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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - विराट् जगती, स्वरः - निषादः
    343

    मनो॑ जू॒तिर्जु॑षता॒माज्य॑स्य॒ बृह॒स्पति॑र्य॒ज्ञमि॒मं त॑नो॒त्वरि॑ष्टं य॒ज्ञꣳ समि॒मं द॑धातु। विश्वे॑ दे॒वास॑ऽइ॒ह मा॑दयन्ता॒मो३म्प्रति॑ष्ठ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनः॑। जू॒तिः। जु॒ष॒ता॒म्। आज्य॑स्य। बृह॒स्पतिः॑। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। त॒नो॒तु॒। अरि॑ष्टम्। य॒ज्ञम्। सम्। इ॒मम्। द॒धा॒तु॒। विश्वे॑। दे॒वासः॑। इ॒ह। मा॒द॒य॒न्ता॒म्। ओ३म्। प्र। ति॒ष्ठ॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमन्तनोत्वरिष्टँ यज्ञँ समिमन्दधातु । विश्वे देवासऽइह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनः। जूतिः। जुषताम्। आज्यस्य। बृहस्पतिः। यज्ञम्। इमम्। तनोतु। अरिष्टम्। यज्ञम्। सम्। इमम्। दधातु। विश्वे। देवासः। इह। मादयन्ताम्। ओ३म्। प्र। तिष्ठ॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    येन यज्ञः कर्तुं शक्यस्तदुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    मम जूतिर्मन आज्यस्य जुषतां बृहस्पतिर्यमिमं यज्ञमरिष्टं तनोतु संदधातु। हे विश्वे देवास! एतमरिष्टं यज्ञद्वयं संतन्य संधाय चेह मादयन्ताम्। हे ओंकारवाच्य बृहस्पते! त्वमिह प्रतिष्ठ कृपयेमं यज्ञं विद्यां च प्रतिष्ठापय॥१३॥

    पदार्थः

    (मनः) मननशीलं ज्ञानसाधनम् (जूतिः) वेगेन व्याप्तिकर्म। ऊतियूतिजूति॰ (अष्टा॰३.३.९७) अनेन निपातितः (जुषताम्) प्रीत्या सेवताम् (आज्यस्य) यज्ञसामग्रीम्। सुपां सुलुक्॰ [अष्टा॰९.१.३९] इति द्वितीयास्थाने षष्ठी (बृहस्पतिः) बृहतां प्रकृत्याकाशादीनां पतिः पालको जगदीश्वरः। तद्बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च (अष्टा॰६.१.१५७) अनेन वार्त्तिकेन बृहस्पतिशब्दो निपातितः (यज्ञम्) संसाराख्यम् (इमम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं सुखभोगहेतुम् (तनोतु) विस्तारयतु (अरिष्टम्) रिष्यते हिंस्यते यः स रिष्टो न रिष्टोऽरिष्टस्तम् (यज्ञम्) अस्माभिरनुष्ठातुमर्हम् (सम्) एकीभावे क्रियायोगे (इमम्) समक्षं विज्ञानयज्ञम् (दधातु) धारयतु (विश्वे देवासः) सर्वे विद्वांसः। अत्र जसेरसुगागमः (इह) अस्मिन् संसारे हृदये वा (मादयन्ताम्) हृषन्तु (ओ३म्) ईश्वरवाचको यज्ञो वेदविद्या वा॥ ओ३म् खं ब्रह्म (यजु॰४०.१७) अत्र। अवतेष्टिलोपश्च (उणा॰१.१४२) अनेनाऽवधातोर्मन् प्रत्ययोऽस्य टिलोपश्च (प्रतिष्ठ) प्रतिष्ठति वा अत्रान्त्यपक्षे व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.७.४.२२) व्याख्यातः॥१३॥

