यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 30
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
195
ये रू॒पाणि॑ प्रतिमु॒ञ्चमा॑ना॒ऽअसु॑राः॒ सन्तः॑ स्व॒धया॒ चर॑न्ति। प॒रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ ये भर॑न्त्य॒ग्निष्टाँल्लो॒कात् प्रणु॑दात्य॒स्मात्॥३०॥
स्वर सहित पद पाठये। रू॒पाणि॑। प्र॒ति॒मु॒ञ्चमा॑ना॒ इति॑ प्रतिऽमुञ्चमा॑नाः। असु॑राः। सन्तः॑। स्व॒धया॑। चर॑न्ति। प॒रा॒पुर॒ इति॑ परा॒ऽपुरः॑। नि॒ऽपुर॒ इति॑ नि॒पुरः॑। ये। भर॑न्ति। अ॒ग्निः। तान्। लो॒कात्। प्र। नु॒दा॒ति॒। अ॒स्मात् ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाऽअसुराः सन्तः स्वधया चरन्ति । परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान्लोकात्प्र णुदात्यस्मात् ॥
स्वर रहित पद पाठ
ये। रूपाणि। प्रतिमुञ्चमाना इति प्रतिऽमुञ्चमानाः। असुराः। सन्तः। स्वधया। चरन्ति। परापुर इति पराऽपुरः। निऽपुर इति निपुरः। ये। भरन्ति। अग्निः। तान्। लोकात्। प्र। नुदाति। अस्मात्॥३०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
कीदृग्लक्षणास्तेऽसुरा भवन्तीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अग्निरीश्वरो ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति, ये च पुरापुरो निपुरः सन्तोऽन्यायेन परपदार्थान् भरन्ति धरन्ति, तानस्माल्लोकात् प्रणुदाति दूरीकरोतु॥३०॥
पदार्थः
(ये) मनुष्याः (रूपाणि) अन्तःस्थानि ज्ञानमध्ये यादृशानि ज्ञानानि सन्ति तानि (प्रतिमुञ्चमानाः) आभिमुख्यं ये प्रतीतं मुञ्चन्ते त्यजन्ति ते (असुराः) धर्म्माच्छादकाः (सन्तः) वर्त्तमानाः (स्वधया) पृथिव्या सह। स्वधे इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम् (निघं॰३.३०) (चरन्ति) वर्त्तन्ते (परापुरः) परागतानि स्वसुखार्थान्यधर्मकार्य्याणि पिपुरति ते (निपुरः) निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति पूरयन्ति ते। अत्रोभयत्र क्विप् (ये) स्वार्थसाधनतत्पराः (भरन्ति) अन्यायेन परपदार्थान् धरन्ति (अग्निः) जगदीश्वरः। युष्मत्ततक्षुष्वन्तः पादम् (अष्टा॰८.३.१०३) अनेन मूर्द्धन्यादेशः (तान्) दुष्टान् (लोकात्) स्थानादस्मद्दर्शनाद्वा (प्रणुदाति) दूरीकरोतु (अस्मात्) प्रत्यक्षात्॥ अयं मन्त्रः (शत॰२.४.२.१४-१८)॥३०॥
भावार्थः
ये दुष्टा मनुष्या मनोदेहवाग्भिर्मिथ्या चरित्वा पृथिव्यामन्यायेनान्यान् प्राणिनः पीडयित्वा स्वसुखाय परपदार्थान् सञ्चिन्वन्ति। ईश्वरस्तान् दुःखयुक्तान् मनुष्येतरनीचशरीरधारिणः कृत्वा, तेषु पापफलानि भुक्त्वा पुनर्मनुष्यदेहधारणे योग्यान् करोति। अतो मनुष्यैरीदृशेभ्यो मनुष्येभ्यः पापकर्मभ्यो वा पृथक् स्थित्वा सदैव धर्म एव
विषयः
कीदृग्लक्षणास्तेऽसुरा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
