ने यह सब प्रथम अध्याय में विधान करके अब द्वितीय अध्याय में प्राणियों के सुख के लिए उक्तार्थ की सिद्धि करने के लिए विशिष्ट विद्याओं का प्रकाश किया है। उनमें से आदि में वेदि आदि की रचना का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    जिससे यह यज्ञ (आखरेष्ठः) सब ओर से खुदे हुए वेदि-स्थान में स्थित होकर (कृष्णः) अग्नि से सूक्ष्म-रूप तथा वायु से आकर्षित [असि] है, इसलिए (त्वा) उस होम-सामग्री को मैं (अग्नये) हवन करने के लिए (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक (प्रोक्षामि) शुद्ध घृतादि से सींचता हूँ।

     जिस कारण से यह (वेदिः) सब सुखों को देने वाली वेदि अंतरिक्ष में स्थित  (असि) है, इसलिए मैं (त्वा) उस वेदिस्थ हवि को (बर्हिषे) अंतरिक्ष में पहुँचाने के लिए (जुष्टाम्) प्रीति से बनाई वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घृतादि से सींचता हूँ।

    जिससे यह (बर्हिः) शुद्ध जल  अन्तरिक्ष में स्थित होकर शुद्धि करने वाला होता है, इसलिए (त्वा) उस शुद्ध किए हुए (जुष्टम्) हवि को अथवा पुष्टि आदि गुणों से युक्त, प्रीतिकारक जल वा पवन को (स्रुगभ्यः) हवि देने के साधन स्रुवाओं से मैं (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूँ॥२।१॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों से, वेदि रच कर, पात्र आदि साम्रगी को ग्रहण करके, अच्छी प्रकार शुद्ध की हुई उस हवि को अग्नि में होम करके किया हुआ यज्ञ, शुद्ध वर्षा जल से सब औषधियों को पुष्ट करता है।

    उस यज्ञ से सब प्राणियों को सुखी करो॥२।१॥

    भाष्यसार

    . यज्ञ-- यह सब ओर से खोदे हुए हवन-कुण्ड में स्थित रहता है। यज्ञ में होम किए हुए पदार्थ अग्नि से सूक्ष्म रूप हो जाते हैं जिन्हें वायु आकृष्ट कर लेता है। वेदि अर्थात् वेदि में स्थित यज्ञ अन्तरिक्ष में स्थित हो जाता है। जिससे अन्तरिक्ष में स्थित जल एवं पवन शुद्ध होते हैं।

    . वेदि आदि की रचना-- इस उक्त यज्ञ के लिए वेदि बनावें तथा स्रुवा आदि अन्य यज्ञपात्रों की भी रचना करें।

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। निचृत्पंक्तिः। पंचमः॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराच्या उपदेशाप्रमाणे सर्व माणसांनी वेदी बनवावी. पात्रे व होमाचे सामान घ्यावे, शुद्ध आहुतीने होम करावा. अशा यज्ञामुळे पर्जन्याची शुद्धी होते. औषधी पुष्ट होतात व अशा यज्ञाच्या अनुष्ठानाने सर्व प्राण्यांना सदैव सुखी करणे हाच माणसाचा श्रेष्ठ धर्म आहे.

    English (2)

    Meaning

    Oh yajna, thou art being performed in a well dug place, thou art rarefied by fire and attracted by the air. For the sake of Havan I consecrate the oblation agreeably rectified by thee. Thou art an alter for taking the oblations high up into the space ; I erect thee and consecrate thee with ghee. Just as water in the space contributes to the purification of the material objects, so do I carefully cleanse the oblations to be put into the fire ladles.

    Meaning

    Yajna is seated in the vedi carved out on the ground, and it is carried to the sky by the window. I refine and consecrate the holy offerings for the fire in the vedi. The fragrance rises to the sky for the higher vedi there for the formation of waters. I refine and enrich the holy materials/offerings consecrated by the fire for the yajna in the sky. The yajna is holy waters floating in the sky for showers on the earth. I refine, enrich and consecrate the holy materials of oblations, offered with ladles into the fire, for yajna from the sky.

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