    भावार्थः

    ईश्वर आज्ञापयति हे मनुष्या! युष्मन्मनः सत्कर्माण्येव प्राप्नोतु, मया योऽयं संसारे यज्ञः कर्त्तुमाज्ञाप्यते तमेवानुष्ठाय सुखिनो भवन्तु भावयन्तु वा। ओमिति परमेश्वरस्यैव नाम, यथा पितापुत्रयोः प्रियः सम्बन्धस्तथैवेश्वरेण सहोंकारस्य सम्बन्धोऽस्ति। नैव कस्यचित् सत्क्रियया विना प्रतिष्ठा भवितुमर्हति। तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैः सर्वधाऽधर्मं विहाय धर्मकार्य्याण्येव सेवनीयानि। यतः खल्वविद्यान्धकारनिवृत्तये विद्यार्कः प्रकाशेत। द्वादशमन्त्रेण यो यज्ञः प्रकाशितस्तस्यानुष्ठानेन सर्वेषां प्रतिष्ठासुखे भवत इत्यनेन प्रकाशितम्॥१३॥

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    विषयः

    येन यज्ञः कर्तुं शक्यस्तदुपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    मम जूतिः वेगेन व्याप्तिकर्म मनो मननशीलं ज्ञानसाधनम् आज्यस्य यज्ञसामग्रीं जुषतां प्रीत्या सेवताम् ।

    बृहस्पतिः बृहतां प्रकृत्याकाशादीनां पतिः पालको जगदीश्वरो यमिमं प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षं सुखभोगहेतुं यज्ञं संसाराऽऽख्यम् अरिष्टं रिष्यते हिंस्यते यः स रिष्टो न रिष्टोऽरिष्टतं तनोतु विस्तारयतु, सम्+दधातु एकीभावेन धारयतु।

    हे विश्वेदेवासः ! सर्वे विद्वांसः ! इमम्=एतं समक्षं विज्ञानयज्ञम् अरिष्ट रिष्यते हिस्यते यः स रिष्टो न रिष्टोऽरिष्टस्तं यज्ञं] यत्रद्वयम् अस्या- भिरनुष्ठातुमर्ह सन्तन्य संधाय च इह अस्मिन् संसारे हृदये वा मादयन्तां हृषन्तु'

    हे [ओ३म्]=ओंकारवाच्य बृहस्पतये ईश्वर-वाचको यज्ञो वेदविद्या वा! त्वमिह अस्मिन् संसारे हृदये वा प्रतिष्ठ (प्रतिष्ठति वा), कृपयेमं यज्ञं विद्यां च प्रतिष्ठामय ॥ २।१३॥

    पदार्थः

    (मनः) मननशीलं ज्ञानसाधनम् (जूतिः) वेगेन व्याप्तिकर्म । ऊतियूतिजूति० ॥ अ० ३।३।९७ ॥ अनेन निपातितः (जुषताम् ) प्रीत्या सेवताम् (आज्यस्य) यज्ञसामग्रीम् । सुपां सुलुगिति द्वितीयास्थाने षष्ठी (बृहस्पतिः) बृहतां प्रकृत्याकाशादीनां पति:=पालको जगदीश्वरः । तद् बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च ॥६।१।१५७ ॥ अनेन वार्त्तिकेन बृहस्पतिशब्दो निपातितः (यज्ञम्) संसाराख्यम् (इमम् ) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं सुखभोगहेतुम् (तनातु) विस्तारयतु (अरिष्टम्) रिष्यते=हिंस्यते यः स रिष्टो न रिष्टोऽरिष्टस्तम् (यज्ञम् ) अस्माभिरनुष्ठातुमर्हम् (सम्) एकीभावे क्रियायोगे (इमम्) समक्षं विज्ञानयज्ञम् (दधातु) धारयतु (विश्वेदेवासः) सर्वे विद्वांसः । अत्र जसेरसुगागमः (इह) अस्मिन् संसारे हृदये वा (मादयन्ताम् ) हृषन्तु (ओम्) ईश्वरवाचको यज्ञो वेदविद्या वा ॥ ओ३म् खं ब्रह्म ॥ यजुः॰ ४० । १७ ॥ अत्र । अवतेष्टिलोपश्च ॥ उ०१। १४२ ॥ अनेनाऽवधातोर्मन् प्रत्ययोऽस्य टिलोपश्च (प्रतिष्ठ) प्रतिष्ठति वा अत्रान्त्यपक्षे व्यत्ययो लडर्थे लोट् च ॥ अयं मंत्रः श० * १ । ७ । ४ । २२॥ व्याख्यातः ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    [मम जूतिर्मन प्राज्यस्य जुष्ताम्]

    ईश्वर आज्ञापयति--हे मनुष्याहे युष्मन्यनः सत्कर्माण्येव प्राप्नोतु । ।

     