अग्निः=ईश्वरोजगदीश्वरो ये मनुष्या रूपाणि अन्तःस्थानि ज्ञानमध्ये यादृशानि ज्ञानानि सन्ति तानि प्रतिमुञ्चमाना मुञ्चन्त आभिमुख्यं ये प्रतीत मुञ्चन्ते=त्यजन्ति ते असुरा धर्माऽच्छादकाः सन्तो वर्त्तमानाः स्वधया पृथिव्या सह चरन्ति वर्त्तन्ते,
ये स्वार्थासाधनतत्पराः च परापुरः परागतानि स्वसुखार्थान्यधर्मकार्याणि पिपुरति ते निपुरो निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति=पूरयन्ति ते सन्तोऽन्यायेन परपदार्थान् भरन्ति=धरन्ति अन्यायेन परपदार्थान् धरन्ति, तान् दुष्टान् अस्मात् प्रत्यक्षात् लोकात् स्थानादस्मद्दर्शनाद्वा प्र+णुदाति-दूरीकरोतु ॥ २। ३० ॥
पदार्थः
(ये) मनुष्याः (रूपाणि) अन्तःस्थानि ज्ञानमध्ये यादृशानि ज्ञानानि सन्ति (प्रतिमुञ्चमानाः) मुञ्चन्त आभिमुख्यं ये प्रतीतं मुञ्चन्ते त्यजन्ति ते (असुराः) धर्माच्छादकाः (सन्तः) वर्त्तमानाः (स्वधया) पृथिव्या सह । स्वधे इति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम् ॥ निघं० ३ । ३० ॥ (चरन्ति) वर्त्तन्ते (परापुरः) परागतानि स्वसुखार्थान्यधर्मकार्याणि पिपुरति ते (निपुरः) निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति पूरयन्ति ते । अत्रोभयत्र क्विप् (ये) स्वार्थसाधनतत्पराः (भरन्ति) अन्यायेन परपदार्थान् धरन्ति (अग्निः) जगदीश्वरः । युष्मत्ततक्षुष्वन्तः पादम् ॥ अ० ८ । ३ । १०३ ॥ अनेन मूर्धन्यादेशः (तान्) दुष्टान् (लोकात्) स्थानादस्मद्दर्शनाद्वा (प्रणुदाति) दूरीकरोतु (अस्मात्) प्रत्यक्षात् ॥ अयं मंत्रः श० २।४।२।१५ व्याख्यातः ॥ ३० ॥
भावार्थः
[ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति,....ये......अन्यायेन परपदार्थान भरन्ति=धरन्ति]
ये दुष्टा मनुष्या मनोदेहवाग्भिर्मिथ्या चरित्वा पृथिव्यामन्यायेन प्राणिनः पीडयित्वा स्वसुखाय परपदार्थान् सञ्चिन्वन्ति ।
[अग्निः= ईश्वरो.....तान्स्माल्लोका अणुदाति=दूरीकरोतु]
ईश्वरस्तान् दुःखयुक्तान् मनुष्येतरनीचशरीरधारिणः कृत्वा येषु पापफलानि भुक्त्वा देहधारणे योग्यान् करोति ।
[तात्पर्यमाह--]
अतो मनुष्यैरीदृशेभ्यो मनुष्येभ्यः पापकर्मभ्यो वा पृथक् स्थित्वा सदैव धर्म एक सेवनीय इति ॥२। ३० ॥
भावार्थ पदार्थः
असुरा:=दुष्टा मनुष्याः। भरन्ति=संचिन्वन्ति ।
विशेषः
वामदेवः । अग्निः=ईश्वरः ॥ भूरिक् पंक्तिः। पंचमः ॥
हिन्दी (5)
विषय
उक्त असुर कैसे लक्षणों वाले होते हैं सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥
पदार्थ
(ये) जो दुष्ट मनुष्य (रूपाणि) ज्ञान के अनुकूल अपने अन्तःकरणों में विचारे हुए भावों को (प्रतिमुञ्चमानाः) दूसरे के सामने छिपा कर विपरीत भावों के प्रकाश करने हारे (असुराः) धर्म को ढाँपते (सन्तः) हैं। (स्वधया) पृथिवी में जहाँ-तहाँ (चरन्ति) जाते-आते हैं तथा जो (परापुरः) संसार से उलटे अपने सुखकारी कामों को नित्य सिद्ध करने के लिये यत्न करने (निपुरः) और दुष्ट स्वभावों को परिपूर्ण करने वाले (सन्तः) हैं अर्थात् जो अन्याय से औरों के पदार्थों को धारण करते हैं, (तान्) उन दुष्टों को (अग्निः) जगदीश्वर (अस्मात्) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोक से (प्रणुदाति) दूर करे॥३०॥