    [हे विश्वेदेवासः! इमम्=एतमरिष्टं मया यो तमेवानुष्ठाय [यज्ञं]=यज्ञद्वयं सन्तन्य संधाय चहे मादयन्ताम्]

    मया योऽयं संसारे यज्ञः२ कर्तुमाज्ञाप्यते सुखिनो भवन्तु, भावयन्तु वा ।

     

    [हे [ओ३म] ओंकारवाच्य ! ]

    ओमिति परमेश्वरस्यैव नाम, यथा पितापुत्रयोः प्रियः सम्बन्धस्तथैवेश्वरेण सहोंकारस्य सम्बन्धो अस्ति।

    .

    Footnote हृष्यन्तु। २. यमिमं संसारे यजं ।

     

    [बृहस्पते ! त्वमिह प्रतिष्ठ, कृपयेमं यज्ञं विद्यां च प्रतिष्ठापय]

    नैव कस्यचित् सत्क्रियया विना प्रतिष्ठा भवितुमर्हति, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैः सर्वथाऽधर्मं विहाय धर्मकार्याण्येव सेवनीयानि, यतः खल्वविद्यान्धकारनिवृत्तये विद्यार्क: प्रकाशेत ।

    [मन्त्रसंगतिमाह--]

    द्वादशमन्त्रेण यो यज्ञः प्रकाशितस्तस्यानुष्ठानेन सर्वेषां प्रतिष्ठासुखे भवत इत्यनेन प्रकाशितम् ॥ ॥२।१३॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः । बृहस्पतिः=ईश्वरः ॥ विराड् जगती । निषादः ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    जिससे यज्ञ किया जा सकता है, सो विषय अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥

    पदार्थ

    (जूतिः) अपने वेग से सब जगह जाने वाला (मनः) विचारवान् ज्ञान का साधन मेरा मन (आज्यस्य) यज्ञ की सामग्री का (जुषताम्) सेवन करे (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े जो प्रकृति और आकाश आदि पदार्थ हैं, उनका जो पति अर्थात् पालन करने हारा ईश्वर है, वह (इमम्) इस प्रकट और अप्रकट (अरिष्टम्) अहिंसनीय (यज्ञम्) सुखों के भोगरूपी यज्ञ को (तनोतु) विस्तार करे तथा (इमम्) इस (अरिष्टम्) जो छोड़ने योग्य नहीं (यज्ञम्) जो हमारे अनुष्ठान करने योग्य विज्ञान की प्राप्तिरूप यज्ञ है, इस को (संदधातु) अच्छी प्रकार धारण करावे। हे (विश्वे देवासः) सकल विद्वान् लोगो! तुम इन पालन करने योग्य दो यज्ञों का धारण वा विस्तार करके (इह) इस संसार वा अपने मन में (मादयन्ताम्) आनन्दित होओ। हे (ओ३म्) ओंकार के अर्थ जगदीश्वर! आप (बृहस्पतिः) प्रकृत्यादि के पालन करने हारे (इह) इस संसार वा विद्वानों के हृदय में (प्रतिष्ठ) कृपा करके इस यज्ञ वा वेदविद्यादि को स्थापन कीजिये॥१३॥

    भावार्थ

    ईश्वर आज्ञा देता है कि हे मनुष्यो! तुम्हारा मन अच्छे ही कामों में प्रवृत्त हो तथा मैंने जो संसार में यज्ञ करने की आज्ञा दी है, उसका उक्त प्रकार से यथावत् अनुष्ठान् करके सुखी हो तथा औरों को भी सुखी करो। (ओम्) यह परमेश्वर का नाम है, जैसे पिता और पुत्र का प्रिय सम्बन्ध है, वैसे ही परमेश्वर के साथ (ओम्) ओंकार का सम्बन्ध है, तथा अच्छे कामों के बिना किसी की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, इसलिये सब मनुष्यों को सर्वथा अधर्म छोड़कर धर्म कामों का ही सेवन करना योग्य है, जिससे संसार में निश्चय करके अविद्यारूपी अन्धकार निवृत्त होकर विद्यारूपी सूर्य्य प्रकाशित हो। बारहवें मन्त्र से जिस यज्ञ का प्रकाश किया था, उसके अनुष्ठान से सब मनुष्यों की प्रतिष्ठा वा सुख होते हैं, यह इस में प्रकाशित किया है॥१३॥

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    विषय

    जिससे यज्ञ किया जा सकता है, उस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    मेरा (जूतिः) अत्यन्त वेग से कर्मों  में व्यापत होने वाला (मनः) मननशील, ज्ञानप्राप्ति का साधन मन (आज्यस्य) यज्ञ-सामग्री का (जुषताम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करे।

    (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े प्रकृति और आकाश आदि का रक्षक जगदीश्वर जिस (इमम्) प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप सुखभोग के नियम (यज्ञम्) संसार का जो यज्ञ (अरिष्टम्) नाश-रहित है, (तनोतु) उसका विस्तार करे वा (सम्+दधातु) एकता के भाव से धारण करे।

    हे (विश्वेदेवासः!) सब विद्वानो! (इमम्) प्रत्यक्ष जो ज्ञान-यज्ञ है वह (अरिष्टम्) विनाश-रहित तथा (यज्ञम्) हमारे द्वारा अनुष्ठान करने योग्य है। इस प्रकार के विनाश-रहित एवं हिंसा-शून्य दोनों यज्ञों का विस्तार और एकीभाव से धारण करके (इह) इस संसार में अथवा अपने हृदय में (मादयन्ताम्) सदा आनन्दित रहो।

     हे (ओ३म्!) ओंकार-वाच्य (बृहस्पते) ईश्वर नामक यज्ञ वा वेदविद्या! तू (इह) इस संसार वा मेरे हृदय में (प्रतिष्ठ) प्रतिष्ठित हो एवं कृपा करके इस यज्ञ वा वेदविद्या को स्थापित कीजिए॥२।१३॥

    भावार्थ

    ईश्वर आज्ञा देता है--हे मनुष्यो! तुम्हारा मन शुभ कर्मों को ही प्राप्त हो।

    मैं इस संसार में जिस यज्ञ को करने के लिये आज्ञा देता हूँ उसी का अनुष्ठान करके स्वयं सुखी रहो तथा अन्यों को भी सुखी करो।

    ओ३म्यह परमेश्वर का ही नाम है। जैसे पिता और पुत्र का प्रिय सम्बन्ध है वैसे ही ईश्वर के साथ ओंकारका सम्बन्ध है।

    शुभ कर्म के बिना किसी की भी प्रतिष्ठा (सम्मान) नहीं हो सकती, इसलिये सब मनुष्य सब काल में अधर्म को छोड़ कर वे धर्म-कार्यों का ही सेवन करें, जिससे निश्चय ही अविद्या अन्धकार की निवृत्ति होकर विद्या का सूर्य चमक सके।

    बारहवें मन्त्र के द्वारा जिस यज्ञ का उपदेश किया गया है उसके अनुष्ठान से सबको प्रतिष्ठा और सुख प्राप्त होते हैं, यह इस मन्त्र के द्वारा प्रकाशित किया गया है॥२॥१३॥

    भाष्यसार

    यज्ञ--ज्ञान का साधन मन है, जो वेगवान् होने से कर्मों को शीघ्र व्याप्त कर लेता है, वहमन यज्ञादि शुभ कर्मों को प्राप्त करे। संसार एक यज्ञ है जो सब प्रकार के सुख भोगों को हेतु एवं हिंसारहित है। प्रकृति एवं आकाश आदि के पालक बृहस्पति जगदीश्वर ने इस संसार रूप यज्ञ का विस्तार किया है वही एक मात्र इसकोधारण कर रहा है। विज्ञान भी एक यज्ञ है जो हिंसा से रहित है। विद्वान् लोग संसार यज्ञ का संसार में विस्तार करे तथा विज्ञान यज्ञ को हृदय में धारण करके सदा प्रसन्न रहते हैं।

    ईश्वर प्रार्थना--हे ईश्वर! आप कृपा करके संसार में यज्ञ को प्रतिष्ठित कीजिए तथा वेदविद्या को हृदय में प्रकाशित कीजिए॥२।१३॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। बृहस्पतिः=ईश्वरः॥  विराड् जगती।  निषादः॥

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    विषय

    ओम् का प्रतिष्ठापन

    पदार्थ

    १. इस सृष्टि-यज्ञ में हमें बृहस्पति और ब्रह्मा बनना है। ( मनः ) = मेरा मन ( जूतिः ) = वेग का ( जुषताम् ) = सेवन करे। मेरा मन संकल्परूप क्रिया से शून्य न हो। वेगशून्य मन से मैं इस जीवन-यात्रा को क्या पूरा कर पाऊँगा, क्या बृहस्पति और ब्रह्मा बनूँगा ? 