भावार्थ
जो दुष्ट मनुष्य अपने मन, वचन और शरीर से झूठे आचरण करते हुए अन्याय से अन्य प्राणियों को पीड़ा देकर अपने सुख के लिये औरों के पदार्थों को ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर उन को दुःखयुक्त करता है और नीच योनियों में जन्म देता है कि वे अपने पापों के फलों को भोग के फिर भी मनुष्य देह के योग्य होते हैं। इस से सब मनुष्यों को योग्य है कि ऐसे दुष्ट मनुष्य वा पापों से बचकर सदैव धर्म का ही सेवन किया करें॥३०॥
भाषार्थ
(अग्नि) जगदीश्वर (ये) जो मनुष्य (रूपाणि) अन्तःकरण में जैसा ज्ञान है उसका (प्रतिमुञ्चमानाः) दूसरे के सामने परित्याग करने वाले (असुराः) धर्म का लोप करने वाले असुर (सन्तः) बन कर (स्वधया) पृथिवी पर (चरन्ति) रहते हैं,
(ये च) और जो स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए (परापुरः) अपने सुख के लिये अधर्म के कार्यों को पूरा करने वाले (निपुरः) नीच, दुष्टस्वभाव वाले जनों की सहायता करने वाले अन्याय से दूसरों के पदार्थों को (भरन्ति) हड़प कर लेते हैं, (तान्) उन दुष्ट लोगों को (अस्मात्) इस (लोकात्) स्थान से अथवा हमारी नजर से (प्रणुदाति) दूर कर देवे॥२।३०॥
भावार्थ
जो दुष्ट मनुष्य मन, शरीर और वाणी से मिथ्या व्यवहार करके पृथिवी पर अन्याय से प्राणियों को पीड़ा पहुँचा कर अपने सुख के लिये पर-पदार्थों का संग्रह करते हैं।
ईश्वर उनकी दुःख युक्त, मनुष्य से भिन्न नीच शरीरधारी बनाकर, जिनमें पाप-फलों को भोगकर, फिर उन्हें मनुष्य देह धारण करने के योग्य बनाता है।
इसलिये सब मनुष्य, ऐसे मनुष्यों सेवा पाप-कर्मों से पृथक् रहकर सदा धर्म का ही सेवन करें॥२।३०॥
भाष्यसार
१. असुर का लक्षण--हृदय में जैसा ज्ञान हैउसका परित्याग करके, मन, शरीर और वाणी से मिथ्या आचरण करने वाले, धर्म को तिरोहित करने वाले, स्वार्थ साधन में तत्पर, अपने सुख के लिये अधर्म-कार्यों को भी पूरा करने वाले वाले दुष्ट स्वभाव वाले पुरुषों का पालन-पोषण करने वाले, अन्याय से पर पदार्थों को हड़पकरने वाले लोग असुर कहाते हैं।
२. हे अग्ने=जगदीश्वर! आप जो अपने ज्ञान के विरुद्ध आचरण करने वाले असुर लोग हैं उन्हें इस लोक से अथवा हमारी आंखों के आगे से दूर कर दीजिए॥
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
पदार्थः महर्षि दयानन्द
(ये) जो मनुष्य (रूपाणि) ज्ञान के अनुकूल अपने अन्तःकरणों में विचारे हुए भावों को (प्रतिमुञ्चमानाः) दूसरे के सामने छिपा कर विपरीत भावों के प्रकाश करने हारे (असुराः) धर्म को ढाँपते (सन्तः) हैं। (स्वधया) पृथिवी में जहाँ-तहाँ (चरन्ति) जाते-आते हैं तथा जो (परापुरः) संसार से उलटे अपने सुखकारी कामों को नित्य सिद्ध करने के लिये यत्न करने (निपुरः) और दुष्ट स्वभावों को परिपूर्ण करने वाले (सन्तः) हैं अर्थात् जो अन्याय से औरों के पदार्थों को धारण करते हैं, (तान्) उन दुष्टों को (अग्निः) जगदीश्वर (अस्मात्) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोक से (प्रणुदाति) दूर करे॥