    २. मेरा मन ( आज्यस्य ) = घृत—ज्ञान-दीप्ति का ( जुषताम् ) = सेवन करे। 

    ३. ( बृहस्पतिः ) = विशाल हृदय का पति बनकर मनुष्य ( इमम् ) = इस ( अरिष्टम् ) = हिंसा से बचानेवाले ( यज्ञम् ) = यज्ञ को ( तनोतु ) = विस्तृत करे। जब मनुष्य अपने हृदय को विशाल बनाता है और प्राणिमात्र को अपनी ‘मैं’ में सम्मिलित कर लेता है तब उसकी वृत्ति यज्ञिय बनती है। यह यज्ञिय वृत्ति मनुष्य को अहिंसित रखती है। यज्ञ से विपरीत भोग या विलास की वृत्ति उसे विनाश की ओर ले-जाती है। इसलिए इस विशाल हृदय मनुष्य को चाहिए कि ( इमं यज्ञम् ) = इस यज्ञ की भावना को ( सन्दधातु ) = सम्यक्तया धारण करे।

    ४. ( इह ) = इस यज्ञिय वृत्तिवाले मनुष्य के अन्दर ( विश्वे देवासः ) = सब देव ( मादयन्ताम् ) =  हर्षपूर्वक निवास करें, अर्थात् इस व्यक्ति के जीवनोद्यान में दिव्य गुणरूप पुष्प सदा खिले हुए हों। जितना-जितना इस व्यक्ति में दिव्य गुणों का विकास होगा, उतना-उतना ही यह व्यक्ति प्रभु के आतिथ्य के लिए तैयार हो जाएगा। अब दिव्य गुणों के विकास के पश्चात् कहते हैं कि— 

    ५. ( ओ३म् ) = हे सर्वरक्षक प्रभो! ( प्रतिष्ठ ) = आप अब इस व्यक्ति के हृदय-मन्दिर में प्रतिष्ठित हो जाइए। जिस प्रकार किसी महान् व्यक्ति को आना हो तो उससे पूर्व उसके निचले व्यक्ति आ जाते हैं और उसके आने के लिए उसके सारे वातावरण को तैयार कर देते हैं। इसी प्रकार यहाँ देव उपस्थित होकर उस महादेव के आने के लिए सब सम्भारों को जुटा देते हैं। हृदय-मन्दिर में ब्रह्म का स्थापन करनेवाला ही ब्रह्मा है।

    भावार्थ

    भावार्थ — मेरा मन क्रियाशून्य न हो, प्रतिक्षण ज्ञान का अर्जन करे। मैं बृहस्पति = विशाल हृदय बनकर अहिंसक यज्ञ का सेवन करूँ। मेरे जीवन में सब दिव्य गुणों का विकास हो जिससे मेरा हृदय प्रभु की प्रतिष्ठा के योग्य बन जाए। मेरे हृदय-मन्दिर में प्रभु की प्रतिष्ठा हो और मैं ब्रह्मा नामवाला बनूँ। यही तो उत्तम सात्त्विक गुणों में भी सर्वप्रथम स्थान में स्थित होना है।