विषय
आसुर जीवन
पदार्थ
‘गत मन्त्र’ में वर्णित पितृयज्ञ को जो युवक अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देते उनका जीवन क्या विचित्र बन जाता है’—यह वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में है—
१. ( ये ) = जो ( रूपाणि ) = सुन्दर आकृतियों को ( प्रतिमुञ्चमानाः ) = धारण करते हुए, अर्थात् सुन्दर वेष-भूषाओं में अपने को सजाते हुए ( चरन्ति ) = सर्वत्र विचरते हैं [ बाज़ारों, क्लबों और सिनेमागृहों में घूमते हैं ]।
२. ( असुराः सन्तः ) = [ असुषु रमन्ते ] जो अपने ही प्राणों में रमण करते हुए; जीवन का आनन्द लूटते हुए ( चरन्ति ) = मौज से घूमते हैं, अपने आदरणीय पुरुषों के आराम का तनिक भी ध्यान नहीं करते
३. जो ( स्वधया ) = [ स्वधा = अन्न ] अन्न के हेतु से ही ( चरन्ति ) = अपने इस जीवन में चलते हैं, अर्थात् उनका जीवनोद्देश्य ‘खाना-पीना’ ही रह जाता है। वे खाने-पीने के लिए ही जीते हैं।
४. ( परापुरः ) = [ परागतानि स्वसुखार्थानि अधर्मकार्याणि पिपुरति—द० ] संसार से उलटे, अर्थात् लोक-विद्विष्ट अपने ही सुखकारी अधर्मकार्यों को सिद्ध करते हैं। ( निपुरः ) = [ निकृष्टान् दुष्टस्वभावान् पिपुरति ] दुष्ट-स्वभावों को परिपूर्ण करनेवाले ( ये ) = जो लोग ( भरन्ति ) = अन्याय से औरों के पदार्थों को धारण करते हैं [ अन्यायेनार्थसंचयान्—गीता ]।
५. ( अग्निः ) = वह संसार का सञ्चालक प्रभु ( तान् ) = उल्लिखित वृत्तिवाले असुर लोगों को ( अस्मात् ) = इस ( लोकात् ) = लोक से ( प्रणुदाति ) = दूर करता है।
आसुर वृत्तिवाले लोग समाज के लिए बड़े अवाञ्छनीय होते हैं। राजा को चाहिए कि ऐसे लोगों को राष्ट्र से निर्वासित कर दे। या मनुष्य प्रभु से प्रार्थना करता है कि प्रभो! इनको आप अपने पास ही बुला लीजिए, इनसे हमारा पीछा छुड़ाइए।
भावार्थ
भावार्थ — आसुर जीवन के लक्षण हैं— १. छैल-छबीले बनकर घूमना [ रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाः ], २. अपनी ही मौज को महत्त्व देना [ असुरः ], ३. जीवन का उद्देश्य भोग समझना [ स्वधया ], ४. पराये माल से अपने को पुर करना [ परापुरः ], ५. निकृष्ट साधनों से अपने खजाने को भरना [ निपुरः ]। हम ऐसे बनकर प्रभु के क्रोध के पात्र न बनें।
विषय
नीच लोगों का निर्वासन।
भावार्थ