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    विषय

    विद्वान् पुरुष का यज्ञ सम्पादन ।

    भावार्थ

    ( जूतिः ) अति वेगवान्, वेग से समस्त कार्यों में लगने वाला अथवा उत्तम ज्ञानयुक्त, सावधान ( मनः ) मन, ज्ञानसाधन, अन्तःकरण ( आज्यस्य ) आज्य, ज्ञान-यज्ञ के योग्य समस्त साधनों को ( जुषताम् ) सेवन करे, अभ्यास करे । ( बृहस्पतिः ) वेदवाणी का परिपालक या बृहत् महान् राष्ट्र का पालक विद्वान् ( यज्ञम् इमम् ) इस यज्ञ को ( तनोतु ) सम्पादन करे । वही विद्वान् ब्रह्मवित् ( इमम् ) इस (अरिष्ट) अहिंसित हिंसारहित, एवं विघ्न रहित ( यज्ञम् ) यज्ञ को ( सम् दधातु ) उत्तम रीति से धारण करे, उस में विघ्न और विच्छेद होने पर भी उसको भली प्रकार जोड़ दे । ( इह ) इस लोक में राज्य में और यज्ञ में (विश्वे ) समस्त ( देवासः ) देवगण, विद्वान् पुरुष (मादयन्ताम् ) हर्षित हों, प्रसन्न रहें, आनन्द लाभ करें । ( ओ३म् ) हे ब्रह्मन् विद्वन् ! ( प्रति-स्थ ) तू प्रस्थान कर, प्रयाण कर, विजय लाभ कर ॥ शत० १ । ७ । ४ । २२ ॥ 

    टिप्पणी

    १३ ' ० मनोज्वोति ०' इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः ।
    बृहस्पतिराङ्गिरस ऋषिः । बृहस्पतिर्विश्वेदेवाश्च देवताः ॥

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    विषय

    प्रभो ! हृदय में निवास करो

    शब्दार्थ

    हे मनुष्य (जूति: मनः) अत्यन्त वेगवान् मन (आज्यस्य) दिव्य ज्ञान का (जुषताम्) सेवन करे (बृहस्पतिः) विद्वान् (इमं यज्ञम्) तेरे इस जीवन-यज्ञ को (तनोति) सम्पन्न करे। ज्ञानी लोग (इमम्) इस (अरिष्टम्) कल्याणकारक (यज्ञम्) जीवन-यज्ञ की (सम् दधातु) अच्छी प्रकार देखभाल करें । (इह) इस शरीर में (विश्वे देवासः) सारी दिव्य शक्तियाँ, इन्द्रियाँ (मादयन्ताम्) आनन्द में रहें, हर्ष और उल्लासयुक्त रहें । (ओ३म्) हे सर्वरक्षक ईश्वर ! आप (प्रतिष्ठ) उपासक के हृदय में निवास करो ।

    भावार्थ

    प्रत्येक मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है । उसकी प्राप्ति के लिए - १. हमारा मन सदा दिव्य ज्ञान का सेवन करता रहे । २. ज्ञानाधिपति बनकर हम अपने जीवन-यज्ञ को सम्पन्न करें । ३. ज्ञानी लोग हमारी दिनचर्या की देखभाल करते रहें और हमें सुपथ पर चलाते रहें । ४. हमारी इन्द्रियाँ प्रसन्न हों, आनन्द और हर्ष में मग्न रहें । ऐसी स्थिति होने पर जीवात्मा ओ३म् में - सर्वरक्षक परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। अथवा परमात्मा उपासक के हृदय में निवास करने लगता है । हमें अपने जीवनों को दिव्य बनाते हुए ‘ओ३म्’ में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वर आज्ञा देतो की हे माणसांनो ! तुमचे मन सत्कर्माकडे प्रवृत्त व्हावे यासाठी मी यज्ञ करण्याची आज्ञा दिलेली आहे. वरील विधीनुसार त्याचे अनुष्ठान करून सुखी व्हावे व इतरांनाही सुखी करावे. ओ३म् हे परमेश्वराचे नाव आहे. ज्याप्रमाणे पिता व पुत्राचा प्रेमाचा संबंध असतो त्याप्रमाणेच परमेश्वर व ओ३म चा संबंध आहे. सत्कर्माशिवाय कुणालाही प्रतिष्ठा प्राप्त होत नाही. सर्व माणसांनी नेहमी अधर्माचा त्याग करून धार्मिक कार्य अंगीकारले पाहिजे. त्यामुळे जगात निश्चितपणे अविद्यारूपी अंधकार नष्ट होऊन विद्यारूपी सूर्याचा उदय होईल. बाराव्या मंत्रात यज्ञासंबंधी जे वर्णन केलेले आहे त्याच्या अनुष्ठानाने सर्व माणसांना प्रतिष्ठा व सुख प्राप्त होते. या मंत्रात हेच विशद केलेले आहे.

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    विषय

    ज्याने यज्ञ केला जातो, त्याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (जूति:) वेगाने सर्वत्र जाणारे (मन:) विचार आणि ज्ञानाचे साधन माझे हे मन (उगज्यस्य) यज्ञसामग्रीचे (जुषताम्) सेवन करो (चंचल स्वभावामुळे यत्र तत्र विचलित होणारे मन यज्ञानुष्ठानाकडे केंद्रित होवो) (बृहस्पति:) महान् प्रकृती आणि विशाल आकाशादी पदार्थांचा जो स्वामी आणि पालक तो परमेश्‍वर, (इमम्) या प्रकट आणि अप्रकट (अरिष्टम्) ज्यात हिंसा करू नये अशा (यज्ञम्) सुख सुखभोगरूप यज्ञाचा (तनोतु) विस्तार करी (त्याच्या कृपेने यज्ञाची वृद्धी होवो) (इमम्) या (अरिष्टम्) ज्याचा कधी त्याग करूं नये अशा (यज्ञम्) अनुष्ठान करण्यास व विज्ञानाची प्राप्ती करून देण्यास समर्थ अशा यज्ञाचा परमेश्‍वर (संदधातु) उत्तम प्रकारे धारण करो. (यज्ञ निर्विघ्न होवो) हे (विश्‍वदेवासी) समस्त विद्वज्जनहो, तुम्ही करणीय व पालनीय अशा या दोन यज्ञाचे अनुष्ठान आणि विस्तार करून (इह) या संसारात अथवा आपल्या मनात (मादयन्ताम्) आनन्दित राहा (ओइम्) ओंकार या स्व नामाने सम्बोधित हे जगदीश्‍वर आपण (बृहस्पति:) महान् प्रकृती आदींचे पालनकर्ता आहात. कृपा करून (इह) या संसारात अथवा विद्वांनांच्या हृदयात (प्रतिष्ठ) या यज्ञाची, तसेच वेदविद्येची स्थापना करा. (विद्वज्जनांनी कधीही यज्ञानुष्ठान आणि वेदपठन या कार्यास सोडूं नये, असे करा) ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वर आदेश देत आहे की हे मनुष्यांनो, तुमचे मन श्रेष्ठ कर्माकडे प्रवृत्त होवो. संसारात यज्ञ करण्याची मी तुम्हाला जी आज्ञा केली आहे, त्याप्रमाणे वर्णित यथोचित रीतीने तुम्ही यज्ञाचे अनुष्ठान करून स्वत: सुखी व्हा आणि इतरांनाही सुखी करा. (ओम्) हे परमेश्‍वराचे नाव आहे. ज्याप्रमाणे पुत्राचा आणि जनकाचा प्रिय सबंध आहे, त्याप्रमाणे परमेश्‍वराचा आणि (ओम्) ओंकार नामाचा संबंध आहे. सत्कर्म केल्याशिवाय जगात कोणालाही प्रतिष्ठा प्राप्त होत नाही, याकरिता सर्व मनुष्यांसाठी हेच उचित की त्यांनी सर्वथा अधर्माचा त्याग करावा आणि धर्मकार्यांचा स्वीकार करावा, की ज्यायोगे, जगात अविद्यारूप अंधकाराचा निश्‍चयाने नाश होईल आणि विद्यारूप सूर्याचा प्रकाश सर्वत्र पसरेल. बाराव्या मंत्रामध्ये ज्या यज्ञाविषयी प्रकाश टाकला आहे, त्याच्या अनुष्ठानामुळे सर्व मनुष्यांना प्रतिष्ठा आणि सुख मिळू शकेल, हाच उपदेश मंत्रात केला आहे. ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my active mind enjoy the yajnas provisions. May God expand and preserve this unabandonable acquisition of knowledge, which is a kind of yajna. May all the learned persons in the world rejoice. May Om be seated in our hearts.

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    Meaning

    The mind is fast, instant in motion. May my mind benefit from the offerings of yajna. May Brihaspati, Lord of the wide world, expand the yajna of existence. May the Lord sustain this yajna of ours in love and peace without violence. May the powers of nature be ever fresh, may all good people ever rejoice by yajna. Be firm by Om, the voice of existence, the Eternal Word, the very name of the Divine. Om and yajna is our haven. Let it be so in our heart.

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    Translation

    Let the swift-moving mind enjoy the oblations of melted butter. May the Lord supreme expand this sacrifice and may He get it completed unimpaired. May all the bounties of Nature rejoice here. О Lord Om, may you ever be with us. (1)

    Notes

    Jutih, swift-moving; the mind moves fast into past, present and future. Visve devasah, all the bounties of Nature. Om, the sacred mystic syllable. Sometimes it may mean 'yes’, ‘be it so’, and ‘Amen’.