( ये ) जो लोग ( रूपाणि ) रुचिकर पदार्थों को ( प्रति मुञ्चमानाः ) त्यागते हुए ( असुराः ) केवल प्राण अर्थात् इन्द्रियों के भोगों में रमण करते ( सन्तः ) हुए ( स्वधया ) अपने बलसे या पृथिवी के शापन बल सहित ( चरति ) विचरण करते हैं और ( ये ) जो ( परापुरः ) दूर दूर तक बड़े २ अपने पुर बनाते हैं और ( निपुर: ) नीचे भूमि में अपने पुर बनाते अथवा जो ( परापुरः ) परित्याग करने योग्य काम्य स्वार्थों को पूर्ण करते और (निपुरः) जो नीच निकृष्ट वासनाओं को पूर्ण करते हैं अथवा ( परापुर : निपुर: ) स्थूल और सूक्ष्म देहों को ( चरन्ति ) पोषण करते हैं अग्निः ) अग्नि, दुष्टों का सन्तापक राजा अग्रणी नेता ( तान् ) उन लोगों को ( अस्मात् लोकात् ) इस लोक से ( प्र नुदाति ) निकाल दे॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
कव्यवहनोग्निर्देवता । भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जी दुष्ट माणसे मन, वचन व शरीर यांनी वाईट वर्तन करून अन्यायाने इतर प्राण्यांना त्रास देतात व आपल्या सुखासाठी इतरांचे पदार्थ हिरावून घेतात. ईश्वर त्यांना नीच योनीत जन्म देऊन दुःख भोगावयास लावतो ते आपल्या पापाचे फळ भोगून पुन्हा मनुष्यदेह प्राप्त करतात. त्यासाठी दुष्ट माणसांपासून व पापांपासून सावध राहावे व सदैव धर्माचे पालन करावे.
विषय
पूर्वोक्त असुरांची लक्षणें कोणती, हे पुढील मंत्रात प्रकाशित केले आहे. -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जे दुष्ट मनुष्य (रूपाणि) मनात आपल्यासाठी सोयीस्कर अशा अनुकूल विचार ठेवून (प्रतिमुंचमाना:) दुसर्यांपासून आपले दुष्ट विचार लपवून ठेवतात आणि इतरांसाठी अपायकारक विचार प्रकट करतात, अशा (असुरा:) धर्माला (सन्त:) आहेत, असे बरेच लोक (स्वधमा) भूमिवर जिकडे तिकडे फिरत असतात, येतात, जातात. तसेच जे (परापुर:) जगाच्या विपरीत कर्म करून केवळ स्वत:च्या सुखासाठी अथवा केवळ स्वत: सुख प्राप्त करण्यासाठी धडपड करतात व (निपुर:) दुष्ट स्वभावाचे (सन्त) आहेत, म्हणजे जे अन्यायाने इतरांची धनसंपदा पदार्थादी बळकावतात, (तान्) त्या दुष्टांना (अग्नी:) जगदीश्वर (अस्मात्) या प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लोकापासून (प्रणुदाति) दूर करो. (दुर्जन, स्वार्थी व अन्यायी जन जगात असू नयेत किंवा आमच्यापासून दूर असावेत) ॥30॥
भावार्थ
भावार्थ - जे दुष्ट लोक मन, वचन आणि शरीराने असत्य व कपटपूर्ण आचरण करतात, तसेच अन्य जीवांना अन्याय व अत्याचाराद्वारे पीडा देतात आणि स्वत:च्या सुखसोयीसाठी इतरांचे पदार्थ हिसकावून घेतात, ईश्वर अशा दुष्टांना दु:ख देऊन दंडित करतो व नीच योनींत जन्माला घालतो की ज्यामुळे त्यांना त्यानी केलेल्या पापकर्मांचे पळ भोगून पुन्हा मानवदेह मिळविण्यास पात्र होता येईल. यामुळे सर्व माणसांकरिता हेच उचित आहे की अशा दुष्ट माणसांपासून व पापापासून दूर राहून सदैव केवळ धर्माचरण करावे. ॥30॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh God remove from this world the demoniacal beings who walk on the earth, dissembling their real intentions, who are immersed in the attainment of their selfish aims, and are filled with evil ambitions.
Meaning
And who are the asuras? They are masters of hypocrisy and the art of changing faces. Friends and allies of the wicked, they encroach upon the rights of others and fill their coffers with ill-gotten wealth. Enemies of humanity, they roam around the world like giants. Agni, Lord of light, justice and social yajna, let them be thrown out and eliminated from the face of the earth.
Translation
May the adorable Lord drive away from our world those selfish souls, who camouflage their true form and though being evil-minded, pose to be honest workers and who plan to snatch other's wealth unjustly or acquire wealth by unfair means. (1)
Notes
Pratimuficamanah, camouflaging (their true form). Parnpurah, who snatch other's wealth unjustly. Nipurah, who acquire wealth by unfair means. Pranudati, प्रणुदतु drive away.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃগ্লক্ষণাস্তেऽসুরা ভবন্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
উক্ত অসুর কী লক্ষণযুক্ত হয় তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশ করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ে) যে দুষ্ট মনুষ্য (রূপাণি) জ্ঞানের অনুকূল স্বীয় অন্তঃকরণে মথিত ভাবগুলিকে (প্রতিমুঞ্চমানাঃ) অন্যের সম্মুখে লুকাইয়া বিপরীত ভাবগুলির প্রকাশকারী (অসুরাঃ) ধর্মকে আচ্ছাদিত (সন্তঃ) করে, (স্বধয়া) পৃথিবীতে যেখানে-সেখানে (চরন্তি) যাওয়া আসা করে এবং যে (পরাপুরঃ) সংসারের বিপরীত নিজের সুখকারী কর্মকে নিত্য সিদ্ধ করিবার জন্য প্রযত্ন করিয়া থাকে (নিপুরঃ) এবং দুষ্ট স্বভাবগুলিকে পরিপূর্ণ করিয়া (সন্তঃ) থাকে অর্থাৎ যে অন্যায়পূর্বক অপরের পদার্থ ধারণ করে (তান্) সেই দুষ্টদিগকে (অগ্নিঃ) জগদীশ্বর (অস্মাৎ) এই প্রত্যক্ষ ও অপ্রত্যক্ষ লোক হইতে (প্রণুদাতি) দূরে রাখেন ॥ ৩০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যেসব দুষ্ট মনুষ্য স্বীয় মন, বচন ও শরীর দ্বারা মিথ্যা আচরণ করিয়া অন্যায়পূর্বক অন্য প্রাণিদিগকে পীড়া দিয়া স্বসুখের জন্য অপরের পদার্থ গ্রহণ করিয়া লয় ঈশ্বর তাহাদেরকে দুঃখযুক্ত করে এবং নীচ যোনিতে জন্মদান করে । তাহারা স্বীয় পাপের ফল ভোগ করিয়া পুনরায় মনুষ্য দেহ ধারণ করিবার যোগ্য হয় । অতএব, সব মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য যে, এমন দুষ্ট মনুষ্য বা পাপ হইতে মুক্ত থাকিয়া সর্বদা ধর্মেরই সেবন করিবে ॥ ৩০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ে রূ॒পাণি॑ প্রতিমু॒ঞ্চমা॑না॒ऽঅসু॑রাঃ॒ সন্তঃ॑ স্ব॒ধয়া॒ চর॑ন্তি ।
প॒রা॒পুরো॑ নি॒পুরো॒ য়ে ভর॑ন্ত্য॒গ্নিষ্টাঁল্লো॒কাৎ প্র ণু॑দাত্য॒স্মাৎ ॥ ৩০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ে রূপাণীত্যস্য ঋষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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