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    बंगाली (1)

    विषय

    য়েন য়জ্ঞঃ কর্তুং শক্যস্তদুপদিশ্যতে ॥
    যাহার দ্বারা যজ্ঞ করা যাইতে পারে, সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশিত করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (জূতিঃ) নিজস্ব বেগ দ্বারা সর্ব স্থানে গমন কারী (মনঃ) বিচারশীল জ্ঞানের সাধন আমার মন (আজ্যস্য) যজ্ঞের সামগ্রীর (জুষতাম্) সেবন করিবে (বৃহস্পতিঃ) বড় বড় যে প্রকৃতি ও আকাশাদি পদার্থ তাহাদিগের যে পতি অর্থাৎ পালনকারী ঈশ্বর তিনি (ইমম্) এই প্রকট ও অপ্রকট (অরিষ্টম্) অহিংসনীয় (য়জ্ঞম্) সুখভোগরূপী যজ্ঞকে বিস্তার করিবেন তথা (ইমম্) এই (অরিষ্টম্) যাহা ত্যাগ করিবার যোগ্য নহে (য়জ্ঞম্) যাহা আমাদের অনুষ্ঠান করিবার যোগ্য বিজ্ঞানের প্রাপ্তিরূপ যজ্ঞ, ইহাকে (সংদধাতু) ভাল প্রকার ধারণ করাইবেন । হে (বিশ্বেদেবাসঃ) সকল বিদ্বান্গণ ! আপনারা এই পালন করিবার যোগ্য দুইটি যজ্ঞের ধারণ বা বিস্তার করিয়া (ইহ) এই সংসার বা নিজের মনে (মাদয়ন্তাম্) আনন্দিত হউন । হে (ও৩ম্) ওঁকারের অর্থ জগদীশ্বর ! আপনি (বৃহস্পতিঃ) প্রকৃত্যাদির পালনকারী (ইহ) এই সংসার বা বিদ্বান্দিগের হৃদয়ে (প্রতিষ্ঠ) কৃপা করিয়া এই যজ্ঞ বা বেদবিদ্যাদি স্থাপন করুন ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ঈশ্বর আজ্ঞা প্রদান করিতেছেন যে, হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের মন উত্তম কাজেই প্রবৃত্ত হউক, তথা আমি যে সংসারে যজ্ঞ করার আজ্ঞা দিয়াছি তাহার উক্ত প্রকারে যথাবৎ অনুষ্ঠান করিয়া সুখী হও তথা অন্যকেও সুখী কর । (ওম্) ইহা পরমেশ্বরের নাম যেমন পিতা ও পুত্রের প্রিয় সম্পর্ক সেইরূপই পরমেশ্বর সহ (ওম্) ওঙ্কারের সম্পর্ক এবং ভাল কর্ম ব্যতিরেকে কাহারও প্রতিষ্ঠা হইতে পারে না । এইজন্য সকল মনুষ্যকে সর্বথা অধর্ম ত্যাগ করিয়া ধর্ম কার্য্যেরই সেবন করা উচিত যাহাতে সংসারে নিশ্চয়পূর্বক অবিদ্যারূপী অন্ধকার নিবৃত্ত হইয়া বিদ্যারূপী সূর্য্য প্রকাশিত হয় । দ্বাদশ মন্ত্রের দ্বারা সকল মনুষ্যের প্রতিষ্ঠা বা সুখ হয় তাহাই ইহাতে প্রকাশিত হইয়াছে ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মনো॑ জূ॒তির্জু॑ষতা॒মাজ্য॑স্য॒ বৃহ॒স্পতি॑র্য়॒জ্ঞমি॒মং ত॑নো॒ত্বরি॑ষ্টং য়॒জ্ঞꣳ সমি॒মং দ॑ধাতু । বিশ্বে॑ দে॒বাস॑ऽই॒হ মা॑দয়ন্তা॒মো৩ম্প্র তি॑ষ্ঠ ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মনোজূতিরিত্যস্য ঋষিঃ স এব । বৃহস্পতির্দেবতা । বিরাড্ জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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